“हमारे देश में जनतंत्र की गम्भीर असफलताओं में कम्युनिज्म की बढ़ती हुई विभीषिका है, जो जनतान्त्रिक विधान की मानी हुई शत्रु है। जनता के समक्ष की गई अपनी आर्थिक अपील में कम्युनिस्टों से कही पिछड़ न जायें, इस प्रयास से हमारे नेतागण कम्युनिस्टों की ही भाषा तथा कार्यक्रमों को स्वयं भी अपनाकर कम्युनिज्म को और भी सम्माननीय ही बना रहें है। यदि नेतागण यह समझते हैं कि इस प्रकार के चातुर्य से वे कम्युनिस्टों के पाल की हवा खींच लेंगे, तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल है। वे यह अनुभव करते हैं कि आर्थिक विकास ही कम्युनिज्म से रक्षा का एकमेव उपाय है।
‘उच्चतर जीवनस्तर’ के आश्वासन की जनता के कानों में हो रही सतत घोषणा, इस प्रकार ऐसे समय में उनकी अपेक्षाएँ बढ़ाना जब वे सम्भवतः सन्तुष्ट नहीं की जा सकतीं, विफलता के भाव की वृद्धि करना एवं सामान्य जनता के लिए असन्तोष और अराजकता के मार्ग को प्रशस्त करना है। हमें देशभक्ति, चरित्र एवं ज्ञानी जैसी उच्चतर भावनाओं के लिए आह्वान कहीं भी सुनने को नहीं मिलता, और न कहीं सास्कृतिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास पर ही बल दिया जाता है। इसी प्रकार के दुर्बल एवं विफल मस्तिष्कों में ही कम्युनिज्म के बीज जड़ पकड़ते हैं। कम्युनिज्म के बढ़ने का यही सबसे बडा मनोवैज्ञानिक तत्व रहा है।
मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रहता उसकी कोई निष्ठाएं. भी होनी चाहिए, जिनके लिए वह जीवित रहे और मरे। इसके बिना जीवन दिशा एवं अर्थ से विहीन हो जाता है। अतः हमारी प्राचीन जीवनदात्री निष्ठा को उन्मूलित करने वाला किसी भी दिशा से किया गया प्रयास हमारे राष्ट्र जीवन पर महान संकट को निमंत्रण है क्योंकि इसी विश्वास ने हमारे अस्तित्व को बनाये रखा और मानव संस्कृति के श्रेष्ठतम पुष्प उत्पन्न किए हैं। यथार्थ एवं भावात्मक निष्ठा पोषण ही जनता को कम्युनिज्म की हीन विचारधारा के आकर्षण से ऊपर उठा सकता है। फिर कुछ और भी लोग हैं जो समझते हैं कि जब तक आर्थिक असमानता बनी हुई है, कम्युनिज्म की वृद्धि अनिवार्य है किन्तु वास्तविकता यह है कि आर्थिक असमानता पारिस्परिक घृणा का सही कारण नहीं है, जिस पर कम्युनिस्ट पनपा करते है। श्रम की महत्ता का विचार हमारे समाज के मन ने भली प्रकार ग्रहण नहीं किया है। उदाहरण के लिये एक रिक्शावाला जो कि प्रतिदिन तीन चार रूपये कमाता है ‘ए’ ‘ओ’ कहकर पुकारा जाता है और क्लर्क जो साठ रूपये मासिक वेतन पाता है। ‘बाबूजी’ कहा जाता है। यही दृष्टिकोण की असमानता, जो हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में फैली हुई है, घृणा को उत्पन्न करती है।
हमारे देश में एक अन्य दिशा से कम्युनिज्म का संकट वास्तविक हो गया है और यह है हमारे शासन की वर्तमान नीति के द्वारा जिसने समाजवाद को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया है, जिसमें कम्युनिज्म के सभी तत्व है, केवल उन्हें प्राप्त करने के साधनों का ही अन्तर है।
चीन और रूस के समाज में तथा हमारे समाज में एक अन्तर है। सम्भवतः रूस और चीन के लोग जागृत तथा क्रियाशील थे इसलिये उन्हें गोली से दबाया गया। यहाँ हमारे लोग नम्र वीरपूजक है। इस प्रकार के विनीत लोगों के लिए गोली की क्या आवश्यकता? क्योंकि मतपत्र पेटिका पर्याप्त है। यदि नेता कहता है- “समाजवाद के लिए मतदान करो” लोग समाजवाद के लिए मतदान करेंगे। यदि कल उन्हें पता लगेगा कि समाजवाद के पक्ष में मतदान करने से उनकी स्वाधीनता चली गई तथा व्यक्ति के रूप में वे एक यन्त्र के निर्जीव अंग मात्र रह गये हैं, तो वे इसे भाग्य का विधान मानकर उसे स्वीकार कर लेंगे।
अन्ततः जैसा कि हम देख चुके हैं समाजवाद (वैसा ही जैसा कि कम्युनिज्म अपने मूल रूप में है, क्योंकि रूस भी अपने को समाजवादी राज्य ही कहता है) वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त में सराबोर एक प्रतिक्रिया के रूप में पैदा हुआ था और रूस को भी लाभान्वित करने में असफल हुआ। सिद्धान्त के रूप में बहुत पूर्व इसका विस्फोट हो चुका था और अब व्यवहार में विस्फोट हो चुका है। आजकल हमारे नेता समाजवाद के घातक दोष अर्थात व्यक्ति को एक जीवनमान सत्ता के रूप में मिटाने के दोष पर- ‘जनतांत्रिक समाजवाद’ ‘समाजवादी जनतंत्र’ आदि के समान घोषों को गढ़कर परदा डालने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव में जनतंत्र और समाजवाद की दोनों कल्पनाएं परस्पर विरोधी है। समाजवाद जनतंत्रात्मक नहीं हो सकता और जनतंत्र समाजवादी नहीं हो सकता। जैसा कि हम विचार कर चुके हैं व्यक्ति स्वातंत्र्य जनतंत्र का प्रथम विश्वास है, जबकि यह समाजवाद का पहला शिकार है। जनतंत्र में व्यक्ति के गौरव को उच्च स्थान दिया जाता है जबकि समाजवाद में वह केवल पहिये का एक दांत है, उस भीषण यंत्र का जिसे हम राज्य कहते हैं, केवल एक निर्जीव पेंच। इसलिये हमें अपने जीवन-पथ का विकास अपने प्राचीन ऋषियों द्वारा आविष्कृत तर्क, अनुभव एवं इतिहास की कसौटी पर कसे हुए सत्य के आधार पर ही करना चाहिये।”
– विचार नवनीत, श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (श्रीगुरुजी)
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