रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी की कुछ चौपाइयों को लेकर आजकल जमीन से लेकर आसमान व भारत से लेकर विदेशों तक, अनपढ़ से लेकर बड़े बड़े बुद्धिजीवियों तक बहुत अधिक उहापोह, व दोषारोपण होता रहता है। इसका एकमात्र कारण है भारतीय शास्त्र पद्धति को न समझकर उपन्यास या कहानी अखबारी पद्धति से ही समझने की कोशिश करना। आजकल लोग ज्यादा से ज्यादा कोई हिन्दी-अंग्रेजी, या संस्कृत कोशः देख लेते हैं, और वहाँ लिखे गए कई अनुकूल या प्रतिकूल अर्थ को लेकर ही कोई एक अवधारणा पाल लेते हैं। अधिकतर लोगों के पास कोषों में उपलब्ध कई अर्थों में से किसी एक को चुनने का कोई स्पष्ट कारण या प्रक्रिया नहीं होती। फिर भी जिसे जो लगा, उस अर्थ को पकड़कर ग्रंथ/ग्रंथकार या परंपरा से स्वीकृत अर्थ की भर्त्सना करना शुरू कर देते हैं।
‘हरि’ शब्द के सिंह, वानर, तोता, सर्प आदि दस पन्द्रह, ‘आत्मा’ शब्द के बारह व ऐसे ही अनेक शब्दों के अलग अलग अनेक अर्थ होते हैं। अब इनमें से प्रसंग के अनुसार अर्थ क्या होगा/ होना चाहिए, इसके निर्णय के लिए उपक्रम, उपसंहार, अपूर्वता आदि लिङ्ग तथा विभिन्न शास्त्र व व्याकरण आदि अंग होते हैं। पर दुर्भाग्य से इन सब पर ध्यान न देकर केवल सुने सुनाए अर्थ ले ले कर गलत अर्थ प्रसार किया जाता है|
इसी तरह गोस्वामी तुलसीदास जी के ताड़न शब्द के उपर भी बिना जाने समझे बहुत विवाद होता रहता है कि तुलसीदास जी स्त्री विरोधी थे। उन्होंने स्त्रियों को पीटने की बात लिख दी आदि आदि। ऐसे में अपने बचाव के लिए कुछ श्रद्धालु जन ताड़न या ऐसे ही अनेक शब्दों को ही बदलने पर जोर देने लगते हैं। इसलिए इस विषय को ठीक से समझने के लिए रामचरितमानस की कुछ चौपाई देखते हैं:-
1.भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।।
होइ बिकल मन सकइ न रोकी। जिमि रवि मनि द्रव रविहिं विलोकी।
(अरण्यकाण्ड.16.3)
2. विधिहुँ न नारि हृदय गति जानी।
सकल कपट अघ अवगुन खानी।।
(अयोध्याकाण्ड. 161.2)
3.नारि स्वभाव सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।
साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।
(लंकाकाण्ड. 15.1-2)
ठीक यही बातें चाणक्य नीति 2.1 में भी कही गई हैं।
4. ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ।
सकल ताडना के अधिकारी।।
(सुंदरकाण्ड. 58.3)
इस प्रकार की विभिन्न चौपाइयाँ रामचरितमानस में अलग अलग प्रसंगों में आईं हैं। इन्हें पढकर एकबार को यह लगता है कि तुलसीदास जी पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त थे इसीलिए उन्होंने नारी के स्वभाव का बेहूदा वर्णन कर डाला।
पहली चौपाई की व्याख्या
1. में लिखी चौपाई कुछ लोगों को अश्लील और बल्कि सामान्य अनुभव के विपरीत प्रतीत होती है। इस कलिकाल में भी मूर्ख से मूर्ख ग्राम्य स्त्रियाँ भी अपने सुन्दर भ्राता, पिता, और पुत्र को देखकर कामातुर होकर विकल नहीं हो जातीं। ऐसी स्थिति में भला सतोगुण प्रधान सतयुगादि में स्त्री के लिए यह कहना कि सुन्दर भ्राता पुत्र पिता को देखकर नारी विकल हो जाती है” सर्वथा असत्य ही है।
समाधान –प्रथम 1. में लिखी “भ्राता पिता….विलोकी” यह चौपाई सूर्पणखा के प्रसंग की है। इसलिए प्रकरण के अनुरूप उनका यही अर्थ निकलता है कि — सूर्पणखा जैसी दूषित हृदय वाली स्त्रियों के लिए ही यह कहा गया है कि वे सुन्दर भ्राता पिता तथा पुत्र को भी देखकर विकल हो जातीं हैं, संसार की समस्त स्त्रियों के लिए नहीं कहा है। इसलिए तुलसीदास जी का कथन जरा भी गलत या द्वेषपूर्ण या संकीर्णता से ग्रस्त नहीं है। क्योंकि तुलसीदास जी ने स्वयं ही अन्य स्त्रियों का सम्मान करते हुए कहा है–
डगइ न सम्भु सरासन कैसे। कामी वचन सती मन जैसे।।
(बालकाण्ड 250.1)
शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता।
ऐसा कहने वाले तुलसीदास जी का भला यह कैसे कह सकते हैं कि वह सुन्दर भाई पुत्र पिता को देखकर विकल हो जाती है, मन को नियन्त्रित नहीं कर सकती ??
दूसरी चौपाई की व्याख्या
इसी तरह उपर दी गयी दूसरी चौपाई “विधिहुँ न नारि..” यह भरत जी ने अपनी माता कैकेई को ही कहा है, सभी स्त्रियों के लिए नहीं कहा है।
कैकेई का श्रीराम के प्रति कैसा स्नेह था, उन्हीं के शब्दों में देखें–
कौसल्या सम सब महतारी। रामहिं सहज सुभायँ पियारी।।
मो पर करहिं सनेह विसेषी। मैं करि प्रीति परीक्षा देखी।।
(अयोध्या.१४/३)
राम को सहज स्वभाव से सब माताएँ कौसल्या के समान ही प्यारी हैं। मुझ पर तो वे विशेष प्रेम करते हैं। मैंने उनकी प्रीति की परीक्षा करके देख ली है|
जौं विधि जनम देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पतोहू।।
प्रान ते अधिक राम प्रिय मोरे। तिन्हके तिलक छोभ कस तोरे।।
(अयोध्या.१४/४)
जो विधाता कृपा करके जन्म दें तो (यह भी दें कि) श्री रामचन्द्र पुत्र और सीता बहू हों। श्री राम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके तिलक से (उनके तिलक की बात सुनकर) तुझे क्षोभ कैसा?
कैकेई की श्रीराम के प्रति ऐसी अद्भुत धारणा होने पर भी उनके लिए वरदान माँगा–
तापस वेष विशेष उदासी। चौदह वरष राम वनवासी।
( अयोध्या.२८/२)
विशेष उदासी के साथ तापसी वेष में चौदह वर्ष का वनवास।
इसके कारण कौसल्या आदि माताओं, सीताजी, लक्ष्मण व सारी प्रजा को बहुत ही कष्ट हुआ। महाराज दशरथ ने तड़प तड़प कर प्राण ही त्याग दिया। देश अनाथ हो गया। इतना ही नहीं, बल्कि कैकेई स्वयं भी अनाथ (विधवा) हो गईं। फिर भी उन्हें जरा सी भी लाज नहीं आई।
तीसरी चौपाई की व्याख्या –
भरत के व्याकुल होने पर भी कैकेई अपनी करनी को बहुत मुदित मन से वर्णन करतीं हैं।
आदिहुँ ते सब आपन करनी
कुटिल कठोर मुदित मनबरनी
ऐसी नारी को लक्ष्य करके यह कहना कि–
बिधिहु न नारि हृदय गति जानी
सकल कपट अघ अवगुनखानी
यह सर्वथा उचित ही है।
ऐसे स्वभाव वाली नारी में तीसरी चौपाई में कथित साहस, झूठ आदि दोष भी होते ही हैं। देखें—
प्रिय जनों को महान् कष्ट देकर स्वयं विधवा होने का कार्य करना कितना बड़ा साहस है। राजा द्वारा वरदान प्राप्त करने के लिए कैकेयी ने अनृत (झूठ), चपलता, व माया, इन सभी का भरपूर प्रयोग भी किया है। “सौत की सेवा करनी पड़ेगी” मन्थरा के इस वचन से ऐसी भयभीत हुईं कि बिलकुल विवेक हीन हो गईं। किसी के भी समझाने पर भी नहीं समझ सकीं। जिससे दयाहीनता (अदाया) भी चरम पर पहुँच गई। नैसर्गिक सुकुमारी सीता जीे के पहनने के लिए भी वे वल्कल वस्त्र ले आईं|
चौथी चौपाई की व्याख्या –
गगन समीर अनल जल धरनी| इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी||
(सुंदर.५८/१) में समुद्र ने कही है।
यहाँ जड़ता का प्रसंग है। प्रसंगानुसार चेतन नारी आदि में जड़ता का अर्थ- अल्पबुद्धि/अनियन्त्रितबुद्धि होता है। उपभोग प्रधान पाश्चात्य देशों में भी स्त्री पुरुषों को शिक्षा का समान साधन व अवसर प्रदान करके अनेकों बार परीक्षण करके देखा गया है कि गणित विज्ञान आदि बुद्धि प्रधान विषयों में स्त्रियाँ पुरुषों से पीछे रह जातीं हैं। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्रायः स्त्रियाँ बुद्धि प्रधान नहीं बल्कि भावना प्रधान होंतीं हैं। इसका कारण यह है कि भाव प्रधान हुए बिना बच्चों का लालन पालन हो ही नहीं सकता। इस लिए भगवान् ने प्राकृत विधानुसार नारी को प्रायः भाव प्रधान ही बनाया है, बुद्धिप्रधान नहीं।
जो जड़ अर्थात् बुद्धि प्रधान नहीं हैं ऐसे पशु शूद्र नारी आदि का कल्याण ताडना के विना नहीं हो सकता। यहाँ ताड़ना का अर्थ –“नियन्त्रण के साधन ” जैसे आँख दिखाना, फटकारना, भय देखना, ही है। जब इनसे भी काम नहीं चले तो ही अति आवश्यक होने पर मारना पीटना होता है। वह भी हित बुद्धि से बाहरी कठोरता दिखाते हुए। मार पीट कर हाथ पाँव तोड़ देना इत्यादि कदापि नहीं।
(यहाँ कुछ लोग अप्रासंगिक अर्थ -‘तारना’ करते हैं। किन्तु यहाँ इस अर्थ का कोई औचित्य ही नहीं। क्योंकि यहाँ समुद्र निग्रह के प्रसंग में ताड़न नपुंसक लिङ्ग (ताड़ना स्त्रीलिंग) का शिक्षण निग्रह अर्थ ही उचित है।
गरुड़ पुराण चाणक्य नीति आदि में भी ताड़न शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि बुद्धि प्रधान व संयत नारी आदि तो किसी भी प्रकार की ताड़ना के अधिकारी नहीं हैं, बल्कि सम्मान व प्रेम के ही अधिकारी होते हैं। ढोल गँवार शूद्र पशु नारी का नाम स्पष्ट लेकर के आगे “सकल” इस पद का प्रयोग यह बताता है कि इनके अतिरिक्त बालक, वृद्ध, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि सकल प्राणी जो जड़ अर्थात् बुद्धिहीन अनियन्त्रित हैं वे सभी ताड़ना के अधिकारी हैं।
सकल शब्द से पशु आदि को ही लेने पर समुद्र का ग्रहण ही नहीं हो पायेगा। यदि समुद्र का ही ग्रहण नहीं होगा तो जो ताड़ना समुद्र को दी गई है वह अनुचित ही सिद्ध होगी। तथा प्रकरण का विरोध होगा।
यहाँ शंका/ आक्षेपकर्ता का ध्यान केवल नारी व शूद्र शब्द पर विशेष केन्द्रित होने, तथा ताड़न का अर्थ मारना पीटना लेने से सारी दिक्कत हुई हैं। वस्तुतः प्रसंगानुसार ऐसा ही अर्थ निकलता है कि जो जड़ अर्थात् अल्पबुद्धि वाले हैं, वे सभी प्राणी ताड़ना अर्थात् नियंत्रण साधन के अधिकारी हैं। ऐसा अर्थ समझ लेने पर किसी शंका या आक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।
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