चातुर्मास्य में व्रत का विधि विधान व नियम

chaturmas vrat चातुर्मास्य चातुर्मास व्रत गंगाधर पाठक देवशयनी देवोत्थान

चातुर्मास्य-व्रतविधान

लेखक:- पण्डित गङ्गाधर पाठक ‘वेदाद्याचार्य’
मुख्याचार्य- श्रीरामजन्मभूमिशिलापूजन, अयोध्या

श्रीवृन्दावन धाम 

श्रीरामजन्मभूमि भूमिपूजन अयोध्या 5 अगस्त 2019 गंगाधर पाठक नरेन्द्र मोदी
प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि मन्दिर का शिलान्यास करवाते मुख्य पुरोहित आचार्य श्री गंगाधर पाठक

स्वस्थशरीर के साथ ही मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कारादि की परिशुद्धि के लिये शास्त्रों ने चातुर्मास्य व्रत का विधान किया है कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि यह व्रत संन्यासियों के लिये ही है । परन्तु शास्त्रसिद्धान्त के अनुसार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और संन्यासी – इन चारों आश्रमों, चारों वर्णों तथा सभी सम्प्रदायवादियों के द्वारा यथाधिकार इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये । यह व्रत सबके लिये नित्य यानी अवश्यकर्तव्य है । ऐसा नहीं करने पर शास्त्र ने दोष बताये हैं ।

चत्वार्येतानि नित्यानि चतुराश्रमवर्णिनाम् ।
नित्यान्येतानि विप्रेन्द्र व्रतान्याहुर्मनीषिणाम् ॥

महाभारत ने तो इतना तक कह दिया है कि जो इस चातुर्मास्य व्रत का अनुष्ठान नहीं करेगा उसका सम्पूर्ण वर्ष ही पापयुक्त हो जायगा । जैसे —

वार्षिकान् चतुरो मासान् वाहयेत्केनचिन्नरः ।
व्रतेन नो चेदाप्नोति किल्बिषं वत्सरोद्भवम् ||

वर्ष के चार मासों में इस व्रत का आचरण किया जाने के कारण इसे ‘चातुर्मास्य’ कहा जाता है । ये चारों मास- श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, और कार्त्तिक- वर्षाकाल के रूप में प्रसिद्ध हैं, अतः इन दो ऋतुओं के व्रत को ‘वर्षर्तुव्रत’ यानी ‘वर्षा ऋतु का व्रत’ भी कहा जाता है ।

यह व्रत आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी, द्वादशी या पूर्णिमा से प्रारम्भ किया जाता है, अथवा सौरमासानुसार कर्कसंक्रान्ति से भी इसके आरम्भ का विधान है । सुविधानुसार शास्त्रों ने इस व्रत के लिये अन्य पक्ष भी प्रस्तुत किये हैं, यथा- कर्कसंक्रान्ति से लेकर तुलासंक्रान्ति तक कभी भी इस व्रत को ग्रहण किया जा सकता है । यह विधान उनके लिये है जो पूरे चार मास तक व्रत में नहीं रहना चाहते । परन्तु इन चार मास में कभी भी व्रत प्रारम्भ किया जाय तो भी कार्त्तिकशुक्लपक्ष की उत्थान द्वादशी को ही इसका समापन करना चाहिये । कदाचित् कार्त्तिक में अधिकमास की प्रवृत्ति हो जाय तो इसे शुद्ध द्वितीय कार्त्तिकशुक्ला द्वादशी में समाप्त करना चाहिये ।

आषाढ़शुक्लद्वादश्यां पौर्णमास्यामथापि वा ।
चातुर्मास्यव्रतारम्भं कुर्यात् कर्कटसंक्रमे ॥
अभावे तु तुलार्केऽपि मन्त्रेण नियमं व्रती ॥
–वराहपुराण

अर्थात् पूरे चार मास का व्रत न करने की स्थिति में अन्तिम के एक माह का नियम तो अवश्य ही रख लेना चाहिये ।

निर्णयसिन्धु में भी इस व्रत को ग्रहण करने के चार प्रकार बताये गये हैं, जैसे- श्रावण से कार्त्तिक, भाद्रपद से कार्त्तिक, आश्विन से कार्त्तिक अथवा तुलासंक्रान्ति से कार्त्तिकशुक्ला द्वादशीपर्यन्त ।

चतुर्धा ग्राह्य वै चीर्ण चातुर्मास्यव्रतं नरः ।
कार्त्तिके शुक्लपक्षे तु द्वादश्यां तत्समापयेत् ॥

सम्प्रति अधिकतम सनातनधर्मावलम्बियों में इस चातुर्मास्यव्रत को दो मास- श्रावण और भाद्रपद में ही रखने की परम्परा बन गई है । यह पक्ष भी सही ही है ।

चातुर्मास्य के समय में कुछ वस्तुओं का त्याग अत्यन्त लाभप्रद बताया गया है, जैसे- इन चार मासों में गुड़ का त्याग कर देने से मधुर ध्वनि यानी स्वर अच्छा होता है । खाने अथवा शरीरमर्दन में तैल ‘विशेषत: तिल के तैल’ का परित्याग कर देने से सुन्दर अङ्ग या सुन्दर शरीर की प्राप्ति होती है, शरीर में कान्ति आती है ।

मधुस्वरो भवेन्नित्यं नरो गुडविवर्जनात् ।
तैलस्य वर्जनादेव सुन्दराङ्गः प्रजायते ॥
–कृत्यतत्त्व

उत्तरभारत में (विशेषरूप से मिथिलाक्षेत्र में) इस व्रत का आचरण देखा जाता है वहाँ मातायें तो परम्परावशात् ही इन नियमों का पालन करती हैं । प्रायः घरों में इस चातुर्मास्य के विधि-निषेधों का पालन सामान्येन अनिवार्य देखा जाता है । 

इस व्रत का आचरण करनेवाले उपवासपूर्वक निद्रामुद्रा से युक्त श्रीमन्नारायण भगवान् का ध्यान, स्तोत्र और सर्वोपचारपूजा आदि विधिवत् आराधना करते है । लौकिककार्यों को कम करके ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हैं । इस व्रत में व्रती को दृढ़ता से राग, द्वेष और मिथ्यासम्भाषणादि असत्कृत्यों का परित्याग कर देना चाहिये । व्रतदीक्षा के अनुसार ही व्रती की वेश भूषा और रहन-सहन का विधान है । व्रती को मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसामात्र का परित्याग कर देना चाहिये ।

चातुर्मास्य chaturmas vrat चातुर्मास व्रत गंगाधर पाठक देवशयनी देवोत्थान

शास्त्र ने जिस आहार का निषेध किया है, उसका परित्याग अनिवार्य रूप से करना चाहिये । यद्यपि कभी भी दूषित आहार-विहार का सेवन निषिद्ध है, तथापि इन चार मासों में तो किसी भी प्रकार के मद्य, मांसादि का प्रयोग नहीं ही करना चाहिये । इन चार मासों में ही वर्षा आदि के कारण अनेक प्रकार के दूषितकीटाणुओं की उत्पत्ति एवं उ सम्पर्क में आ जाने से विविधप्रकार के असाध्य घातकरोगों की सम्भावना बनी रहती है । श्रावणमास में सभी प्रकार के शाक, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध और कार्त्तिक में दाल का वर्जन करना चाहिये ।

श्रावणे वर्जयेच्छाकं दधि भाद्रपदे त्यजेत् ।
दुग्धमाश्वयुजे मासे कार्त्तिके द्विदलं त्यजेत् ॥
–पद्मपुराण

शाक और हविष्यान्नादि सम्बन्धी निर्णय को धर्मशास्त्रीय विद्वानों से ग्रहण करना चाहिये । दो दल में विभक्त होनेवाले सभी धान्य, बहुत से बीजवाले फल और वृन्ताक यानी हरे एवं सफेद लम्बे बैगन का परित्याग कर देना चाहिये । इन चार मासों में कूष्माण्ड, बेरफल, तिन्त्रिणी यानी चिञ्चाफल अर्थात् इमली, मूलक यानी मूली आदि, इक्षु यानी गन्ना और अम्लत्वगुणयुक्त आँवला आदि का त्याग कर देना चाहिये । इन चार मासों में उत्पन्न होनेवाले शाकों का परित्याग शरीर आदि के लिये लाभप्रद होता है इस समय हविष्यान्न भोजन की अत्यन्त प्रधानता है ।

द्विदलं बहुबीजं च वृन्ताकं च विवर्जयेत् ।
विशेषाद्द्बदरीन्धात्रों कूष्माण्डन्तिन्त्रिणीन्त्यजेत् ॥
तत्तत्कालोद्भवाः शाका वर्जनीया प्रयत्नतः ।
चतुष्वपीह मासेषु हविष्याशी न पापभाक् ॥

आयुर्वेदादिशास्त्रों में पत्र, पुष्प, फल, नाल, कन्द और संस्वेदज के भेद से छः प्रकार के शाक बताये गये हैं जो पचने में उत्तरोत्तर क्रमश: एक दूसरे से भारी होते हैं ।

पत्रं पुष्पं फलं नालं कन्दं संस्वेदजं तथा ।
शाकं षड्विधमुद्दिष्टं गुरु विद्याद्यथोत्तरम् ॥

इस समय के प्रायः सब प्रकार के शाक पचने में भारी होने के कारण शरीर, अस्थि, नेत्र, कान्ति, वर्ण, रक्त, शुक्र, प्रज्ञा, केश, स्मृति और सच्चिन्तन को कुण्ठित कर देते हैं ।

प्राय: शाकानि सर्वाणि विष्टम्भीनि गुरूणि च ।
रुक्षाणि बहुवर्चासि सृष्टविण्मारुतानि च ॥
शाकं भिनत्ति वपुरस्थि निहन्ति नेत्रं
वर्ण विनाशयति रक्तमथापि शुक्रम् ।
प्रज्ञाक्षयं च कुरुते पलितं च नूनं
हन्ति स्मृतिं गतिमिति प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥

इसी प्रकार से समयानुसार हविष्यान्नविधायक वचन भी शास्त्रों में उपलब्ध हैं । काम्यदृष्टि से गुड, तैल, कटुतैल, ताम्बूल, घृत, फल, शाकपत्र, दधि और क्षीर का त्याग करनेवाले क्रमशः मधुरध्वनि, सुन्दर शरीर, शत्रुनाश, सुखभोग, लावण्य, बुद्धिशक्ति, भाग्यवान् पुत्र, पक्वान्न का लाभ और अन्त में भगवद्धाम तक को प्राप्त करते हैं । 

चातुर्मास्य chaturmas vrat चातुर्मास व्रत गंगाधर पाठक देवशयनी देवोत्थान

इन मासों में श्रावण से कार्त्तिकपर्यन्त व्रत-त्योहार ही भरे पड़े हैं । इन व्रत-त्योहारों में विशिष्ट कर्मकाण्डीय उपचारों से भगवदाराधन के द्वारा इन विविधप्रकार से शरीर, अन्तःकरण और वातावरण आदि की शुद्धि करनी ही चाहिये इन चार मासों में वर्षा और शरत् के प्रभाव से अनेकविध भयानकरोगों का आक्रमण भी सहजता से हो जाया करता है । इनसे बचने के लिये ही इन चार मासों में शास्त्रों ने सबसे अधिक हितकर व्रत अनुष्ठानों का विधान बताया है । जिनका सम्पादन अनिवार्यरूपेण करना चाहिये ।

इन मासों में गोसेवा की दृढता का सङ्कल्प सबप्रकार से कल्याणकारी होता है । प्रकृति और पृथिवी आदि भी इन चार मासों में गोसेवार्थ विशेषरूप से नियुक्त होती हैं ये इन्हीं चार मासों में गोवंश की परिपुष्टता के लिये सर्वाधिक घास-चारे और वत्स तक की व्यवस्था करती । इस समय प्रकृति और पृथ्वी आदि की सेवा से परिपुष्ट होकर सभी भाग्यवानों को गोसेवा का दृढ़तम सङ्कल्प लेना चाहिये ।

इन नियमों के साथ शास्त्रों के अनुसार संन्यासियों के कुछ विशेष नियम भी होते हैं । संन्यासी आषाढ़पूर्णिमा को सङ्गवकाल में क्षौर कराके व्रत को आरम्भ करे । व्रत की समाप्ति तक मध्य में क्षौर न कराये । नदी, पर्वतादि का उल्लङ्घन न करे, एककोश से अधिक की यात्रा न करे आदि ।

आषाढ्यां पौर्णमास्यां तु वपनं कारयेद्यतिः ।
तेषु मासेषु केशादीनृतुसन्धौ न वापयेत् ॥
नदीश्च न तरेत्तेषु क्रोशादूर्ध्व न च व्रजेत् ॥

प्राणिमात्र के कल्याण की कामना से संन्यासी यह सङ्कल्प ले कि लोककल्याणार्थ ही भगवान् श्रीमन्नारायण शेषशय्या पर चारमास तक शयन करेंगे, तब तक मैं भी एक स्थान में ही निवास करूँगा । आप गृहस्थ महानुभावों को यदि यहाँ किसी प्रकार का क्लेश नहीं तो मैं यहीं निवास करना चाहता हूँ, आपलोग यथोक्त अपने कर्तव्य का पालन करें ।

इसके बाद उनके शिष्यवर्ग भी ऐसा सङ्कल्प ले कि हमलोग भी अपनी शक्ति के अनुसार आपकी सेवा करके कृतार्थ होना चाहते हैं, हम आपकी आज्ञा के पालन में सर्वथा तत्पर रहेंगे । ऐसा सङ्कल्प करके गुरु के पास ही निवास करे । उस समय वेदव्यास, सनकादि, श्रीगणेश, दुर्गा, सरस्वती, क्षेत्रपाल, व्यासशिष्य पैलु आदि और गुरु की आराधना करनी चाहिये ।

यदि चार मास तक व्रताचरण सम्भव न हो तो परम्परादृष्ट श्रावण और भाद्रपद के इन मासों में व्रतनियम करना ही चाहिये । चातुर्मास्य में व्रतियों को स्थानीय तात्कालिक व्यवस्था के अनुसार ब्राह्ममुहूर्त से लेकर रात्रि के शयनपर्यन्त की आध्यात्मिक दिनचर्या के अनुसार अपने समय का सदुपयोग करना चाहिये ।

व्रत की समाप्ति के पश्चात् वेदज्ञ ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक बुलाकर उनके लिये गौ, पृथ्वी, सुवर्ण, और वस्त्र आदि का दान देना चाहिये पुनः स्नान करके मृत्तिका आदि के शेष को जल में विसर्जित करे और पूर्व या उत्तरदिशा की ओर यात्रा करके अपने आश्रम या स्थान पर लौट आये ।

चातुर्मास्य chaturmas vrat चातुर्मास व्रत गंगाधर पाठक देवशयनी देवोत्थान

यदि व्रत के समय मौन धारण किये रहे तो और भी उत्तम है अथवा ध्यान, जप, तप, कीर्तन और वेदादिशास्त्रों का पारायण तो करना ही चाहिये ।

श्रौतग्रन्थों में चातुर्मास्य नामक यज्ञ का भी विधान है, जिसका सम्पादन फाल्गुन (या चैत्र ), आषाढ़ एवं कार्त्तिक की पूर्णिमा के दिनों में करना बताया है, जिन्हें क्रम से वैश्वदेव, वरुणप्रघास एवं साकमेध नाम से पुकारे जाते हैं (आपस्तम्ब श्रौतसूत्र ८ । ४ । १३ ।

चातुर्मास्य की विशेष जिज्ञासा हेतु गरुडपुराण ( १११२१), भविष्यपुराण ( १।६ ९ ), कृत्यतत्त्व ( पृ ४३५), कालविवेक ( पृ. ३३२), हेमादि (व्रतखण्ड भाग २, पृ. ८०६), तिथितत्त्व (पृ. १११), व्रतप्रकाश, व्रतार्क आदि द्रष्टव्य हैं ।

शास्त्रों में चातुर्मास्य-व्रत के विधि निषेधों के सभी पक्षों पर विस्तृत – चर्चा उपलब्ध है, विस्तार न करके यहाँ केवल संक्षेप में सारमात्र का ही दिग्दर्शन प्रस्तुत किया गया है । जिज्ञासु इससे लाभ प्राप्त करें ।

-: शुभमिति दिक् :

— पण्डित गङ्गाधर पाठक ‘वेदाद्याचार्य’ —
मुख्याचार्य:- श्रीरामजन्मभूमिशिलापूजन, अयोध्या

मार्गदर्शक:-  श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पञ्चाङ्गम्, जयपुर  

उपरोक्त लेख आदरणीय लेखक की निजी अभिव्यक्ति है एवं लेख में दिए गए विचारों, तथ्यों एवं उनके स्त्रोत की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु The Analyst उत्तरदायी नहीं है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here