महान् कर्मयोगी डॉ. हरवंशलाल ओबराय का जन्म दिनांक 21 अक्टूबर, 1925 को रावलपिण्डी के एक पंजाबी खत्री दम्पति श्री धर्मचन्द्र एवं रामकौर ओबराय के घर में हुआ था। सन् 1947 में देश-विभाजन के पश्चात् उनको सपरिवार भारत आना पड़ा। हरवंशलाल ओबराय जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता थे। बाल्यकाल से ही अत्यन्त तेजस्वी श्री हरवंशलाल ने अल्पायु में ही दर्शनशास्त्र, भारतीय इतिहास एवं हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर तथा सन् 1948 में जालन्धर से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उसी वर्ष उन्हें गाँधी-हत्याकाण्ड में दोषी ठहराकर दिल्ली जेल में बन्द कर दिया गया, जहाँ से कुछ दिनों पश्चात् निरपराध सिद्ध होकर मुक्त हुए। सन् 1948 से 1963 तक दिल्ली तथा उन्होंने पंजाब एवं हरियाणा विश्वविद्यालयों के विभिन्न महाविद्यालयों में दर्शनशास्त्र का अध्यापन किया। इससे पूर्व सन् 1960 और 61 में वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के दो बार राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। इस दौरान उनका स्वावलम्बी अध्ययन भी जारी रहा तथा वे स्वयं को प्राच्यविद्या के एक अधिकारी विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी सफल रहे। वह अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, पंजाब के अध्यक्ष, भारतीय इतिहास संकलन समिति के पूर्वांचल-प्रमुख तथा विश्व हिंदू परिषद्, राँची के संस्थापक थे। ‘विश्व के विभिन्न मतावलम्बियों पर हिंदू संस्कृति का प्रभाव व प्रसार’ उनके अध्ययन के मुख्य विषय था।
डॉ. हरवंशलाल ओबराय की प्रतिभा व मौलिक अन्वेषण-कार्य से प्रभावित होकर सन् 1963 में यूनेस्को ने उनको यूरोप, अमेरिका, कनाडा और एशियाई देशों के विश्वविद्यालयों में ‘हिंदू संस्कृति एवं दर्शन’ विषय पर व्याख्यानमाला प्रस्तुत करने के लिए आमन्त्रित किया। इस व्याख्यानमाला के अंतर्गत डॉ. ओबराय ने 126 देशों की यात्राएँ कीं और वहाँ के विश्वविद्यालयों में हिंदू-संस्कृति पर सहस्राधिक सारगर्भित व्याख्यान दिये। इस दृष्टि से डॉ. हरवंशलाल ओबराय बीसवीं शती के विवेकानन्द थे। इस यात्रा-शृंखला में ओबरायजी ने न केवल व्याख्यान दिये अपितु उन देशों में हिंदू राजा-महाराजा, साधु-संन्यासियों द्वारा किए गए धर्म-प्रचार के अवशेषों का भी अध्ययन करने के साथ वहाँ से पुरातात्त्विक महत्त्व के चित्रों, मूर्तियों और अभिलेखों का भी संग्रह किया। उपलब्ध जानकारी के अनुसार विदेशों में डॉ. हरवंशलाल ओबराय का प्रथम भाषण मिशिगन विश्वविद्यालय (सं.रा. अमेरिका) के सभागार में 11 सितम्बर, 1963 को प्रथम विश्व धर्म संसद् (शिकागो, 1893 ई.) की 70वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में आयोजित सम्मेलन में हुआ। उस सम्मेलन में इस ‘द्वितीय विवेकानन्द’ को सुनने के लिए श्री चन्द्रकांत बिड़ला उपस्थित थे। वह डॉ. ओबराय के व्याख्यान से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने प्रख्यात समाजसेवी बाबू जुगलकिशोर बिड़ला (1883-1967) को सहमत कर बी.आई.टी. के अंतर्गत दर्शन एवं मानविकीशास्त्र के स्वतंत्र संकायों की स्थापना कर डॉ. ओबराय को अध्यक्ष बनाया। यह डॉ. हरवंशलाल ओबराय का नहीं, उनके प्रखर पाण्डित्य का सम्मान था।
सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक और प्राच्यविद्, भारतीय जनसंघ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा ‘सरस्वती विहार’ (इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ़ इण्डियन कल्चर, हौज़ख़ास, दिल्ली) के संस्थापक डॉ. आचार्य रघुवीर (1902-1963), डॉ. हरवंशलाल ओबराय के प्रेरणास्रोत थे। सन् 1963 में डॉ. ओबराय के विदेश-प्रवास के समय भारत में आचार्य रघुवीर का एक मोटर-दुर्घटना में स्वर्गवास हो गया था। उनके आकस्मिक निधन से डॉ. ओबराय के हृदय को बड़ा आघात लगा था और उन्होंने डॉ. रघुवीर के कार्य को आगे बढ़ाने का निश्चय करके सन् 1965 में राँची के अपर बाज़ार में ‘संस्कृति-विहार’ (एकेडमी ऑफ़ इण्डियन कल्चर) नामक एक संस्था की नींव डाली। बाबू जुगलकिशोर बिड़ला इस संस्था के संरक्षक थे। इस संस्था के अन्तर्गत डॉ. ओबराय ने बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश एवम् अन्य निकटवर्ती राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों का तूफ़ानी दौराकर ईसाई पादरियों के षड्यन्त्र का मुँहतोड़ उत्तर दिया और असंख्य वनवासी बन्धुओं की सनातनधर्म में वापसी करायी। सन् 1975 से 1977 के आपातकाल के दौरान ओबरायजी क्रमशः राँची, गया और हज़ारीबाग़ सेण्ट्रल जेल में रखे गये। हज़ारीबाग़ सेण्ट्रल जेल में मेरे पूजनीय पिता श्री कृष्णमोहन प्रसाद अग्रवाल, ओबरायजी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। ओबरायजी वार्ड नं. 6 में रखे गए थे, लेकिन पिताजी ने जेल के चीफ वार्डन से निवेदन करके ओबरायजी को अपने वार्ड (स्पेशल वार्ड नं. 1) में स्थानान्तरित करवा लिया। इस वार्ड में नित्य शाखा के अतिरिक्त समय-समय पर अनेक महापुरुषों की जयन्तियाँ मनाई जाती थीं, जिसमें मुख्य वक्ता श्री ओबराय जी ही होते थे। एक बार जेल में भगत सिंह की जयन्ती के दौरान ओबरायजी ने कुछ प्राकृतिक सामग्री से रंग तैयार करके भगत सिंह का चित्र बनाया, जिसे पिताजी जेल से छूटने के पश्चात् अपने घर ले आये। वह पेण्टिंग वर्षों तक उनके शयनकक्ष में टंगी रही और बाद में उसे सरस्वती शिशु मन्दिर को भेंट कर दिया गया।

हज़ारीबाग़ सेण्ट्रल जेल में पिताजी को लगभग 10 महीने ओबरायजी का सान्निध्य मिला, जिनकी मधुर स्मृतियाँ आज भी पिताजी के स्मृति-पटल पर अंकित हैं। 1977 में जेल से छूटने के पश्चात् पिताजी ने 6 अवसरों (2 बार मकर संक्रान्ति के उपलक्ष्य में, 1 बार वर्ष प्रतिपदा के उपलक्ष्य में, 1 बार स्वामी विवेकानन्द-जयन्ती के उपलक्ष्य में, 1 बार असम-समस्या पर और 1 बार भगवद्गीता-जयन्ती के उपलक्ष्य में) ओबराय जी को अपने गाँव जरीडीह बाज़ार में आमन्त्रित किया और उनका व्याख्यान करवाया। ओबराय जी के कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए पिताजी और उनके अनन्य मित्र श्री Shiv Hari Banka जी पूरी ताक़त लगा देते थे। ओबरायजी मेरे पैतृक निवास में ही ठहरते थे।
सितम्बर, 1983 ई. में इन्दौर में आयोजित शिक्षा-सम्मेलन में ‘वेद और विज्ञान’ विषय पर आयोजित व्याख्यानमाला में भाषण देने के लिए जब ओबराय जी राँची से इन्दौर जा रहे थे, उसी यात्रा के दौरान 19 सितम्बर को रायपुर के पास एक आततायी ने चलती रेल से धक्का देकर उनकी हत्या कर दी। 20 सितम्बर, 1983 को राँची में हरवंशलाल ओबराय का पार्थिव शरीर संसार से विदा हुआ, पर यशःकाया अजर-अमर बन गयी।
— कुमार गुंजन अग्रवाल, शोधकर्ता, महामना मालवीय मिशन
साहित्य क्षेत्र में गुण्डागर्दी की कभी न भूलने वाली दास्तान..
बी.एच.यू. के संस्थापक महामना मालवीय के विरुद्ध कुप्रचार
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