अभी हाल ही में मैंने राज थापर की पुस्तक All these years पढ़ी। राज थापर (1926- 1987) के निधन के बाद उनके डायरी से संकलित करके यह संस्मरणात्मक पुस्तक 1991 में प्रकाशित की गयी। पुस्तक में कुल 24 चैप्टर हैं, और आखिरी चैप्टर अधूरा है, जो राज थापर की असमय कैंसर से मृत्यु हो जाने के कारण पूरा न हो पाया। राज और उनके पति रोमेश थापर कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च स्तर पर कई वर्ष तक सक्रिय रहे। शुरू में मुम्बई में रहकर वामपंथी पत्रिका Crossroads निकाले, लेकिन वामपंथ से मोहभंग होने के बाद 1959 से Seminar नामक पत्रिका निकाला, जिसे प्यार से राज थापर अपनी तीसरी संतान कहती थीं। किंतु मार्क्सवादी अंधविश्वास और उसकी सक्रियता से बने वामपंथी दुराग्रह एक ऐसे तथ्य थे, जिससे थापर दंपति अंत तक मुक्त नहीं थे। पुस्तक में तमाम महत्वपूर्ण कम्युनिस्टों तथा अन्य लोगों यथा पी. सी. जोशी, बी.टी. रणदिवे, डांगे, अजय घोष, लिटो घोष, मोहन कुमार मंगलम, रोमेशचंद्र, पेरिन रोमेशचंद्र, मुल्क राज आनंद, सज्जाद जहीर, रजनी पाम दत्त, पी. ऐन. हक्सर, फिदेल कास्त्रो, इन्दर गुजराल, रफ़ीक जकारिया, कृष्ण मेनन, नेहरू, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, डी.डी.कौसम्बी आदि के बारे में अत्यंत रोचक प्रसंग हैं। पुस्तक के शुरू के लगभग 9 चैप्टर में मुख्य रूप से कम्युनिस्टों का उल्लेख है, क्योंकि उस समय तक थापर दम्पत्ति प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट था। इस पोस्ट में मैं इन कम्युनिस्टों से संबंधित प्रसंगों का ही उल्लेख करने जा रहा हूँ।

राज थापर ने उल्लेख किया है कि पी. सी. जोशी तथा आर.पी. दत्त को छोड़ कर सब के सब बड़ी साधारण बुद्धि के साधारण लोग थे। उनकी उपलब्धियां देश के लिए शायद ही कहीं सकारात्मक रही हों। अधिकांश तमाम क्षुद्र कमजोरियों- ईर्ष्या, लोभ, झूठ, कपट आदि से भरे लोग थे। सबके सब अपनी कल्पना में ही सामाजिक- आर्थिक शोषण, क्रांतिकारी परिस्थिति, वर्गीय संघर्ष का नक्शा बनाते रहते थे। उसी खाम ख्याली में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1943 में मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का जबरदस्त सैद्धांतिक, व्याहारिक समर्थन किया था। राज थापर तब 19 वर्ष की थीं जब उन्हें कम्युनिस्ट नेताओं का पाकिस्तान परस्त रुख समझ से परे लगता था। वे तब इतना जानती थीं कि मार्क्सवाद मज़हब विरोधी है। इसलिए वे सारे मार्क्सवादी ठीक मज़हब के ही आधार पर भारत विभाजन के लिए क्यों उत्साह में हैं, राज को विचित्र और सरासर गलत लगता था। उस समय मोहन कुमार मंगलम बड़े बौद्धिक एवं समर्पित कम्युनिस्ट समझे जाते थे। उनसे इस विषय पर बहस करते हुए राज का मन होता था, कि सब चीज़ें उठाकर उन पर दे मारें।
डांगे के बारे में उल्लेख है कि एक दिन डांगे उनके घर आये जब थापर दम्पत्ति लंदन में रह रहे थे। तब देश का विभाजन तय हो गया था, तथा पंजाब और दूसरी जगहों पर दंगे भड़क उठे थे। राज ने उनसे अपना दुःख व्यक्त किया। तब उस प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता ने कहा: “चिंता मत करो राज। हमारे लोगों को खून का स्वाद लेने दो, उन्हें सीखने दो कि खून कैसे बहाया जाता है। इससे क्रांति नजदीक आएगी”।

इसी प्रकार रणदिवे के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने 22 फरवरी 1949 को पूरे भारत में सत्ता पर अधिकार कर लेने की योजना बनायी थी। तब कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी इस बात पर एकमत थे कि देश की जनता समाजवादी क्रांति के लिए तड़प रही है। जनता केवल एक आवाहन भर का इंतज़ार कर रही है, जब वह अपने ऊपर से देश की शोषक बुर्जुवा सत्ता और उसके विदेशी आकावों के जूवे को उतार फेंके, हालांकि यह जनता कौन है, राज के अनुसार किसी कम्युनिस्ट को इसका कतई पता न था। यही आकलन करके रणदिवे नेतृत्व ने देश में सत्ता पर अधिकार कर लेने की योजना रूस में हुई 1917 में बोल्शेविक तख़्ता पलट की नक़ल पर निश्चित कर लिया गया। रोमेश थापर को भी सवेरे उठकर अपने घर के सामने हैंगिंग गार्डन में सबसे ऊपर चढ़ कर बैठ जाना था। पार्टी नेताओं द्वारा बताया गया कि गुप्त संकेत देखते ही उन्हें तुरंत जाकर रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर लेने का भार दिया गया था। राज थापर ने पुस्तक में इस किस्से का बड़ा दिलचस्प वर्णन किया है। यह सब कितना हास्यास्पद था, पूरी कल्पना कितनी बचकानी थी। स्पष्ट है कि कम्युनिस्ट नेता यथार्थ से कितने दूर थे।
संक्षेप में, यह समझने में अधिक कठनाई नहीं होगी कि कम्युनिस्ट राजनीति और मार्क्सवादी बौद्धिकता का भारत विरोधी, समाजद्रोही अंदाज अपने परिणाम में आज भी उतना ही विनाशकारी है, जितना पहले था। वे आज भी अपनी अंधविश्वास पूर्ण या काल्पनिक जड़ धारणाओं को उसी तरह पत्थर की लकीर मानते हैं, जैसा उनकी पिछली पीढ़ी ने समझा था। और हाँ, जिस तरह हमारे राष्ट्रीय नेता, बुद्धिजीवी और शिक्षित लोग इससे होने वाली हानि से तब ग़ाफ़िल थे, वही स्थिति कमोबेश आज भी है।
– शिवपूजन त्रिपाठी, लेखक भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के गहन जानकर एवं अध्येता हैं
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