क्या हिन्दू और मुसलमान का डीएनए सेम है?

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pre-Islamic ancestry हिन्दू मुसलमान डीएनए hindu muslim dna iqbal

डीएनए इलाहाबाद में जन्मी ‘नासिरा शर्मा’ का लिखा उपन्यास “दूसरी जन्नत” पढ़ते हुये अचानक मुझे ‘अल्लामा इक़बाल’ याद आ गये जो अपने ‘जबाबे-शिकवा’ में बेचैनी से गम में डूबकर अपने हम-उम्मतियों से कहतें हैं — 

“वज़ह में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हनूद/ ये मुसलमां हैं जिन्हें देख के शर्मायें यहूद”।

‘तमद्दुन’ कहतें हैं तहज़ीब को..कल्चर को जिससे आजतक भारत का मुसलमान मजहब तब्दील करने के बावजूद डीएनए से बंधा हुआ है।

नासिरा की कहानी के एक पात्र डॉक्टर ज़फर अब्बास के बेटे का निकाह है और लेखिका ने निकाह-पूर्व की तैयारियों का नक्शा खींचते हुये लिखा है-

“सुहाग गीत के साथ दुल्हन की बरी में जाने वाले इक्यावन जोड़ों में टाँके डाल उन्हें ऊपर से सजाया जा रहा था. अपने खानदान की पुरानी रीत के मुताबिक आम की पत्तियों से वह जगह सजा दी गई थी जहाँ शहाब और रुकसाना को बैठना था और वो सारा हिस्सा गोबर से लीप दिया गया था”।

इस नक़्शे को पढ़कर कहीं से आपको ये लगता है कि ये 51 की शुभ संख्या में शगुन की साड़ी भेजने, आम के पत्तों से सजावट और गोबर से दूल्हे-दुल्हन के बैठने की जगह को लीपने की बातें आपको किसी ‘ज़फर इकबाल’ के घर का मंजर दिखाता है? क्या ये चीजें ‘अरबी रवायत’ का हिस्सा है या फिर फिर हिन्दू संस्कार है जिसे डॉक्टर ज़फर इकबाल का परिवार मजहब की तबदीली के बाबजूद नहीं छोड़ पाया है?

डॉक्टर ज़फर इक़बाल के घर में इस हिन्दू मंजर को देखकर ‘सबीहा’ को ताअज्जुब होता है तो पूछ बैठती है कि ये क्या है तो जबाब में शहला बेगम उससे कहती है- “दरअसल हमारा खानदान खेतिहर रहा है। जमीन और जानवर से वास्ता पुराना था. अब तो ऐसा कुछ रहा नहीं मगर रस्में तो रोज नहीं बदलती न। अब ज़माना बदल चुका है तो भी कहीं न कहीं हमारा सिलसिला बना हुआ है अक्सर लोग परेशान हो जातें हैं लेकिन हम यह रस्में न करें तो हमारे दिलों में शक पड़ जाता है”।

डीएनए शहला बेगम का जबाब दरअसल उस संघर्ष का परिणाम है जो अनवरत उसके मस्तिष्क में अरबी तहज़ीब और हिन्दू संस्कारों” के बीच चलता रहता है. उसे समझ में नहीं आता है कि अपने हिन्दू संस्कारों को कितना छोड़ना है और अरबी तहज़ीब से कितना बंधना है. “गाय का मांस हलाल है” जैसे फतवों के बीच उसी गाय के गोबर से भावी वर-वधू के बैठने के स्थान को लीपना, खजूर के कठोर और शुष्क पेड़ के “मोमीन” होने के हदीसों से बाहर निकल कर हिन्दू धर्म में पवित्र माने गये आम्र-पत्रों से घर-आँगन सजाने का द्वन्द और 72 की संख्या को छोड़कर 51 की शुभसंख्या का चयन ही भारतीय उपमहाद्वीप के मतांतरितों का सच है जिसे शहला बेगम केवल ये कहकर नहीं झुठला सकती कि “गाय के गोबर से मुहब्बत केवल इस वजह से बनी हुई है कि दरअसल हमारा खानदान खेतिहर रहा है और जमीन और जानवर से वास्ता पुराना था”। 

आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों शहला को ये सच स्वीकार करना ही होगा कि मजहब की तबदीली से हमारा मूल नहीं बदला है और अपने हिन्दू संस्कारों को हम आजतक नहीं छोड़ पाये हैं”। डीएनए

डीएनए अगर ये सब इतना आसान होता तो ‘राही मासूम रज़ा’ ये न लिखते कि …..लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है…. ये सब इतना आसान नहीं है….रक्त की पुकार अतीत में काफी पीछे ले जाकर वहां से आपको खींच के ले आती है. एक पाकिस्तानी शायर हुये हैं शायर ‘अब्दुल अज़ीज़ साहब’। हुज़ूर की शान में ‘नाअत’ लिखने गये तो देखिये क्या लिख बैठे :-

// है हके-सिरूह शांति ॐ तत्सत, अजब दिलकुशा बांसुरी की सदा है//

(हके-सिरूह-सत्य की ईश्वरीय घोषणा) कृष्ण भगवान आज भी छूटे नहीं है उनसे.

डीएनए उनकी ही तरह एक मुस्तफ़ा ज़ैदी थे। दिलो-दिमाग मजहब और धर्म के बीच के द्वन्द से आजीवन जूझता रहा. भारत का विभाजन हुआ तो हिन्दू मन हावी था इसलिये पाकिस्तान नहीं गये. यहीं रहे पर फिर एक दिन मजहबी उन्माद ने जोर मारा और काफिरों का मुल्क भारत उन्हें रास नहीं आया, क्योंकि यहाँ की हर चीज़ उन्हें हिन्दू लगती थी, लिहाजा वो विभाजन के दस साल बाद पाकिस्तान हिजरत कर गये। जैदी काफी पढ़े-लिखे और काबिल बुद्धिजीवी थे ही ऊपर से ‘काफिर भारत’ को लात मारकर आये थे, सो उस वक़्त के पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उन्हें सर-आँखों पर बिठा लिया. जैदी साहब पुराने शायर थे, हिजरत करके मजहबी तृप्ति तो मिल गई पर सांस्कृतिक खालीपन कचोटने लगा। लगा कि कुछ छूट रहा है. सबसे पहले उन्हें अपना शहर इलाहाबाद याद आया तो अपना तखल्लुस ‘तेग इलाहाबादी’ रख लिया तो लगा कि शायद खालीपन कुछ भर गया है पर अब भी काफी कुछ है जो भरा नहीं है; फिर जब शायरी करने गये तो देखिये सांस्कृतिक खालीपन और उनके परिवर्तन के बाबजूद डी०एन०ए० में घुले हिन्दू संस्कारों ने उनसे क्या रचना करवाई. ज़ैदी लिखतें हैं –

// लंबी लंबी पलकें जिनमें तलवारों की काट/ नीली-नीली आँखें जैसे जमुना जी का घाट//

काफिर भारत को लात मारकर आने वाले और उसकी हर चीज़ हिन्दू होने से चिढ़ने वाले जैदी साहब के लिए अब यमुना सिर्फ यमुना नहीं जमुना जी हो गई थी।

अपने अतीत के सच को पहचानिये…दोहरी जिंदगी जीना और द्वन्द में जीना बड़ा दुख:दायी होता है. इस द्वन्द और दोहरेपन से बाहर आइये…..दुनिया बहुत खूबसूरत लगेगी क्योंकि हमारा डीएनए तो एक ही है।

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उपरोक्त लेख आदरणीय लेखक की निजी अभिव्यक्ति है एवं लेख में दिए गए विचारों, तथ्यों एवं उनके स्त्रोत की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु The Analyst उत्तरदायी नहीं है।

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