मार्क्सवादी विचारधारा की भारत के इतिहास और वर्तमान से गद्दारी

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वर्ष 2004 में शंकर शरण की एक किताब “Marxism and Writing of Indian History” प्रकाशित हुई थी। पुस्तक में यह उल्लेख है कि मार्क्सवादियों द्वारा सायास तथ्यों को छुपाकर यह तर्क़ गढ़ा गया है कि अल्पसंख्यक होने के कारण मुसलमानों को असुरक्षा महसूस हुई। यथार्थ यह है कि वे इस ‘असुरक्षा’ भाव का एक वाक्य भी मुस्लिम नेताओं, विचारकों, लेखकों आदि के मुंह से कहा लिखा हुआ नहीं दिखा पाते। मुसद्दस् (1789) से लेकर शिक़वा (1909) और मुस्लिम लीग के पाकिस्तान प्रस्ताव(1940) तक, शाह वली उल्लाह से लेकर मुहम्मद अली जिन्ना तक- असुरक्षा का एक मुस्लिम शब्द भी मार्क्सवादी इतिहास कारों ने कहीं उदृधत नहीं किया है। उन्हें असुरक्षा के तर्क का अतिरिक्त हथियार हमारे मार्क्सवादी विद्वानों ने थमाया है और अनुभवी, बुद्धिमान योद्धा की तरह इस्लामी प्रतिनिधि जरूरत पड़ने पर इस हथियार को भी चलाते हैं।

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इसके विपरीत मौलाना हाली और इकबाल इस बात से फिक्रमंद हैं कि कुफ़्र का समूल नाश नहीं हो पाया। इस्लाम में बुत परस्ती कुफ़्र है और बुत शिकनी (मूर्तियों का ध्वंस) एक पवित्र मज़हबी काम है। हाली ने अपनी मशहूर रचना मुसद्दस् में बार बार मुसलमानों को एक कौम बताया है। यदि रचनाकार का नाम न बताया जाय तो हाली की पूरी रचना को किसी अरब देश के लेखक का लिखा बताया जा सकता है, क्योंकि भारत उसमें कहीं नहीं है, सिवाय एकाध जगह इस्लाम को गंभीरतम नुक्सान पहुँचाने वाली मनहूस जगह के रूप में। उदाहरण के लिए……

वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा
निशान जिसका अक्सा-ए- अलम में पहुंचा
मज़ाहम हुआ कोई खतरा ना जिसका
न अम्मान में ठिठका कुलजूम में झिझका
किये पे सिपर जिसने सातो समंदर
वो डूबा दहाने में गंगा के आकर

इकबाल ने ठीक इसी विषय पर अपनी जबरदस्त रचना शिक़वा (1909) और जवाबे शिक़वा (1912), जो अल्लाह के साथ इकबाल का संवाद है, में इसे बेहद साफ़ और सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है। इस्लाम के घटते रुतबे के बारे में पहले अल्लाह से शिक़वा करते हुए कहते हैं कि सारी दुनिया में हमने (मुसलमानों) ने तुम्हारे नाम पर मूर्ति पूजकों और दूसरे झूठे देवताओं को मानने वालों को नष्ट किया, उनकी मूर्तियों को तोड़ा, उनकी पूरी सभ्यताएं उजाड़ दी, तलवार के बल पर भी उनसे तुम्हारी सत्ता कुबूल करवाई…

तू ही कह दे उखाड़ा दर-ए खैबर किसने?
शहर कैसर का जो था उसको किया सर किसने?
तोड़े मखलूक-ए खुदा वंद के पैकर किसने?
काटकर रख दिये कुफ्फार के लश्कर किसने?
किसने ठंडा किया, आतशकद-अ-ईरा को?
किसने फिर जिंदा किया तज़किर-ए-यज़दां को?

किसकी तकबीर से दुनिया तेरी बेदार हुई?
किसकी हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे?
मुंह के बल गिरके हुवल्ला-हो- अहद कहते थे?

इसमें कोई इशारों में कही बातें नहीं, जिसे हमारे मार्क्सवादी कोई भिन्न अर्थ देकर विद्यार्थियों के लिए सहज स्वीकार्य बनाने की कोशिश कर सकें। इस शिकवे का उत्तर देते हुए अल्लाह जवाबे शिक़वा में भी उतना ही साफ साफ यही कहते हैं कि मेरे लिए वह सब काम करने वाले अब हैं ही कहाँ। मेरे नाम पर तलवार उठाने वाले, उसके जोर से दुनिया को मुसलमान बनाने वाले रहे ही नहीं। शायर इकबाल के अल्लाह आज के मुसलमानों के लिए कहते हैं…

हाथ बेजोर हैं, इल्हाद से दिल खूंगर हैं
उम्मती बाइसे रूस्सवैये पैग़म्बर हैं
बुतशिकन उठ गये, बाक़ी जो रहे बुतगर हैं
था ब्राहीम पिदर, और पिसर आज़र हैं
वादः आशाम नए, वादः नया, खुम भी नए
हरम- ए- काबा नया , बुत भी नए, तुम भी नए

यह इस्लामी विद्वता की आधुनिक काल की सबसे मशहूर हस्ती के ख़यालात थे। इन दोनों रचनाओं में आदि से अंत तक जो बातें कही गयी हैं, उसमें पूरी दुनिया में इस्लामी साम्रज्य कायम करने के अलावा न कोई समस्या है, न उसका कोई विकल्प। इसके लिए दूसरे धर्मों को मिटाना, उनके उपासना प्रतीकों को तोड़ना अब भी अपरिहार्य माना गया है। यह भी न समझा जाय कि इन प्रस्थापनाओं से आधुनिक इस्लामी विद्वान अपने को अलग करना चाहते होंगें। उदार और सेक्युलर कहलाने वाले प्रसिद्ध भारतीय विद्वान रफ़ीक ज़कारिया ने इकबाल की इन रचनाओं का फोरवर्ड 1980 में लिखते हुए इकबाल को बृहत्तर मानवता वादी माना है।

तब प्रश्न उठता है कि जिन ऐतिहासिक तथ्यों पर स्वयं इस्लामी आलिमों व रहनुमावों को कोई संकोच नहीं होता, उसे मार्क्सवादी इतिहास कार छिपाने, उसकी सुंदर व्याख्याएं ढूंढने, बल्कि संभव हो तो उसका दोष इस्लाम के बजाय किसी और पर मढ़ने के लिए जमीन- आसमान क्यों एक करते रहे हैं??

मार्क्सवादी इतिहासकार: इतिहासकार या राजनीतिक प्रचारक?

भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकार, इतिहासकार कम राजनीतिक प्रचारक अथवा राजनीतिक कार्यकर्ता अधिक हैं। Future of British rule in India में मार्क्स न केवल मुस्लिमों, मुगलों और ब्रिटिश को बाहरी शासकों की श्रेणी में रखते हैं, बल्कि वे हिन्दुस्तान के धर्म के रूप में भी केवल हिंदुत्व को रखते हैं। मार्क्स को भारत में खासी मुस्लिम आबादी के होने का बड़ी अच्छी तरह पता था, फिर भी वह भारत के चरित्र को हिन्दू चरित्र बताते हैं। जिस समय मार्क्स लिख रहे थे, भारत का अंतिम मुगल बादशाह भी जीवित था, और मार्क्स ने उसका जिक्र भी किया है। अतः मार्क्स को इसमें लेशमात्र संदेह नहीं था कि भारत में मुगल शासन भारतवासियों का नहीं बल्कि बिदेशी आक्रान्ताओं का शासन था। लेकिन ठीक यही बात , वह भी पूर्णतः प्रामाणिक रूप से कहने के लिए हमारे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने जदुनाथ सरकार, रमेश चंद्र मजूमदार, सीताराम गोयल जैसे कितने ही विद्वान इतिहासकारों को साम्प्रदायिक, संघ परिवार का लेखक आदि कहकर अपमानित, खारिज करने की कोशिश की है।

दूसरा उदाहरण भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों को राजनीतिक प्रचारक/ कार्यकर्ता होने का यह है कि 1907 में ही अर्थात 1857 की घटना की पचासवीं वर्ष गांठ पर ” भारत का स्वाधीनता संग्राम” नामक लगभग हज़ार पृष्ठों का एक बृहत इतिहास ग्रंथ वीर सावरकर द्वारा लिखा गया था। तो उस समय तक स्थिति यह थी कि 1857 को हमारे मार्क्सवादी “सिपाही विद्रोह” ही मान रहे थे। यही नहीं, उसे पहला स्वाधीनता संग्राम बताने को बढ़ा चढ़ा कर प्रशंसा करना, अंक्रिटिकल नेशनलिज्म तथा ऐसा बताने वाले लेखकों को ‘अपना हित साधने में लगे लोग’ कह रहे थे।

बहरहाल, 1957 तक भारत के मार्क्सवादी इतिहासकार 1857 को विद्रोह मात्र कह रहे थे, जबकि उसे स्वाधीनता संग्राम बताने वाले सावरकर जैसे लोगों को अपना स्वार्थ साधने वाले बता रहे थे। किंतु दो ही साल बाद , जब 1959 में मास्को से रूसी मार्क्सवादियों ने उस घटना का मूल्यांकन “भारत का पहला स्वातंत्र्य युद्व” कहकर किया, तब से भारतीय मार्क्सवादियों का रुख बदल गया। न केवल अपने पुराने रुख से पलट गए, बल्कि स्वयं को ही इस बात का श्रेय देने पर तुल गये कि उन्होंने ही 1857 को सबसे पहले भारतीय स्वाधीनता संग्राम बताया। बड़ी सरलता से उन्होंने सावरकर को एकदम भुला देने की कोशिश की, जिन्होंने कम से कम आधी सदी पहले यह मूल्यांकन, वह भी एक बृहद ग्रंथ लिख कर किया था। कुछ ही समय में इस तरह इतिहास को उलट पलट करने की कोशिश विचित्र लग सकती है, मगर मार्क्सवादी विद्वता और प्रचारकर्म की सिफत से परिचित होने पर इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगेगा। हालांकि मुक्ति बोध के फ्रेज का इस्तेमाल करते हुए यह पूछना तो स्वाभाविक है क़ि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

 – शिवपूजन त्रिपाठीलेखक भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के गहन जानकर एवं अध्येता हैं

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