श्री कृष्ण के जीवन में बसा है संसार का हर रूप.

द्रोणाचार्य सरीखे शास्त्रज्ञ गुरु भी धर्म का तत्व नहीं समझ पाए। भीष्म पितामह जैसे धर्म सम्राट को भी धर्म का तत्व शर शैय्या पर लेटने से पहले समझ न आया। यहाँ तक कि धर्म अधर्म के नाम पर दो फाड़ हुए राजाओं में धर्म पक्ष के अर्जुन भी धर्म के नाम पर युद्ध छोड़ भिखारी बनने को तैयार हैं। युद्ध जीतने के पश्चात भी धर्मराज युधिष्ठिर भीष्म के सामने नेत्रों में अश्रु लिए धर्म का तत्व जानने के लिए चरणानुगत हो रहे हैं। वहीं समस्त धर्म-अधर्म की उलझनों से घिरे वातावरण में, भ्रमित पात्रों के बीच, गायें चराने वाला ग्वाला धर्म का साक्षात् स्वरूप बना हुआ है। सारे शंकित पात्रों के प्रश्नों का समाधान आखिर में वही कर रहा है। उसके उपदेशों से जहाँ भिखारी बनने की इच्छा वाले अर्जुन रण में प्रलय मचाने को उतावले हो रहे हैं, वहीं अजेयानुजेय भीष्म अपने प्राणों को स्वयं थाली में सजाए खड़े हैं। जहाँ बड़े बड़े विद्वानों की बुद्धि भी भ्रमित हो अधर्म को धर्म मान लेती है वहीं श्री कृष्ण का हर एक कार्य मानो धर्म की गुत्थियों की गांठें खोल रहा है।  

            धर्म सदा देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष होता है। कोई कर्म ऐसा नहीं है जो स्वयं में पाप या पुण्य हो। पाप पुण्य की इस महीन रेखा के वे पूर्णज्ञाता थे। दुष्टों के किसी भी प्रकार दमन को वे धर्मानुमोदित मानते थे। कर्णार्जुन युद्ध में निहत्थे कर्ण को मारना उन्होंने धर्मोचित बताया, आखिर सदा अधर्म के पोषक को धर्माचरण की आशा रखने का क्या अधिकार है? अनुचित रूप से मथुरा पर चढ़ाई करने आए कालयवन को धोखा देने में उन्होंने कुछ अनुचित नहीं समझा। अधार्मिकों के साथ यदि पूर्ण धर्म का पालन किया जाए तो अधार्मिकों का हौसला बढ़ता है और धर्म की ही हानि होती है। धर्म के साथ नीति का चोली दामन का साथ है, कहाँ कहाँ धर्म को प्रधानता देनी है और कहाँ कहाँ नीति को, यह उन्होंने खूब स्पष्ट किया। नीति का उपयोग जहाँ धर्मरक्षा में होता है वहां वे नीति को प्रधानता देते हैं। इस नीति-धर्म के सामंजस्य को भूलने के कारण ही भारत आतताइयों से पदाक्रांत हुआ और परिणाम में धर्म की घोर दुर्दशा हुई। वैयक्तिक धर्म का निर्वाह जब सामाजिक धर्म की अवहेलना करता है तो अधर्म से कम नहीं रह जाता, ऐसी परिस्थिति में अकाट्य अनुकल्पों की श्री कृष्ण ने सर्जना की, चाहे अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर पर शस्त्र उठाने का प्रसंग हो, या द्रोण के वध का प्रसंग हो या अश्वत्थामा को मारने की अर्जुन की प्रतिज्ञा का प्रसंग हो।

            व्यावहारिक ज्ञान, राजनैतिक ज्ञान, धार्मिक ज्ञान से लेकर दार्शनिक ज्ञान आदि में से कौन से ज्ञान सर्वज्ञानमय कृष्ण में पूर्ण न थे? सर्वज्ञानमय पुरुष का ज्ञान सर्वशास्त्रमयी गीता में आलोकित हुआ और आज पांच हज़ार वर्ष बाद भी उसकी थाह न मिल सकी है। अरबों वर्ष से जैसे वसुंधरा नित नवीन रत्न उगलती है वैसे ही 700 श्लोकों के छोटे से ग्रन्थ से नित नए चमत्कारिक ज्ञान प्रस्फुटित हो रहे हैं। 

            श्री कृष्ण का जीवन बाल्यकाल से ही कंटकाकीर्ण रहा। ग्वालों के यहाँ पले पर क्षत्रियत्व जन्म से ही प्रौढ़ता को प्राप्त है। शिशु अवस्था में पूतना के विष बुझे स्तन चूस प्राण ही निगल लिए, वहीं नन्ही सी लातों से छकड़े उलटा दिए। कुमारावस्था में प्राचीन वृक्षों को एक झटके में उखाड़ रहे हैं। कंस के भेजे असुर नित्य आ रहे हैं, पर खेल-खेल में निबटा दिए जाते। किशोरावस्था में कंस के मल्ल अखाड़े में पछाड़े और मदमत्त हाथी मार गिराए। भारत का कोई महावीर क्षत्रिय जिसे सामने खड़ा हो हरा न सका, दुष्ट राक्षसों और राजाओं का जिन्होंने दमन किया, अकेले सारे भूमण्डल का भार उतार डाला, इंद्र तक को अवहेलित करने वाले ऐसे अतिमानुष शूरवीर धर्मरक्षा के लिए रण छोड़ भाग खड़े होते हैं, भला भगवान की ऐसी लीला भक्त समझ भी कैसे सकें? उच्च गृहस्थ मर्यादा के लिए 12 वर्ष तपश्चर्या और ब्रह्मचर्य निर्वाह, यादव राज्य के प्रबंध के साथ पांडवों का हर पग पर सहायक होना, आज द्वारका में हैं, तो कल देहली में, परसों बद्री में समाधि जमी है, अभी युद्ध में चढ़ाई हो रही है तो अगले ही समय भक्तों को प्रेमसुधा पिला रहे, कृष्ण की कथा कहें या अश्रु बहने से रोकें? वास्तव में तो श्री कृष्ण की ऐसी विरोधभासिता में ही उनके पूर्णवतारत्व का रहस्य छिपा है, और यह विरोधभासिता हमें हमारी अल्पज्ञता के कारण ही दिखती है। 

            सर्वदा भयानक बनी रही परिस्थितियों में भी कृष्ण एक क्षण को शोकाकुल नहीं हुए, बल्कि विनोद का एक अवसर नहीं छोड़ते। ग्वालों के साथ बंसी बजा रहे हैं, सखे-सखियाँ सब भूलकर नृत्य करते, जब समीप कृष्ण हैं तो और किसका ख्याल रहे? बंदरों पर मक्खन लुटा रहे, मट्टी खाकर माँ को छकाते हैं, छकड़ियों से माखन के मटके उल्टाए जाते, फलवाली दो तीन दाने धान के पाकर सब कुछ पा गयी है, अर्जुन के साथ सैर सपाटे का आनन्द लूटा जा रहा है। भगवान की लीलाओं पर आक्षेप करके अपने दुराचार साधने वाले श्री कृष्ण की लीलाओं का रहस्य नहीं समझते उनका सम्पूर्ण चरित्र शुद्ध सात्विक है, रज और तम गुण उन्हें छू भी नहीं गए हैं। जहाँ राजा महाराजाओं के बीच वे अग्रपूजा के लिए चुने जाते हैं वहीं युधिष्ठिर के यज्ञ में वे आगन्तुकों के पैर धोते और झूठन उठाते हैं, ऐसी निराभिमानिता कहीं और नहीं मिलती। सारा गोकुल जिनपर मरा जाता है, वहाँ एक बार निकलने के बाद वे झांकते भी नहीं, इसीसे उनकी निर्लिप्तता स्वतः सिद्ध है। भगवान श्री राम ने जहां साक्षात् पिता की साक्षात् आज्ञा से राज्य त्यागा, वहीं कंस को मारने पर श्री कृष्ण मथुरा का राज्य इसलिए ग्रहण नहीं करते क्योंकि उनके पुरखे यदु से महाराज ययाति ने मथुरा का राज्याधिकार छीन लिया है, पुरखे की परोक्ष आज्ञा का स्मरण कर राज्य ठुकरा दिया, अब उनको विलासी कहने वालों को क्या उत्तर दें? अपने व्यभिचार को छिपाने के लिए उन्हें रसिया छलिया कहने वाले उस द्रौपदी की कथा को ताक पर रख देते हैं जो सारे संसार में केवल कृष्ण को पुकारती है और कृष्ण ही उसकी लाज बचाते हैं। कृष्णलीलाएं सबके समझ नहीं आतीं, यह भी उनकी एक लीला ही है। उनकी लीलाओं में छिपे धर्मतत्व को न समझने वालों को भी भगवान ने ही उत्तर दे दिया, परीक्षित जब मृत पैदा हुए तो भगवान ने अपना धर्म आधार करते हुए कहा, “यदि मैंने धर्म और सत्य का कभी अतिक्रमण न किया हो तो यह बालक जी उठे”, अब इसके बाद क्या कहना शेष है?

कृष्ण द्रौपदी

            इसी महावीर योद्धा ने संसार में अनन्त अथाह प्रेमसरिता भी प्रवाहित की थी। जैसी प्रेम की नदी कृष्ण ने बहाई वैसा प्रवाह गंगा के लिए पाना भी दुःसाध्य है। कृष्ण ‘रसो वै सः‘ हैं। कृष्ण ‘सर्व सौंदर्य निलय‘ हैं। जन्म के दिन से सब उनके दीवाने हैं। श्री कृष्ण के प्रेम ने सारे संसार को आच्छादित कर लिया। नन्हे कन्हैया अपनी प्यारी गैयाओं के पास भर जाते हैं तो थनों से दूध स्वतः छूट रहा है, दुग्धस्नान हुआ जाता है। पौधों के पास गए तो कलियाँ सुन्दर पुष्प बनी इठलाती हैं। लताएं इस आशा में सुशोभित हैं कि गोपाल की दुशाला ही बन जाएंगी। मनुष्य ही नहीं सारे पशु पक्षियों में माधव की मादकता छाई है, कृष्ण का तो नाम ही ‘चितचोर’ है। असल में क्षत्रु भी क्षणभर को उनके प्रेम में आसन्न हो जाते हैं। सोने चांदी की थालियों में सजे राजमहलों के व्यंजन त्यागकर कृष्ण विदुरपत्नी के दिए केले के छिलकों में सन्तुष्ट हैं, काकी की दृष्टि मुखारविन्द पर अटकी है, वे केवल भाव के भूखे हैं। 

रासलीला

            क्या संसार में आजतक ऐसा जीव हुआ जिसको दुःख का स्पर्श भी न हुआ हो? जो सब लौकिक सुख भोगते हुए भी पूर्ण कर्तव्यनिष्ठ हो? संसार में लिप्त दिखकर भी आत्मनिष्ठ हो? जो सारे जगत का तारणहार बना हुआ भी चिंता से दूर रहे? निःसन्देह ये परमानन्दघन परमात्मा के लक्षण हैं, जीवकोटि के बाहर की बातें हैं, ये सदा स्वतः समाधिस्थ स्वाभाविक योगी के लक्षण हैं, ये पूर्ण पुरुषोत्तम श्री भगवान के लक्षण हैं। 

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोगश्चैव षष्णाम् भग इतीरणा।।
वैराग्यं ज्ञानमेश्वर्यं धर्मश्चेत्यात्मबुद्धयः।
बुद्धमः श्रीर्यशश्चैते षड वै भगवतो भगाः।।
उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामगतिं गतिम्।
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।।

इन सब लक्षणों की समग्रता भी श्री भगवान के लिए कम ही है।

           अधिष्ठानभूत ब्रह्म श्री कृष्ण के लिए भगवान आदि शंकराचार्य कहते है –

भूतेष्वन्तर्यामी ज्ञानमयः सच्चिदानन्दः। प्रकृतेः परः परात्मा यदुकुलतिलकः स एवायम्।।

जो ज्ञानस्वरूप, सच्चिदानन्द, प्रकृति से परे परमात्मा सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित है, यह यदुकूल भूषण श्री कृष्ण वही तो हैं।

           आज भी सब संसार में सबसे अधिक प्रेम मनुष्यों का श्री कृष्ण पर ही देखा जाता है, इहलोक और परलोक की हर श्रेणी में श्रीभगवान के भक्तों की जितनी संख्या है उतनी अन्य किसी की नहीं। जो जिस श्रेणी का है, अपने ही तरीके से भगवान को प्रसन्न करने में लगा है। परन्तु उसका जितना भी श्रृंगार करो भावनावश, कितने भी प्रकार के व्यंजनों का भोग लगाओ, गीत गाते रहो, नाम जपते रहो, किन्तु ऐसा करने से ही श्री कृष्ण प्राप्त नहीं हो जाएँगे। उन्हें प्रसन्न करना है तो, उस धर्म को धारण करना ही पड़ेगा, जिसके लिए जीवन भर उन्होंनेे कार्य किया, जिसके लिए महाभारत जैसा भीषण युद्ध करा डाला, गीता कही। वो जिस धर्म से प्रेम करता था हमें भी उससे प्रेम करना होगा, उसने जो शिक्षा दीं उन्हें आत्मसात करना होगा, उसने जो श्रेष्ठ आचरण किए हमें भी वैसा ही आचरण करना होगा। बिना ऐसा किए श्री कृष्ण कभी नहीं मिल सकते।

जय श्री कृष्ण 

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