विगत ९० वर्षों में मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति बढ़ जाने से भारतीय संस्कृति को बहुत क्षति पहुंची है। अली मौला अल्लाह को ईश्वर के समतुल्य दिखा कर छद्म धर्मनिरपेक्षता ने हमारी मूल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना को पंगु बना दिया है। परिभाषिक दृष्टि से भी रिलीजन और मजहब धर्म से भिन्न है, ऐसे में सर्व धर्म समभाव का झुनझुना केवल हिंदू पकड़े रह जाता है और मजहबी फितूर के उन्मादी अपना खेला खेल जाते हैं। अब जाकर इस सर्व विनाशक आत्मघाती “सर्वगर्मवड़ापाव” की सेकुलर संस्कृति के विरुद्ध हिंदू मुखर हुआ है। परन्तु मैं आज सर्व गर्म वड़ापाव के भयावह परिणामों पर नहीं चर्चा करूंगा, अपितु इससे लड़ते हुए हिंदुओ में उपजी हुई एक विशेष प्रकार की मानसिकता पर संकेत करना चाहूंगा। इस विशेष मानसिकता ने हिंदुओ को बौद्धिक स्तर पर हानि पहुंचाई है जिससे आध्यात्मिक दृष्टि शून्य हो गई है। चूँकि आज सर्वगर्मवड़ापाव के प्रति धर्मरक्षणार्थ हिंदुओं में बहुत आक्रोश है, ऐसे में हिंदू कभी कभार अपने लोगो/संतों/विचारकों द्वारा दिए गए वक्तव्यों की गहराई को न समझते हुए उन्हें भी वर्तमान सेकुलर की श्रेणी में डाल देता है। कुछ मध्यकालीन और वर्तमान हिंदू संतो द्वारा अल्ला-मुल्ला-गॉड-जीसस के विषय में बात करना, उनपर वैष्णव तुल्यात्मक वक्तव्य देना, आदि विवादास्पद चीजें कहां तक तर्कसंगत हैं? इनका वास्तविक प्रयोजन क्या रहा होगा? ऐतिहासिक व परिस्थिति जन्य पृष्ठिभूमि के आधार पर इन सब पर आज मैं अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
कोई भी “वक्तव्य” सर्वदा जाति, देश, काल, परिस्थिति, उद्देश्य, संदर्भ, श्रोताओं के बुद्धि स्तर आदि की परिसीमाओं में जकड़ा हुआ होता है। इनमें से एक भी चर का लोप होने से वक्तव्य रूपी फलन अपना उद्देश्यपूर्णार्थ खो देता है, और वक्तव्य वक्ता (के स्वभाव से) पृथक प्रतीत होने लगता है। और ऐसा प्रतीत होने लगता है कि ये बात वक्ता कैसे बोल सकता है? जैसे कोई संत सहारा रेगिस्तान में रहने वाले लोगों के लिए ये बोले कि “ठंडे हिम से सिंचन कर, शारीरिक तापमान को कम कर ध्यान में बैठना चाहिए” पर यही वक्तव्य अगर हिमालय की बर्फ की चोटियों में बैठा मनुष्य पढ़े तो कह देगा की अरे ये संत नहीं पागल है!! ठीक इसी प्रकार के उदाहरण अलग अलग कालखंड, अलग अलग परिस्थिति, विभिन्न श्रोतागणों के संदर्भ में भी दिए जा सकते हैं।
और ऐसे वक्तव्य जो बाह्य जानकारी पर आधारित होते हैं, और जिनकी व्याख्या, सत्यता, प्रायोगिकतादि समय काल परिस्थिति के अनुसार बदलती हो, उन वक्तव्यों से कोई किसी संत की आध्यात्मिक उपलब्धिता पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठा सकता। उदाहरण स्वरूप, यादि अभी संपूर्ण जगत की संपूर्ण विधाओं से ये सर्वमान्य सिद्धांत ख्यापित हो जाए की ईसा मसीह नेक थे और बाइबल सही ग्रंथ है, तो इस युग में पले बढ़े साधक जो बाद में संत बनेंगे वो भी इस बात को सही मानते हुए चलेंगे,और अपने प्रवचनों में इस बात की सत्यता न नकारते हुए अपने सिद्धांत की व्याख्या करेंगे। अब मान लीजिए की १०० वर्ष बाद लोगों को ये पता चले कि बाइबल मिथ्या पुस्तक है और अब ये सर्वमान्य ख्यापित हो जाए, ऐसे में अगर इस समय काल का व्यक्ति उन १०० साल पुराने संतों के विचार पढ़ेगा तो कहेगा क्या बकवास है? यही हाल हो रखा है सर्वगर्मवड़ापाव की संस्कृति में उपजे नव हिंदू वीरों का। निश्चित रूप से उनके (संतो के) वक्तव्य से उनकी आध्यात्मिक उपलब्धिता से संबंधित कोई ठीक ठीक निष्कर्ष नहीं निकला जा सकता।
तो जो भी मध्यकालीन संतों का साहित्य है अगर उनमें कहीं इस्लामिक समतुल्यता मिलती है तो उसे आज के कालखंड की बुद्धि से देखना सही नहीं है। आज हमें इस्लाम की सारी करतूतों का पता है, इस्लामिक पुस्तकों का सच सबके सामने है, ज्ञान का संचार तीव्र है, हजरत मोहम्मद के इतिहास का भी ज्ञान है। किन्तु हिंदू जनमानस को मध्यकालीन युग में इतना नहीं पता था, सामान्यतः लोग इसको भी एक अन्य धर्म की दृष्टि से देखते होंगे। तब मजहब और धर्म में पृथकत्व नहीं था।
इसके अलावा आज हम किसी इस्लामिक हुकूमत द्वारा नहीं शासित हैं, तब मुगल आक्रांताओं का राज हुआ करता था। आप कल्पना कीजिए आप १ लाख मुस्लिमों के समक्ष खड़े हैं और आपको धर्म देशना करनी है, आप क्या बोलेंगे? क्या कोई जितेंद्रिय संत आपके जैसे पिस्लम, हिंस्लाम आदि गाली गलौच कर सकता है? क्या आप संत से ऐसी अपेक्षा रखते हैं? क्या कोई संत मोहम्मद या इस्लामिक प्रतीकों के विरुद्ध बोल सकता है? नहीं! और अगर बोल भी सकता था तो क्या उनको मोहम्मद और इस्लाम की इतनी जानकारी थी, जितनी आज है? नहीं! अत: वहां विदेशी मुगलाई मानसिक प्रक्रिया में जन्मे जीवों को वैष्णव/जोगी बनाने हेतु संतों (ईसाई व इस्लाम समुदाय) द्वारा जो प्रचलित इस्लाम व ईसाई विचारधारा थी, उसी के समतुल्यात्मक उदाहरण देकर प्रचार करना स्वाभाविक है।
जैसे – कोई अगर ये मानता है कि अल्लाह ही परम है, तो हमारे संतो ने बोला भगवान विष्णु परम है, तुम जिसे अल्लाह कहते हो हम उसे विष्णु कहते हैं! कुछ इस प्रकार हमारे संतों ने बिना राजनैतिक, आर्थिक, बाहुबल के धर्म का पालन और प्रचार प्रसार किया। गोरखवानी में मोहम्मद की प्रशंसा में कुछ पद मिल जाते हैं, इस्लामिक शब्दावली भी मिल जाती है, ये सब गोरखनाथ जी से हुए तत्कालीन मुसलमानो के संवाद को प्रदर्शित करते हैं। ऐसे संवादों की एक बात है की इनमें मुसलमानों को पथभ्रष्ट बता कर उन्हीं के प्रतीकों को उच्च बता कर (योगी समतुल्य) मार्ग (अपरोक्ष रूप से योग मार्ग) में बढ़ने के ओर प्रेरित किया गया है। और इतिहास साक्षी है कि आज भी १००००+ योगी ऐसे हैं जो कभी मुस्लिम थे। इस तरह गोरखनाथ प्रभृति के संतों ने मुस्लिमों को भी योगी बना डाला। अब कोई मूढ़मति (सर्वगर्मवड़ापाव के विरोध में अति उन्मादित) गोरखवाणी से कुछ सबद ले कर ये कहे कि गोरखनाथ “सेक्युलर” और इस्लाम प्रभावित/ सर्वगर्मवड़ापाव थे तो ऐसी विचारधारा निश्चित ही रक्षण कम (सर्वगर्मवड़ापाव से) और पतन ज्यादा करवा देगी। भला किसमें इतना साहस है की शिवावतार महासिद्ध शिरोमणि नाथ सम्प्रदाय प्रवर्तक रसशास्त्राचर्य हठयोगाचार्य श्री गुरु गोरक्षनाथ को “कैंसिल” कर दे!
अच्छा एक और उदाहरण जगतगुरु माध्वाचार्य और मुस्लिम राजा का संवाद भी मिलता है! उन्हें भी कैंसिल कर दो! ठीक इसी प्रकार चैतन्य महाप्रभु का पाठन मौलानाओं से संवाद मिलता है जहाँ जो कहते हैं कि कुरान में भी निर्विशेषवाद नहीं अपितु परम पुरुष साकार ईश्वर की बात हुई है, और इस तरह श्री चैतन्य ने अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमान को कृष्ण के पवित्र नाम का जप करने की सलाह देकर दीक्षा दी। मुसलमान का नाम बदलकर रामदास कर दिया गया। एक और ऐसे पठान मुसलमान भी था जिसका नाम विजुली खान था। अब कोई चैतन्य महाप्रभु को भी सेकुलर कह कर “कैन्सिल” कर दे! ऐसे ही आज कल मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के संतों के साहित्य पर (उनके द्वारा मुस्लिम समतुल्य वक्तव्यों की समीक्षा चल रही है) और ऐसे ही आध्यात्मिक शून्य समीक्षा का शिकार होते चले जा रहे हैं हमारे संत।
ऐसा भी नहीं कि इस्लाम के गीत गाएं गए हों; मध्यकालीन संतों ने इस्लामिक विचारधारा का पुरजोर विरोध भी किया है। इन्हीं संतों के बदौलत हिंदू धर्म आज सुरक्षित है। चैतन्य महाप्रभु ने स्पष्ट रूप में कुरान शास्त्रकर्ता को “भ्रांत” और अज्ञानी बोला है (चैतन्य चरितामृत/ मौलान चांद काज़ी से संवाद)
ठीक इसी कड़ी में यदि हम देखें तो वर्णमान के कुछ संत जो विदेश में प्रचार करते हैं उनके द्वारा भी ऐसे वक्तव्य देखने को मिल जाते हैं जो “सर्वगर्मवड़ापाव” जैसे दिखते हैं। स्वामी विवेकानंद के भी वक्तव्य ऐसे मिलेंगे! रामकृष्ण परमहंस के भी! परमहंस योगानन्द के भी! आधुनिक सदगुरु के भी। विधर्मी इसी कारण से श्रील प्रभुपाद पर भी आरोप लगाते हैं, परन्तु विवेक की बात है कि अगर श्रोता गण की बुद्धि पूर्वोपार्जित ज्ञान (यहाँ पर ईसाइयत और इस्लाम) पर आधारित है तो उनको उसी के आगे, और उन्हीं के सर्व सुलभ दृष्टिकोण से वैदिक सिद्धांत समझना ही उपयुक्त है। उनके काल क्रम में ज्ञान का प्रसार इतना तीव्र नहीं था, संस्कृत के (नान ट्रांसलेटेबलस्/Non translatable) प्रचलित नहीं थे। अत: उनकी अंग्रेजी की वर्तनी में ईसाई तुल्य अंग्रेजी के शब्द देखने मिल सकते हैं। उचित स्तर पर बढ़ने के बाद, भक्त जन/उनके अनुसरण कर्ता स्वत: ही सत्य ज्ञान जाएंगे। और श्रोता गण के सवालों का उत्तर देना, जिससे उनका अहंकार और पूर्वाग्रह भी न खंडित हो और सत्यता की तरफ उन्मुख हो जाए ये गुह्यतम प्रचार नीति है सबके समझ में नहीं आयेगी। और इसी नीति के अन्तर्गत स्वामी विवेकानन्द, श्रील प्रभुपाद आदि ने ईसाई मुस्लिमों पर गंभीरतम बौद्धिक प्रहार भी किए हैं, जिससे उन्हें व्यापक रूपों में क्षति पहुँची है।
“हे हिन्दुराष्ट्र! उत्तिष्ठत! जाग्रत!”
आशा है उपरोक्त बातों पर हिंदू कुछ विचार करेगा और अपनी रक्षात्मक प्रणाली और सुदृढ़ करेगा। हाँ, आज के समय के कथावाचक (जिनके श्रोता गण भारतीय हैं, जिन्हें इस्लाम का वास्तविक स्वरूप ज्ञात है, जिनके पास किसी भी चीज का डर नहीं है, परिस्थिति भी पुराने जैसे नहीं है) अगर अली मौला करेंगे तो जरूर उनके विरुद्ध आक्रोश दिखाना चाहिए एवं ऐसे नाशकारी सेकुलरिज्म का विरोध करना चाहिए। धन्यवाद।
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