“जहाँ तक ईसाइयों का सम्बन्ध है, ऊपरी तौर से देखने वाले को तो वे नितान्त निरूपद्रवी ही नहीं वरन् मानवता के लिए प्रेम एवं सहानुभूति के मूर्तिमान स्वरूप प्रतीत होते है। उनकी वक्तृतायें ‘सेवा’ एवं ‘मानवोद्धार’ जैसे शब्दों से परिपूर्ण रहती है। और उनसे ऐसा प्रतीत होता है मानो उस सर्वशक्तिमान् ने उन्हें मानवता के उत्थान के लिए विशेष रूप से नियुक्त किया है। सब स्थानों पर वे स्कूल, कॉलेज, अस्पताल तथा अनाथालाय चलाते हैं। हमारे देश के लोग जो सीदे-सादे और भोले हैं, इन बातों पर विश्वास करने लगते हैं।
किन्तु सब गतिविधियों में करोड़ों रूपये उड़ेलने में ईसाईयों का वास्तविक और अन्तरस्थ उद्देश्य क्या है?
हमारे स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद एक बार असम गये थे। उन्होंने वे स्कूल और अस्पताल देखे, जिन्हें ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन पहाड़ी प्रदेशों में स्थापित कर रखा था। और उन सब कार्यों के प्रति अपना सन्तोष व्यक्त किया। किन्तु अन्त में यह भी उपदेश दिया कि, “निःसन्देह तुमने बहुत अच्छा काम किया है परन्तु इन चीजों को धर्मान्तरण के उद्देश्य के लिए उपयोग में मत लाना।” किन्तु उनके बाद जो धर्म प्रचारक बोला, उसने सीधे शब्दों में कह दिया कि “यदि हम केवल मानवता के प्रचार से ही यह करने के लिए प्रोत्साहित हुए होते तो यहाँ इतनी दूर क्यों आते? इतना धन हम लोग क्यों व्यय करते? हम तो यहाँ एक ही निमित्त से आए हैं कि अपने प्रभु ईसा के अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करें।”
ईसाई इस विषय में अत्यन्त स्पष्ट हैं। वे मानते हैं कि इस लक्ष्य के लिए प्रत्येक युक्ति, वह कितनी ही अनुचित क्यों न हो, उचित है भाँति-भॉति की रहस्यपूर्ण एवं क्षुद्र युक्तियाँ जिन्हें वे धर्मान्तरण के लिए प्रयोग में लाते है, सभी को बहुत अच्छी प्रकार से विदित है। अनेक प्रमुख ईसाई धर्म प्रचारक इस बात को असंदिग्ध रूप से प्रायः घोषित कर चुके हैं कि उनका एक ही लक्ष्य है कि इस देश को ईसा के साम्राज्य का एक प्रान्त बनावें। मद्रास के ‘वेदान्त केसरी’ की सूचना के अनुसार मदुरई के आर्क बिशप ने कहा है कि उनका मुख्य उद्देश्य है सम्पूर्ण भारत पर ईसा के झण्डे को फहराना।
इस सबका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि देश की सम्पूर्ण जनता ईसाई धर्म में धर्मान्तरित हो जानी चाहिए, अर्थात उनका वंश ईसाई धर्म के विश्वसंघ में विलीन हो जाना चाहिए।”
लोकमान्य तिलक ने ईसा के महान शिष्य सन्त पॉल को अपने ‘गीता रहस्य’ में उद्धृत किया है। वह भी ईश्वर से कहता है “यदि मैं असत्य भाषण द्वारा तुम्हारी (ईश्वर की) महिमा की वृद्धि करता हूँ तो वह पाप कैसे हो सकता है।” इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उनके इस वक्तव्य का वर्तमान ईसाई धर्म प्रचारकों ने अपने कुचक्रों को आगे बढ़ाने में पूर्ण उपयोग किया है। यह सच ही कहा गया है कि दुनियाँ में सच्चा ईसाई केवल एक ही हुआ और क्रूस पर उसकी मृत्यु हुई।
उनकी गतिविधियाँ केवल अधार्मिक ही नहीं, राष्ट्र विरोधी भी हैं। एक बार मैंने एक ईसाई धर्म प्रचारक से प्रश्न किया कि वे हमारे पवित्र ग्रन्थों और देवी-देवताओं की निन्दा क्यों करते हैं? उसने स्पष्ट उत्तर दिया- “हमारा लक्ष्य है कि हिन्दू के हृदय से उसके धर्म के प्रति विश्वास को झटक कर बाहर कर दिया जाय। जब उसका यह विश्वास ध्वस्त हो जायेगा तो उसकी राष्ट्रत्व भी नष्ट कर दिया जायगा। उसके मस्तिष्क में एक रिक्तता उत्पन्न हो जायेगी। तब हमारे लिए उस रिक्तता को ईसाइयत से भरना सरल हो जायेगा।”
इस प्रकार की भूमिका है हमारे देश में निवास करने वाले ईसाई सज्जनों की। वे यहाँ हमारे जीवन के धार्मिक एवं सामाजिक तन्तुओं को ही नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं वरन् विविध क्षेत्रों में और यदि सम्भव हो तो सम्पूर्ण देश में राजनीतिज्ञ सत्ता भी स्थापित करना चाहते है। वास्तव में जहाँ कही भी उन्होंने कदम रखा है, उनकी यही भूमिका रही है। और यह सब उन्होंने जीसस क्राइस्ट के दैवी पंखों की छाया में मानव के बीच शान्ति एवं भ्रातृत्व लाने के आकर्षक परिधान में किया है जीसस ने अपने अनुयायियों से कहा था, अपना सब कुछ गरीब, अज्ञानी तथा दलित को दे डालने के लिए, किन्तु उनके अनुयायियों ने व्यावहारिक रूप में क्या किया? वे जहाँ भी गए ‘रक्त देने वाले’ सिद्ध न होकर ‘रक्त चूसने वाले’ ही सिद्ध हुए। जहाँ इन तथाकथित क्राइस्ट के अनुयायियों ने अपने उपनिवेश बनाये हैं, उन सभी देशों की क्या गति हुई है?
– विचार नवनीत, श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (श्रीगुरुजी)
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