बी.एच.यू. के संस्थापक महामना मालवीय के विरुद्ध कुप्रचार

297
पण्डित मदनमोहन मालवीय महामना मालवीय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय महाराजा रामेश्वर सिंह madanmohan malaviya mahamana malviya rameshwar singh BHU Benaras HIndu University

काशी हिंदू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध, महामना मालवीय जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर शोधकार्य करनेवाले विद्वान् और इतिहासप्रेमियों का ध्यान एक अति महत्त्वपूर्ण विषय की ओर आकृष्ट कर रहा हूँ। वह विषय यह है कि इधर कुछ दिनों से निरन्तर देखने और पढ़ने में आ रहा है कि दरभंगा-राजपरिवार और मिथिलांचल क्षेत्र से जुड़े कतिपय विद्वान् इस बात के प्रचार-प्रसार में ज़ोर-शोर से संलग्न हैं कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वास्तविक संस्थापक महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी (1861-1946) नहीं अपितु दरभंगा-नरेश महाराज रामेश्वर सिंह जी (शासनकाल : 1898-1929) थे। इस बात को माननेवाले इन विद्वानों ने दरभंगा-नरेश द्वारा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को लिखे गए कतिपय पत्र जारी किये हैं, सोशल मीडिया पर कुछ छोटे-मोटे लेख प्रकाशित किये हैं और कुछ पुस्तकें भी छापी हैं जिसका प्रचार-प्रसार बड़े धड़ल्ले से किया जा रहा है। उन पुस्तकों में से एक पुस्तक के आवरण-पृष्ठ पर महामना मालवीय जी के चित्र पर एक बड़ा सा प्रश्नवाचक-चिह्न (?) लगाया गया है जो नितान्त अभद्रतापूर्ण और आपत्तिजनक है। आश्चर्यजनक है कि अब तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय प्रशासन का ध्यान इस ओर नहीं गया है। देखें लिंक 1 , लिंक 2

इस विषय पर इन विद्वानों को बीएचयू या मालवीय-साहित्य के जानकार किसी अन्य अधिकारी विद्वान् द्वारा कोई समुचित उत्तर नहीं दिये जाने पर अब इन तथाकथित शोधकर्ताओं का साहस इतना बढ़ गया है कि ये अपने पैर पसार रहे हैं और इन्होंने विकिपीडिया-जैसी वेबसाइटों पर, जहाँ लेखों का सम्पादन बड़ी आसानी से किया जा सकता है, ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ के हिंदी और अंग्रेज़ी पृष्ठ पर मनमाना परिवर्तन कर दिया है और उसमें काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माताओं में वास्तविक भूमिका महाराजा रामेश्वर सिंह की मानी है और असली संस्थापक मालवीय जी को एक सामान्य संस्थापक-सदस्य बता दिया है। देखें लिंक :

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय- विकीपीडिया
Banaras Hindu University – Wikipedia

इन विद्वानों में मालवीय जी को छोटा सिद्ध करने की इतनी होड़ लगी है कि ये अति उत्साह में विकिपीडिया पर महाराजा रामेश्वर सिंह जी के लेखों में उनको काशी हिंदू विश्वविद्यालय का संस्थापक बताना भूल गए हैं। उन लेखों में महाराजा साहिब को ‘हिंदू यूनिवर्सिटी सोसायटी का अध्यक्ष’ बताया गया है। देखें लिंक :

महाराजा रामेश्वर सिंह – विकीपीडिया
Maharaja Rameshwar Singh – Wikipedia

कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराजा रामेश्वर सिंह जी पर लिखे गए उक्त दोनों लेख काफ़ी पुराने हैं और तथाकथित शोधकर्ताओं की नज़र इन लेखों पर नहीं पड़ी, अन्यथा ये उनमें भी संशोधन कर दिये होते।

बात यदि इतनी तक ही होती, तो भी ठीक थी, पर अब ये विद्वान्, मालवीय जी द्वारा किये गए अन्य कार्यों, जैसे— दिसम्बर, 1916 में हरिद्वार में गंगा पर बाँध के निर्माण को रोकने और अंग्रेज़ सरकार से समझौता वाले कार्य को, जो सर्वविदित है कि मुख्य रूप से मालवीय जी द्वारा सम्पन्न किया गया और उक्त अवसर पर देश के कई राजा-महाराजा उपस्थित थे जिनमें दरभंगा-नरेश भी थे, को भी पूर्णरूपेण दरभंगा-नरेश का कार्य सिद्ध करने का कुचक्र कर रहे हैं। पिछले दिनों पटना से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘धर्मायण’ (प्रधान सम्पादक : Acharya Kishore Kunal जी, सम्पादक : पं. Bhavanath Jha जी) के ‘गंगा-विशेषांक’ (अंक 95, ज्येष्ठ 277 वि., 08 मई-05 जून, 2020) में प्रकाशित ‘गंगा की अविरलता में मिथिलेश रमेश्वरसिंह की भूमिका’ शीर्षक लेख में लेखक डॉ. विजय देव झा जी ने गंगा-समझौतेवाले कार्य को महाराजा दरभंगा द्वारा सम्पन्न बताया है और मालवीय जी की भूमिका को बिल्कुल गौण ही कर दिया है। देखें — लिंक 

उल्लेखनीय है कि इस ऐतिहासिक घटना के सूत्रधार महामना मालवीय जी ही थे, अतः हरिद्वार में ब्रह्मकुण्ड के पास स्थित टापू का नामकरण ’मालवीय-द्वीप’ किया गया और वहीं मालवीयजी की प्रतिमा भी स्थापित की गई है। यही नहीं, जब-जब हरिद्वार को महामना की आवश्यकता पड़ी, तब-तब मालवीयजी वहाँ पहुँचे हैं। हालांकि यह विषय लम्बा है, इसीलिये इसे यहीं छोड़ता हूँ।

उक्त विद्वानों से मैं बड़ी विनम्रता से यह जानना चाहता हूँ कि—

1. जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय के असली संस्थापक महाराजा दरभंगा हैं, तो उनसे जुड़े सारे दस्तावेजों को दरभंगा-परिवार द्वारा किस गर्हित उद्देश्य से एक शताब्दी तक प्रकाशित नहीं किया गया अथवा क्यों इनको राष्ट्रीय अभिलेखागार या नेहरू स्मारक संग्रहालय को नहीं दिया गया?

2. यदि महाराजा दरभंगा ही वास्तविक संस्थापक थे, तो स्वयं दरभंगा में उनके जीवनकाल में कितने विश्वविद्यालय बन गये?

3. अपना 1898 का सेण्ट्रल हिंदू कॉलेज़, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के नाम पर सदा-सदा के लिए न्यौछावर कर देनेवाली महीयसी डॉ. एनी बेसेण्ट (1857-1933) क्या बीएचयू की संस्थापिका नहीं हैं? यदि कल डॉ. एनी बेसेण्ट के वंशज सामने आ जायें और कहें कि एनी बेसेण्ट ने सेण्ट्रल हिंदू कॉलेज़ दिया, तब जाकर बीएचयू बना, और एनी बेसेण्ट ही वास्तविक संस्थापिका हैं, तब उनको उत्तर कौन देगा?

4. बीएचयू के निर्माण के लिए चौदह सौ एकड़ का विशाल भूखण्ड दान द्वारा अथवा धन लेकर प्रदान करनेवाले काशी नरेश इस हिंदू विश्वविद्यालय के असली संस्थापक नहीं माने जाने चाहिये? उनकी तो कोई बात ही नहीं करता। (यहाँ मैंने ‘धन लेकर’ इसलिये लिखा है क्योंकि प्राचीन पत्रिका ‘माधुरी’ के नवम्बर 1926 अंक में प्रकाशित ‘हिंदू विश्वविद्यालय के लिये माननीय जस्टिस गोकर्णनाथ मिश्र की अपील’ में ‘ज़मीन के लिये लिये गये 6 लाख रुपये के ऋण’ का उल्लेख है।)

5. केवल महाराजा दरभंगा ही नहीं बल्कि बीकानेर-नरेश महाराजा सर गंगासिंह जी (1888-1943) ने भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिये ब्रिटिश अधिकारियों से पत्राचार किया था, देशभर में महामना मालवीय जी के साथ घूम-घूमकर चन्दा एकत्र किया था और स्वयं अपार धनराशि भी दी थी। फिर महाराजा गंगासिंह को संस्थापक क्यों न माना जाये? यदि इसी प्रकार बीकानेर-नरेश महाराजा गंगासिंह जी के वंशज बीएचयू और गंगासिंह जी से जुड़े दस्तावेज़ों को एकत्र करके शोर मचायें कि असली संस्थापक तो महाराजा गंगासिंह हैं, फिर क्या होगा?

6. सन् 1915 में ‘इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ (वायसराय की शाही विधानपरिषद्) में ‘बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी बिल’ पेश होने पर वहाँ सदन में किसने अपना पक्ष रखा था?

हमारे यहाँ किसी नयी संस्था का निर्माण होने पर समाज के कुछ धनसंपन्न, शक्तिसम्पन्न और ख्यातनाम महानुभावों को ‘संरक्षक‘ या ‘अध्यक्ष’ बनाये जाने की परम्परा बहुत पुरानी है। महामना मालवीय जी ने भी उसी परम्परा का अनुसरण किया और देशभर के प्रमुख राजाओं को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना में ‘संरक्षक’ बनाया। स्वयं दरभंगा-नरेश महाराजा रामेश्वर सिंह जी भी ‘हिंदू यूनिवर्सिटी सोसायटी’ के अध्यक्ष बनाए गये और निःसन्देह अनेक राजाओं के समान उनका भी वरदहस्त महामना मालवीय जी के सिर पर था।

इसमें कोई दो राय नहीं कि इस विराट् और महनीय कार्य में सैकड़ों मनीषियों का प्रत्यक्ष और परोक्ष योगदान था, परन्तु यहाँ उल्लेखनीय है कि उन सभी महानुभावों को मोती के समान एकसूत्र में पिरोए हुए, बीएचयू-योजना के केन्द्र में, काशी विश्वनाथ के समान एक विराट् व्यक्तित्व दिखाई देता है। वह व्यक्तित्व कौन है? कौन है वह व्यक्तित्व जिसने हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिये समूचे भारत को न केवल आन्दोलित किया अपितु करोड़ों रुपये चन्दा भी एकत्र किया?

निःसन्देह वह व्यक्तित्व हैं
भारत रत्न महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय

विश्वविद्यालय के निर्माण से सम्बद्ध सैकड़ों राजाओं, असंख्य ताल्लुकेदारों और ज़मीन्दारों में किसी ने स्वयं को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का संस्थापक घोषित नहीं किया। फिर यह उल्टी गंगा किस उद्देश्य से बहाई जा रही है?

कुमार गुंजन अग्रवाल, शोधकर्ता, महामना मालवीय मिशन

क्या 12 स्थानों पर होता था कुम्भ?

उपरोक्त लेख आदरणीय लेखक की निजी अभिव्यक्ति है एवं लेख में दिए गए विचारों, तथ्यों एवं उनके स्त्रोत की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु The Analyst उत्तरदायी नहीं है।

Previous articleहिन्दू संगठन व जातिवाद पर सावरकर और गोलवलकर
Next articleमनसुख मंडाविया की खराब अंग्रेजी और भारतीय हीनताबोध
दिनांक 26 नवम्बर, 1984 को ग्राम जरीडीह बाज़ार, ज़िला बोकारो, झारखण्ड में जन्मे गुंजन अग्रवाल प्राच्यविद्या, भारतीय इतिहास, संस्कृति, धर्म-दर्शन, भारतीय-वाङ्मय, हिंदी-साहित्य, आदि के क्षेत्र में एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। एतद्विषयक शोधपरक निबन्धों, ग्रन्थों में गहरी अभिरुचि रखनेवाले गुंजन अग्रवाल विगत लगभग दो दशक से स्वाध्याय एवं लेखन, सम्पादन और प्रकाशन के कार्य से सम्बद्ध हैं। इस क्षेत्र के देश के मूर्धन्य विद्वानों पर अपनी विद्वत्ता की अमिट छाप छोड़ी है। गुंजन अग्रवाल भारतीय इतिहास की भ्रांतियों पर विगत कई वर्षों से कार्य कर रहे हैं। विशेषकर पौराणिक कालगणना के आधार पर भारतीय इतिहास के तिथ्यांकन (क्रोनोलॉजी-निर्माण) में इन्होंने अद्भुत सफलता प्राप्त की है। वेदों का रचनाकाल, श्रीराम का काल-निर्धारण, श्रीराम की ऐतिहासिकता, रामकथा का विश्वव्यापी प्रसार, महाभारत-युद्ध की तिथि, श्रीकृष्ण का समय, भगवान् बुद्ध का समय, आद्य शंकराचार्य का काल-निर्धारण, भारतीय इतिहास का परम्परागत कालक्रम, भारतीय इतिहास-लेखन, इस्लाम-पूर्व अरब में हिन्दू-संस्कृति, यूरोपीयों द्वारा भारतीय कला और बौद्धिक सम्पदा की लूट, आदि अनेक विषयों में इनके लिखे शोध-पत्रों ने उल्लेखनीय ख्याति अर्जित की है। सन् 1998 से प्रकाशन कार्य से एवं 2004 में मात्र 20 वर्ष की अवस्था में लेखन-कार्य से जुड़े गुंजन अग्रवाल का साहित्यिक जीवन पटना से प्रकाशित ‘सनातन भारत’ से प्रारम्भ हुआ। ये ‘सनातन भारत’ (हिंदी-मासिक) में सम्पादक-मण्डल सदस्य; ‘आरोग्य संहिता’ (हिंदी-द्वैमासिक) में उप सम्पादक; ‘पिनाक’ (हिंदी-त्रैमासिक) में प्रबन्ध-सम्पादक; ‘पगडंडी’ (हिंदी-त्रैमासिक) में सम्पादक; ‘इतिहास दर्पण’ (अर्धवार्षिक शोध-पत्रिका) में सह-सम्पादक और पटना की सुप्रतिष्ठित ‘पटना-परिक्रमा’ (हिंदी-वार्षिक पटना बिजनेस डायरेक्टरी) में प्रधान सम्पादक रह चुके हैं। प्राच्यविद्या की सुप्रतिष्ठित हिंदी-मासिकी ‘दी कोर’ के 30 अंकों का सम्पादन किया है। सम्प्रति दिल्ली से प्रकाशित शोध-पत्रिका ‘सभ्यता-संवाद’ में कार्यकारी सम्पादक के पद पर कार्यरत हैं। गुंजन अग्रवाल अपने पिता श्री कृष्णमोहन प्रसाद अग्रवाल के द्वारा बाल्यकाल से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बनाए गये। प्रारम्भ से ही इन्हें साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ है। इन्होंने 2004-’05 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, पटना महानगर के कोषाध्यक्ष; 2006-’09 तक स्वदेशी जागरण मंच, पटना महानगर के सह-विचार मण्डल प्रमुख; 2011-’12 में भारतीय इतिहास संकलन समिति, दक्षिण बिहार के सह-सचिव तथा 2012 से 2016 तक अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, नयी दिल्ली में शोध-सहायक के रूप में कार्य किया। आप ‘बिहार-हिंदी-साहित्य-सम्मेलन’, पटना के संरक्षक-सदस्य और ‘अखिल भारतीय नवोदित साहित्यकार परिषद्’, काशी के सदस्य हैं। गुंजन अग्रवाल की अनेक पुस्तकें, शताधिक शोध-निबन्ध एवम् आलेख देश की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित व विद्वानों द्वारा प्रशंसित हुए हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं : ‘हिंदू इतिहास की स्मरणीय तिथियाँ’ (2006), ‘भगवान् बुद्ध और उनकी इतिहास-सम्मत तिथि’ (2009), ‘महाराजा हेमचन्द्र विक्रमादित्य : एक विस्मृत अग्रदूत’ (2014); उपर्युक्त पुस्तकें देश के ख्यातिलब्ध समीक्षकों द्वारा समीक्षित एवं प्रशंसित हुई हैं। 2008 में इनके द्वारा संपादित महामनीषी ‘डॉ. हरवंशलाल ओबराय रचनावली’ का भी प्रकाशन हुआ है। इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने साहित्य भारती प्रकाशन (पटना), वैदिक पब्लिशर्स (नयी दिल्ली) एवम् अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना (नयी दिल्ली) से प्रकाशित शताधिक पुस्तकों का अनाम सम्पादन किया है। गुंजन अग्रवाल ने अनेक प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवम् अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों, कार्यशालाओं, व्याख्यानमालाओं, सम्मेलनों, शिविरों, आदि में सहभागिता की है एवम् अनेक में शोध-पत्र वाचन किया है। अनेक शैक्षणिक आयोजनों में मुख्य अतिथि एवं मुख्य वक्ता के रूप में आमन्त्रित हुए हैं। वर्ष 2018 में इनको ‘प्रभाश्री ग्रामोदय सेवाश्रम’ द्वारा भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की संरक्षा में सतत संलग्नता के लिए ‘प्रभाश्री-सम्मान’ से अलंकृत किया गया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here