जाति व्यवस्था का प्राचीन आधार और विशिष्टता

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वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र

हम संसार में जहाँ भी देखते हैं प्रकृति प्रदत्त विभिन्नता, वैशिष्ट्य, अधिकार अनधिकार भेद और उनका सामंजस्य सहज ही दिखाई देता है। सभी पशु, पक्षी, वृक्ष, पाषाण-धातु आदि जड़ चेतन वस्तुओं में भी भिन्नता की एक वैशिष्ट्य जनित श्रृंखला दिखाई देती है। प्रकृति की यह वैशिष्ट्यपरिपूर्ण विभिन्नता और उसके तारतम्य से जनित एकात्मता इस संसार का संसरण करती रहती है। इस विशिष्ट विभिन्नता को जीवों में नस्ल या जाति कहा जाता है। जैसा श्वानों में पामेरियन, जर्मन शेफर्ड आदि जातियां होती हैं। जड़ वस्तु कोयला भी एंथ्रासाइट, बिटुमिनस, पीट आदि प्रकार का होता है। इस विभिन्नता में मूलतः उनके उत्पत्ति स्थान या उत्पत्ति प्रकार ही कारण होते हैं। प्राकृतिक व्यवस्था में कारण के गुणों के अनुसार ही कार्य के गुण होते हैं, यह विज्ञान भी मानता है। अपनी अपनी शक्ति के अनुसार प्रकृति पक्षपात न करते हुए सभी वस्तुओं में उच्च अवर का भाव करती है। इस विभिन्नता और वैशिष्ट्य की महत्ता न समझकर इसका अपलाप करने पर सारी सृष्टि व्यवस्था ही खंडित हो जाएगी।

इसलिए शास्त्रकारों ने इस प्राकृतिक व्यवस्था को समझते हुए मनुष्य जाति के सहज सम्पूर्ण उत्थान हेतु चतुर्वर्णों का नियमन किया। राग द्वेष पक्षपात रहित चतुर्वर्ण की व्यवस्था सनातन धर्म में ईश्वरप्रदत्त व्यवस्था है। वैदिक वर्णव्यवस्था में वेदशास्त्रादि विद्याओं का अध्ययन-अध्यापन-उद्दीपन करना कराना ब्राह्मणों का गुण, शूरवीरता, शासन व युद्ध आदि करना क्षत्रियों का गुण, कृषि-वाणिज्य वैश्यों का गुण और विभिन्न सेवा प्रकल्प, शारीरिक श्रम, कलाकौशल में पारंगतता आदि शूद्रों के स्वाभाविक गुण माने गए हैं। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में विराट पुरुष के अंग-प्रत्यंगों का वर्णन किया गया है। वैदिक वर्ण व्यवस्था का बीज इसी सूक्त का मन्त्र है। विराट पुरुष के जिन अंगों से तत्तत वर्णों की उत्पत्ति ऋचा में बतलाई है उसका उन उन वर्णों के स्वाभाविक गुणों से पूरा साम्य है। मन्त्र कहता है,

ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥
ऋग्वेद 10.90, यजुर्वेद31वां अध्याय
“उस विराट पुरुष परमात्मा के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, बाहुओं से क्षत्रियों की, उदर से वैश्यों की और पदों (चरणों) से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।“

मैक्समूलर, ग्रिफिथ आदि पश्चिमी विद्वानों, और उनके भारतीय चेलों ने इसकी विकृत व्याख्या करके समाज में असन्तोष, वैमनस्यता फैलाने का कार्य किया। उन्होंने दुष्प्रचार किया कि सनातन धर्म में जानबूझकर शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बतलाया गया ताकि उनका अपमान किया जा सके। उनका मत है कि पैर शरीर के घृणित अंग हैं जिनसे सम्बन्ध अपमान का परिचायक है। इस तरह उन्होंने शूद्रों में घृणा का बीज बोया।

शास्त्रानुसार यह विराट पुरुष स्वयं भगवान विष्णु ही हैं। महाभारत शांतिपर्व, में आया है,

ततः कृष्णो महाभागः पुनरेव युधिष्ठिर।
ब्राह्मणानां शतं श्रेष्ठं मुखादेवासृजत प्रभु:।।
बाहुभ्यां क्षत्रियशतं वैश्यानामूरुतः शतम्।
पद्भ्यां शूद्रशतश्चैव केशवो भरतर्षभ।।
– महाभारत शांतिपर्व, अध्याय 206, श्लोक 35
“हे युधिष्ठिर, फिर परमात्मा कृष्ण ने मुख से सौ श्रेष्ठ ब्राह्मण, बाहुओं से सौ क्षत्रिय, उरुओं से सौ वैश्य और चरणों से सौ शूद्रों की सृष्टि की।“

पर वास्तविकता यह है कि शूद्रों की विराट पुरुष विष्णु के चरणों से उत्पत्ति से शूद्रों का अपमान नहीं बल्कि उनका आदर बढ़ता है। विष्णुपद को मोक्षपद भी कहते हैं। सनातन धर्म में श्रीभगवान के चरणों का महत्व सर्वाधिक है। सनातन धर्मी विराट पुरुष विष्णु के मुख की शरणागति नहीं मांगते, बाहुओं का स्पर्श नहीं मांगते, उदर का आश्रय नहीं मांगते, बल्कि चरणों का आश्रय ही मांगते हैं, जहाँ से शूद्र वर्ण का प्रादुर्भाव हुआ है। कहा गया है,

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥

श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्लोक 29

वैदिक संस्कृति में पूजनीय के अभिवादन की विधि चरणस्पर्श है। यदि चरण निम्न होते तो चरणस्पर्श की ही महत्ता क्यों होती? अन्य वर्णों को महत साधनों, कठिन वैदिक कर्तव्यों के पालन द्वारा मोक्ष प्रशस्त होता है जबकि शूद्रों को साक्षात् विष्णु के चरणकमल से उत्पन्न बताकर उनके लिए सेवा रूप धर्म से सहज ही मोक्ष का प्रतिपादन हुआ है। अतः शूद्र वर्ण को पाश्चात्यों द्वारा फैलाए गए दुष्चक्र में नहीं फंसना चाहिए।

वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र

आज वर्ण व्यवस्था और तज्जनित जाति व्यवस्था का जो अनर्गल विरोध हुआ है, इससे समाज में अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, अयोग्यता, अकुशलता, वैमनस्यता का संचार हुआ है। कलाओं का ह्रास हुआ है। विद्याएं लुप्त हुईं हैं। आय के साधन घटे हैं। जबकि भारत में सर्वाधिक आय के साधन जन्मजात रूप से शूद्र जातियों को प्राप्त हुए। किसी जाति को वस्त्र बनाने का व्यवसाय मिला, कोई जाति सीने से दर्जी बनी, कोई लकड़ी से काम से खाती बनी, कोई लोहे के काम से लुहार बनी, कोई नाई, कोई कुम्भकार, कोई मूर्तिकार, कोई चर्मकार, कोई बुनकर, कोई रजक, कोई नट, कोई डोम, कोई सूत, कोई नक्काशीकार इत्यादि। इस प्रकार भिन्न भिन्न जातियों को पृथक व्यवसाय मिले, जो परंपरागत रूप से आज भी चले आ रहे हैं। यही जातियां तत्तत् शिल्पों में सिद्धहस्त होती हैं। और यह गुण उनमें वंश अनुगत रूप से चलता है। एक लुहार का पुत्र जितना जल्दी लोहे का काम सीखेगा कोई दूसरी जाति वाला उतना जल्दी और उतना अच्छा नहीं सीख सकता। इससे समाज में पूर्ण रोजगार रहता था व बेरोजगारी नहीं होती थी। समाज की सभी जरूरतों को सभी जातियां मिलकर पूरा करती थीं।

समाज की एकात्मता यज्ञ से समझी जा सकती है। एक यज्ञ में सभी जातियों की सहभागिता अनिवार्यतः चाहिए होती है। रामायण में इसका वर्णन मिलता है।
दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ की व्यवस्था करते समय महर्षि वशिष्ठ ने यज्ञसम्बन्धी कर्मों में निपुण तथा यज्ञविषयक शिल्पकर्म में कुशल, बूढ़े ब्राह्मणों, यज्ञकर्म में सेवा करने वाले सेवकों, शिल्पकारों, बढ़इयों, भूमि खोदने वालों, ज्योतिषियों, कारीगरों, नट-नर्तकों, शास्त्रज्ञों आदि को बुलाकर उन्हें यज्ञप्रबन्ध का निर्देश दिया।” [1]
“ऐसी व्यवस्था हो कि सभी वर्णों के लोग भलीभांति सत्कृत हों और सम्मान प्राप्त करें।” [2]
इसके बाद वसिष्ठ जी ने सुमन्त्र को बुलाकर कहा
, “इस पृथ्वी पर जो जो धार्मिक राजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सहस्रों शूद्र हैं, उन सभी को यज्ञ में आने को निमंत्रित करो।”[3]

जाति व्यवस्था की ताकत से भारतीय समाज सदियों से समृद्ध रहा है। भारतीय मलमल, मसाले सहित सभी शिल्पों, उत्पादों की विश्व इतिहास में धाक रही है। समृद्धि के साथ साथ जाति व्यवस्था ने भारतीय संस्कृति की सुरक्षा भी की है। जाति व्यवस्था के कारण ही भारतीय समाज परकीय ईसाई व मुस्लिम संस्कृतियों से बचा रहा है, अथवा यह भी अफ्रीका की तरह ईसाई-धर्म का स्थाई उपनिवेश बन चुका होता। जाति व्यवस्था मिशनरियों के सामने धर्म परिवर्तन की राह में सबसे बड़ा काँटा थी। उन्नीसवीं सदी में भारत आए एक प्रमुख ईसाई मिशनरी एलेग्जेंडर डफ ने लिखा है, “मूर्तिपूजा और अंधविश्वास(हिन्दू कर्मकांड) एक विशाल संरचना(हिन्दू धर्म) के पत्थर और ईंटों की तरह हैं और जाति इसका सीमेंट है, जो पूरी संरचना में व्याप्त है और इसे बांधती है। हम इस नींव को कमजोर करेंगे और ये दोनों एक बार में गिर जाएँगे और एक संयुक्त मलबा बन जाएंगे।”[7]

इस स्वीकारोक्ति से साफ होता है कि, तत्कालीन समाज में हिन्दू धर्म को नष्ट करने हेतु जाति व्यवस्था को नष्ट करना सबसे आवश्यक था। व जाति व्यवस्था पर आक्रमण व विकृतीकरण इसी उद्देश्य से किया गया था। जाति व्यवस्था सनातन धर्म की शक्ति थी। कर्मणा वर्ण व्यवस्था शास्त्रीय, प्राकृतिक व वैज्ञानिक किसी भी आधार से प्रशस्त नहीं है। व वर्ण संकरता समाज को अधोगति की ओर ले जाएगी। अतः शास्त्रों से सिद्ध, सनातन धर्म में अविच्छिन्न परंपरा से चली आ रही जाति व्यवस्था, पूर्ण प्राकृतिक, वैज्ञानिक और सहज मानव उत्थान का मार्ग है, इसका संरक्षण आवश्यक है।

सन्दर्भ :

  1. वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 13, श्लोक 6-8
  2. वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 13, श्लोक 14
  3. वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 13, श्लोक 20
  4. “Idolatry and superstition are like the stones and bricks of a huge fabric, and caste is the cement which pervades and binds the whole. Let us undermine the foundation and both will tumble at once and form a common ruin.”Alexander Duff, India and Indian Missions, Edinburgh, 1840, p. 616

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उपरोक्त लेख आदरणीय लेखक की निजी अभिव्यक्ति है एवं लेख में दिए गए विचारों, तथ्यों एवं उनके स्त्रोत की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु The Analyst उत्तरदायी नहीं है।

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