आजकल कुछ अति विद्वान समाज में यह भ्रम प्रचारित कर रहे हैं कि शबरी के “झूठे बेर” की कथा रामायण में नहीं है, व शबरी निम्न जाति की भक्त नहीं बल्कि उच्च वर्ण की स्त्री है। यह न केवल शास्त्र के परम तात्पर्य के प्रतिकूल है वरन सामाजिक समरसता हेतु भी अत्यन्त हानिप्रद एवं अहंकार-द्वेष का मूल है। उपर्युक्त कोटि के महानुभावों द्वारा शबरी जी के विषय में तर्काभासों एवं प्रमाणाभासों के आधार पर यह भ्रम भी फैलाया जा रहा है कि शबरी के जूठे बेर एवं उसके भीलनी होने की बात नवीन है, जबकि सत्य तो यह है कि सभी प्राचीन शास्त्र शबरी को निम्न जाति में उत्पन्न एवं गुह्यरूप से उसके जैसी भक्त शिरोमणि के झूठे बेर श्रीराम द्वारा ग्रहण करने का ही प्रतिपादन करते हैं। यही मत समस्त पूर्वाचार्य महाभागों के द्वारा रचित प्राचीन टीकाओं एवं वैष्णव सम्प्रदायों के ग्रन्थों और परम्परा में एकमत से प्रतिपादित है। यदि शबरी ब्राह्मणी है तो यह मत मात्र कुछ नव स्मार्त्तों का हो सकता है, वैष्णवों का कथमपि नहीं हो सकता।
आचार्य श्री विनय झा लिखते हैं :- “वाल्मीकि रामायण इस विषय में क्या सूचना देता है इसकी जाँच आवश्यक है।
मया तु विविधं वन्यं सञ्चितं पुरुषर्षभ।
तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसम्भवम्।।
एवमुक्तस्स धर्मात्मा शबर्या शबरीमिदम्।
राघवः प्राह विज्ञाने तां नित्यमबहिष्कृताम्।।
-वाल्मीकि रामायण 3.74.17-18
वाल्मीकि रामायण में है कि शबरी ने श्रीराम से कहा कि पम्पा (सरोवर) के तट पर उगने वाले वन्य (फलों और मूल्यों) का मैंने आपके लिए संग्रह किया है। अगले श्लोक में कहा गया है कि शबरी विज्ञान में नित्य “अ-बहिष्कृत” थी। इसका अर्थ यह है कि सांसारिक दृष्टि से शबरी बहिष्कृत थी, अर्थात उसके हाथ का सिद्ध अन्न वर्जित था, किन्तु यहाँ प्रसंग सिद्ध अन्न का नहीं बल्कि प्राकृतिक फल का है। प्राकृतिक फल किसी भी वर्ण या जाति का लाया हुआ हो, धोने के बाद खाया जा सकता है, अतः इस प्रसंग में “बहिष्कृत” का सीधा अर्थ यही है कि शबरी जो जंगली फल लायी थी वे जूठे थे, परन्तु वह बूढ़ी भक्तिन “नित्य विज्ञान” (अटूट समाधि) में लीन रहने वाली “सिद्धा” योगिनी थी, अतः अ-बहिष्कृत थी, उसका जूठा भी ग्राह्य था।
वाल्मीकि जी ने शबरी के लिए “सिद्धा” , “धर्मसंस्थितां“, “तापसी“, “सिद्धसम्मता“ (सिद्धों द्वारा सम्मानित), “संशितवृताम्“ (प्रशंसित अर्थात कठोर व्रतों को करने वाली) जैसे विशेषणों का प्रयोग किया और अन्त में बताया कि श्रीराम के कहने पर शबरी ने अपने शरीर की आहुति अग्नि में देकर दिव्य शरीर प्राप्त किया और दिव्यलोक को चली गयी। गोस्वामी जी ने वाल्मीकि जी का विरोध नहीं किया, उनकी बात को और भी स्पष्ट किया। प्रश्न है कि शबरी को ब्रह्मज्ञान था तो जूठे का ज्ञान क्यों नहीं था ? उत्तर सीधा है — किसी देवता को अर्पण करने में जूठे का ध्यान रखा जाता है, जब देवता स्वयं उपस्थित हों तब जूठा किसका ? जो नित्य समाधि में रहे उसका जूठा तो साक्षात परमात्मा का जूठा है, उसे जूठा नहीं मान सकते।
वह बेचारी बूढ़ी थी, उसके जीवन का अन्तिम दिन था, प्रयाणकाल था। श्रीराम के लिए फल इकट्ठे कर दिए यही बहुत था।
तेषां गतानामद्यापि दृश्यते परिचारिणी।।
श्रमणी शबरी नाम काकुत्स्थ चिरजीविनी।
-वाल्मीकि रामायण 3.73.25
पिछले अध्याय में कबन्ध ने शबरी को “चिरजीविनी“ कहा, अर्थात अत्यन्त दीर्घकाल से शबरी वहाँ तपस्या कर रही थी | जब मातंग ऋषि जीवित थे तब भी उस आश्रम में अग्नि पर भोजन नहीं बनता था, केवल वन्य फल ही लोग खाते थे | शबरी ने भोजन पकाना कभी देखा ही नहीं था। उसे जितना ज्ञान था वैसा किया , किन्तु पूर्ण भक्ति से किया।
आपमें हिम्मत है अग्नि में अपने शरीर को होम करके दिव्य शरीर प्राप्त करने की ? अग्नि आपके शरीर की आहुति स्वीकार नहीं करेंगे, ऐसा करने से आप आत्महत्या का पाप प्राप्त करेंगे। शबरी बनना आसान नहीं है।””
उपर्युक्त लेख सम्बन्धी वाल्मीकि रामायण की प्राचीन टीकाओं में स्थित पूर्वाचार्योक्त प्रमाण
◆ गोविन्दराज की भूषण टीका से प्रमाण
17वीं शताब्दी में श्री गोविन्दराज ने वाल्मीकि रामायण पर अपनी भूषण टीका में उपर्युक्त श्लोकों के भाष्य में लिखा है:-
“विज्ञाने विषये । अबहिष्कृताम् अन्तरङ्गभूताम् । जात्या हीनामप्याचार्यप्रसादलब्धब्रह्मज्ञानामिति भगवताप्यादरणीयत्वोक्तिः ।। 3.74.18 ।।“
गोविन्दराज ने स्पष्ट रूप से शबरी को हीन जाति का बताया है जिसने आचार्य प्रसाद से ब्रह्मज्ञान को प्राप्त किया।
श्री गोविन्दराज ने ही पिछले श्लोक की व्याख्या में लिखा है :-
“सञ्चितमित्यनेन रामस्य चित्रकूटागमनात् प्रभृति सम्पादितत्वम् आदरेण गुप्तत्वं च तत्तत्फलजातीयमाधुर्यं परीक्ष्य स्थापितमिति सम्प्रदायः ।। 3.74.17 ।।”
अर्थात् शबरी ने संचित वन्यफलों के माधुर्य का परीक्षण करके उन्हें स्थापित किया था। जूठा किये बिना अर्थात् भक्षण किये बिना फल के माधुर्य (मिठास) का परीक्षण कथमपि सम्भव नहीं है।
◆ नागेश भट्ट की तिलक टीका से प्रमाण
18वीं शताब्दी के महानतम वैयाकरण नागोजी भट्ट (नागेश भट्ट) ने भी अपनी तिलक टीका में शबरी द्वारा फल मूलों के माधुर्य (मिठास) को स्वयं परिभक्षण द्वारा परीक्षित कर श्रीराम को निवेदित करना लिखा है —
एवमुक्ताहं यतः, अतो मया स्वदर्थं वन्यं सम्यक्परोक्ष्य माधुर्ययुतं संचितमित्यर्थः । तदुक्तं पाद्मेशबरी प्रस्तुस्य–‘ प्रत्युद्गम्य प्रणम्याथ निवेश्य कुशविष्टरे । पादप्रक्षालनं कृत्वा तत्तोयं पापनाशनम् ।। शिरसा धार्य पीत्वा च वन्यैः पुष्पैरथार्चयत् । फलानि च सुपक्वानि मूलानि मधुराणि च ।। स्वयमास्वाद्य माधुर्यं परीक्ष्य परिभक्ष्य च । पश्चान्निवेदयामास राघवाभ्यां दृढव्रता ।। फलान्यास्वाद्य काकुत्स्थस्तलस्यै मुक्तिं परां ददौ’ इति ।। 3.74.17,18 ।
वाल्मीकि रामायण से भी शबरी जी स्पष्ट द्विजेतर व निम्न जात्युत्पन्न भीलनी आदि ही सिद्ध होती हैं। इससे पिछले अध्याय में भी कबन्ध ने शबरी को श्रमणी कहा है, ब्राह्मणेतर तपस्वी श्रमण होते हैं। इसीलिए बाद में बौद्ध आदि तपस्वी भिक्षु श्रमण कहलाए। शबरी किसी भी प्रकार ब्राह्मण नहीं थीं।
वाल्मीकि रामायण से इस विषय में अधिक जानने हेतु देखें परम शास्त्रज्ञ मनीषी स्वामी श्री सियारामदास नैयायिक जी का यह यूट्यूब वीडियो।
श्रीरामचरितमानस में शबरी की जाति
रामचरितमानस अरण्यकाण्ड में शबरी स्वयं कहती हैं, “अधम जाति मैं जड़मति भारी।” अर्थात् मैं अत्यन्त अधम (नीच, निम्न, निकृष्ट) जाति की और जड़बुद्धि हूँ। फिर कहती हैं :-
“अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह मह मैं मतिमन्द अघारी॥34.2॥”
“जाति हीन भघ जन्म महि। मुक्त कीन्हि अस नारि ॥36॥”
अर्थात्, “जो अधम अर्थात् जो निम्न से भी निम्न है, उसमें भी मैं निम्न नारी हूँ। और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मन्दबुद्धि हूँ।” व “जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी। ऐसी स्त्री को भी श्रीराम ने मुक्त कर दिया।”
पहले दोहे में बार बार अधम शब्द के प्रयोग में यमक अलंकार है। यदि यहाँ अधम से मात्र स्त्री जाति में उत्पन्नता ही अभीष्ट होती तो गोस्वामी तुलसीदासजी शबरी जी के मुख से चार चार बार अधम उच्चारित न करवाते, स्पष्ट है कि जब वे चार बार स्वयं को अधम कह रही हैं तो अनेक अर्थों में अपनी भौतिक या जातिगत अधमता का परिचय श्रीराम को दे रही हैं। श्रीरामचरितमानस के सर्वप्रतिष्ठित मान्य पूर्वाचार्यों की सभी टीकाओं में शबरी जी को निम्न जात्युत्पन्ना परमोच्च रामभक्त ही निरुपित किया गया है।
◆ श्रीरामचरितमानस के विजया टीकाकार ने लिखा है, “पहले अधम से जातिहीन होना कहा। दूसरे अधम से अघ (पाप) जन्म महि कहा। तीसरा अधम शब्द नारी होने के नाते कहा। क्योंकि नारी होने से दोष में उत्कर्ष आ जाता है।” आगे विजया टीकाकार ने, की व्याख्या में भी लिखा है, “जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी। ऐसी स्त्री को भी उन्होंने मुक्त कर दिया |”
श्रीरामचरितमानस के प्रमुख टीकाकार मानस राजहंस पण्डित श्री विजयानन्द त्रिपाठी जी ने श्रीविजया टीका लिखी है।
◆ श्रीरामचरितमानस की सिद्धान्ततिलक टीका में कहा है, ” ‘अधम ते अधम’ – जाति की अधम तो पहले ही कह चुकी है कि भील की जाति अधम है | उन अधमों में भी मैं अधम हूँ, अर्थात् जाति से भी निकाली हुई भ्रष्ट हूँ; यथा- “जाति हीन अघ जन्म महि…” ( दो० ३६ ) ; अथवा नारी होने से मैं अधम हूँ फिर मैं तो वर्णसंकर जाति में हूँ, इससे अति अधम हूँ।” आगे कहा.”जाति हीनता यह है कि शबर जाति वर्णाधम में परिगणित है|”
श्रीरामचरितमानस के प्रमुख टीकाकार महात्मा पण्डित श्री कान्ताशरण जी महाराज ने श्री सिद्धान्ततिलक टीका लिखी है।
◆ स्वामी श्री रामभद्राचार्य जी ने भावार्थबोधिनी टीका में लिखा है, “शबरी बोलीं, हे प्रभु ! मैं अत्यन्त जड़ बुद्धि वाली, अधम जाति में उत्पन्न हुई मैं आपकी स्तुति किस प्रकार करूँ? मैं वर्ण से अधम, आश्रम से अधम और कुल से अत्यन्त अधम नारी हूँ। हे अघासुर के शत्रु ! उनमें भी मैं अत्यन्त मन्दबुद्धि की महिला हूँ।” आगे लिखा, “प्रभु श्रीराम ने अत्यन्त हीनजाति में उत्पन्न हुए पापों की जन्मभूमि हिंसाप्रधान कोल, किरातों के कुल में पली, ऐसी संस्कारहीन नारी को भी जब मुक्त कर दिया तो तुम ऐसे प्रभु को छोड़कर क्या सुख चाहते हो?”
श्रीरामचरितमानस के प्रख्यात टीकाकार जगद्गुरु रामानंदाचार्य श्री रामभद्राचार्य जी महाराज ने श्री भावार्थबोधिनी टीका लिखी है।
जब शबरी अपनी निम्न जाति पर अत्यन्त हीनभावना से ग्रसित होकर अति संकोचवश भक्तिपूर्वक भगवान् से यह कहती है तो भगवान् कहते हैं,
“जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥34.3॥
जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता — इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल [ शोभाहीन ] दिखायी पड़ता है।”
अतः श्रीरामचरितमानस में श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी ने शबरी के कहीं भी किसी भी प्रकार की जातिगत उच्चता का सन्देह भी नहीं छोड़ा है, व श्री शबरी जी की अत्यन्त निश्छल निरापद प्रेमाभक्ति की ही साकार अभिव्यक्ति की है।
अध्यात्म रामयाण में शबरी की हीन जाति
अध्यात्म रामायण में भी शबरी ने स्वयं को नीच जाति में उत्पन्न, “हीनजातिसमुद्भवा” -(अ.रा.० अ.का. 10.17) कहा है। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी ने ही वहाँ कहा है, “पुंसत्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः। न कारणं भजने भक्तिरेव हि कारणम्” अर्थात् पुरुषत्व स्त्रीत्व का भेद अथवा जाति, नाम और आश्रम, ये कोई भी मेरे भजन का कारण नहीं है। उसका कारण तो एकमात्र मेरी भक्ति ही है।” अध्यात्म रामायण में ही शबरी जी को “अधमजन्मा” अर्थात् पाप जन्मा भी कहा है। यहाँ भी स्पष्ट है कि शबरी स्वयं के निम्न जाति में उत्पन्न होने के कारण अत्यन्त संकोच कर रही है, जिसका संकोच मिटाने हेतु प्रभु अपनी भक्ति में लिंग, जाति, नाम आदि का अप्रवेश निरुपित कर रहे हैं। यदि शबरी को स्त्रीत्व से ही संकोच होता तो वह स्त्रीजातिसमुद्भवा कह सकती थी, हर शास्त्र के कथनानुसार अपने जाति हीनत्व का ही निरूपण न करती।
श्रीमध्व संप्रदाय की संग्रह रामायण का प्रमाण
श्रीमन् मध्वाचार्य के प्रत्यक्ष शिष्यों में से एक त्रिविक्रम पंडिताचार्य के पुत्र एवं मध्व सम्प्रदाय के प्रामाणिक आचार्य श्री नारायण पंडिताचार्य (1290 – 1370) द्वारा 14वीं शताब्दी में लिखित संग्रह रामायण में शबरी के लिए अवैदिकी विशेषण प्रयुक्त किया गया है, जो उनके भील होने का स्पष्ट परिचय देता है, एवं उन्हें चातुर्वर्ण्य से पृथक अन्त्यज कोटि में रखता है।
अवैदिक्यै शबर्यै च दयालुः स्वगतिं ददौ।
तस्या भक्त्या भृशं प्रीतो भक्तिर्हि भवमोचनी।।
(संग्रह रामायण, अरण्यकाण्ड, 6.39)
अर्थात् अवैदिक परम्परा में जन्मी और पली बढ़ी शबरी की भक्ति से प्रसन्न होकर दयालु भगवान् श्रीराम ने उसे स्वगति प्रदान की। मध्व सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित आचार्य द्वारा रचित एवं माननीय इतने प्राचीन ग्रन्थ में भी शबरी को निम्न जाति में उत्पन्न ही बताया गया है।
पुराणों में प्रमाण
◆ भविष्योत्तरपुराण के वेंकटाचल माहात्म्य, चतुर्दश अध्याय में कुलाल नाम का शूद्र हरिभक्त स्तुति करता हुआ कहता है,
किमर्थमगमो देव ! गृहं मे शूद्रजन्मनः ।
न चाहं विदुरो देवो न चाहं शबरी प्रभो ! ॥ (14.224)
अर्थात् मैं तो शूद्र कुल में उत्पन्न हुआ हूँ और न तो मैं शूद्र विदुर जैसा ज्ञानी हूँ न ही शूद्रा शबरी जैसा भक्त हूँ।
स्पष्ट है कि शबरी भी निम्न वर्ण की थी इसलिए कुलाल ने स्वयं को निम्न वर्ण का बताते हुए निम्नवर्णीय हरिभक्तों की भक्ति का उदाहरण दिया। अन्यथा कुलाल स्वयं को शूद्र बताते हुए कभी विदुर व शबरी जैसे भक्तों से अपनी तुलना न करता।
◆ स्कन्दपुराण, पंचम खण्ड-अवन्ती खण्ड के रेवा खण्ड अध्याय 56 में एक अन्य धर्मचारिणी शबरी का वर्णन आया है, जो एक वनवासी व्याध (शिकारी) भील की पत्नी थी (व्याधः शबरः सह भार्यया॥५६.५९॥)। यह भील भीलनी रानी को श्रीफल पुष्पादि सामग्री के बदले मूल्य नहीं लेना चाहते थे और धर्म में आसक्त थे। यह दोनों शबर शबरी भी तीर्थ में प्राण त्यागकर विमान से उत्तम लोक को प्राप्त हुए। स्पष्ट है कि शास्त्र में जहाँ भी शबरी नाम आया है निम्नवर्णा भीलनी के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।
◆ लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः १ (कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः 451 में एक शबर शबरी नाम के धर्मपरायण शूद्र भील दम्पत्ति की कथा आई है,
शबरी स्वामिवशगा दत्वा कान्ताय खादति ।
कान्तं विष्णुं सदा मत्वा करोति सेवनं सती॥९॥
शूद्रधर्मं पुरस्कृत्य वर्तेते दम्पती सदा ।
निष्कपटौ शाट्यहीनौ सत्यमार्गपरायणौ ॥1.451.10॥
यथा यथाऽभवद् भीलः सुखी साधनवाँस्तथा ।
पूजनं प्राकरोन्नित्यं नियमेनाऽर्हणं मुहुः ॥३३॥
यह भीलनी शबरी भी रामायण की शबरी के समान ही भगवान की बड़ी भारी भक्त थी। यह भील दम्पत्ति प्रतिदिन चिताभस्म से शिवपूजन करते थे पर एक दिन जब चिताभस्म नहीं मिली तो शबरी ने स्वयं की देह को चिता में आहूत कर दिया, परन्तु शिवप्रसाद से अग्नि उसे छू न सकी और शिवजी उन दोनों की निष्कलुष भक्ति पर अत्यन्त प्रसन्न हुए। अतः स्पष्ट है कि शास्त्रों में जहाँ भी शबरी की कथा आई है वे सभी भील जाति में उत्पन्न निम्न वर्ण की थीं न कि प्रमाणाभास से उच्चजाति की। क्योंकि जंगलों में रहने वाली भील जाति ही शबर कहलाती है।
शम्बूक और शबरी की तपस्या की तुलना गलत
श्रीराम की परम भक्तिन शबरी तामसी तपस्या नहीं कर रही थी। वह मात्र अपने गुरुदेव के आदेश से भक्ति भाव का द्वारा श्रीराम की आराधना कर रही थी। भक्ति और सेवा में चारों वर्णों का अधिकार सर्वकाल में है। प्राचीनकाल से ही शबरी मतंग मुनि के आश्रम में ऋषियों की सेवा सुश्रुषा के धर्म में संलग्न थी। शबरी निष्काम साधन कर रही थी व केवल श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा में थी।
इसके विपरीत शम्बूक की तपस्या उग्र थी। शम्बूक अपने अधिकारों का अतिक्रमण करके देवलोक पर विजय चाहता था। देवलोक पर विजय असुर ही चाह सकते हैं। वह स्पष्टया राक्षसी स्वभाव का था। श्रीराम द्वारा तप का कारण पूछने पर उल्टा लटक के तप करता हुआ शम्बूक कहता है, “मैं सदेह स्वर्गलोक जाकर देवत्व प्राप्त करना चाहता हूँ। मैं झूठ नहीं बोलता। देवलोक पर विजय पाने की इच्छा से ही मैं तपस्या में लगा हूँ।” शम्बूक जैसे असुर एवं शबरी जैसी भक्तिन के साधन में कहीं भी साम्य नहीं है।
हर महापुरुष को उच्च जातीय सिद्ध करने से ही ऊंची जातियों की महानता सिद्ध नहीं होगी। उच्च जातियों के पास तो लाखों करोड़ों महापुरुष हैं, लाखों ऋषि, लाखों तपस्वी, सारा शास्त्र ब्राह्मणादि उच्च वर्णों की महानता से भरा हुआ है। यदि कथित निम्न वर्णों शूद्र वनवासी इत्यादि को 2-4 महापुरुष मिल रहे हैं, वे उन्हें अपना पूर्वज मान लेते हैं तो उन्हें भी उच्चजातीय सिद्ध करने की नवीन परम्परा आजकल चल रही है। जब श्रीराम स्वयं कह रहे हैं मेरी भक्ति में जाति का काम नहीं है, तो शबरी के निम्न जातीय होने से आपत्ति क्या है? शूद्र जाति कहाँ जाएगी? अगर वह इतिहास में खुद के महापुरुष नहीं पाएगी तो स्वतः खलनायकों को ही अपना महापुरुष बना लेगी।
श्री राम का सत्य सर्वप्रिय धर्म स्वरूप..
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