पुण्य स्मरण है उन परमपूजनीय श्रीगुरुजी माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का जिन्हें माधव कहकर याद किया जाता है। सम्भवतया इसलिए रखा होगा उनके माता पिता ने ‘माधव’ नाम कि उनकी 9वीं व एकमात्र जीवित सन्तान बच पाए थे वे, माधव की तरह ही, पर क्या पता था कि यही सन्तान आगे चलकर महाभारतनायक गीताप्रवक्ता वासुदेव श्रीकृष्ण की तरह सनातन राष्ट्र का अहर्निश प्रबोधन करने वाली है। स्वामी विवेकानन्द जी के गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द जी ने मुमुक्षु माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर को दीक्षा प्रदान की और अपना सर्वस्व तेज भी प्रदान कर दिया जिसकी आवश्यकता आगे पड़नी थी। साधनानिरत श्रीगुरुजी ने आगे डॉ. साहब हेडगेवार जी द्वारा दिखाए नियति निर्दिष्ट राष्ट्रकार्य को अपना जीवन पथ बना लिया।
और इस 33 वर्ष के जीवन में प्रतिवर्ष 2 बार भारतपरिक्रमा कर हिन्दूराष्ट्र को “पृथिव्यैसमुद्रपर्यन्ताया एकराट्” घोषित किया। दरिद्रता और दिशाहीनता के दलदल में धँसी राष्ट्रशक्ति को पुनः परमवैभवशाली के पद पर आसीन करने का सङ्कल्प करोड़ों हिन्दुओं को याद दिलाया। राष्ट्र में इतने लोगों को दो समय भोजन नसीब नहीं हो रहा है अतः सदा एक ही समय भोजन करने की प्रतिज्ञा उन तपोमूर्ति की थी। शायद ही उनके बराबर किसी ने भारत का इतना प्रवास किया हो या अपने हाथ से इतने पत्र लिखे हों, अपने 67 वर्ष के जीवन में श्रीगुरुजी ने 60 हज़ार से अधिक पत्र लिखे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रूपी पौध को वटवृक्ष बनाने वाले परमपूजनीय श्रीगुरुजी के जीवन का क्षण क्षण “महामङ्गले पुण्यभूमेत्वदर्थे पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते” का भावार्थ था।
श्रीगुरुजी गोलवलकर के बारे में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपनी पुस्तक “ज्योतिपुंज” में 40 से अधिक पृष्ठ लिखे हैं, उसमें से छोटा सा अंश गुरुजी के व्यक्तित्व आज स्मरणीय है। नरेन्द्र मोदी जी लिखते हैं :–
“तैंतीस वर्षों तक अखंड परिभ्रमण करना कोई छोटी-मोटी बात नहीं थी। उन्हें कौन सी बीमारी नहीं हुई होगी ? क्या रास्ते में उनकी गाड़ी खराब नहीं हुई होगी? उनके विराम के समय में देरी नहीं हुई होगी? बुखार, ठंड लगना, धूप छाँव, वातावरण का परिवर्तन – क्या कुछ भी उन्हें आड़े नहीं आया होगा? न जाने कितनी कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा होगा। लेकिन पूज्य गुरुजी ने जीवन में किसी भी तरह की अपेक्षा रखे बिना संपूर्ण समर्पण की भावना चरितार्थ करने का प्रण किया था इसीलिए तैंतीस वर्षों तक शरीर का हर कण, रक्त की हर बूँद, जीवन का हर पल इस मातृभूमि के कल्याण के लिए, इस भारत माता के परम वैभव के लिए, अपनी करोड़ों संतानें विश्व के मंच पर आगे बढ़ें, इस प्रकार की अदम्य इच्छा लेकर माधवराव जीवनपर्यंत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक के रूप में कठोर परिश्रम करते हुए आगे बढ़ते रहे।
एक बार किसी ने पूजनीय गुरुजी से पूछा था, “आपका निवास स्थान कहाँ है?” इसका उन्होंने सहज भाव से जवाब दिया था, “ट्रेन का डिब्बा।” तैंतीस वर्षों तक अखंड, अविराम यात्रा चलती रही। कैंसर जैसी बीमारी ने उन्हें जकड़ लिया था, फिर भी वे रुके नहीं और उनका देश भर का प्रवास चलता रहा।
कार्यकर्ता उन्हें अपनत्व दिखाते हुए भाव विभोर होकर आराम करने की सलाह देते। उन्होंने कहा था, “विश्राम ? अब कैसा विश्राम ? अब विश्राम तभी संभव हो सकेगा, जब हाथ में लिया हुआ कार्य पूर्ण होगा या फिर चिता पर।
शरीर के कण-कण को, जीवन के क्षण-क्षण को गुरुजी ने पवित्र पुनीत मातृभूमि की सेवा में समर्पित कर दिया था। उन्होंने इस नश्वर देह के लिए भगवान् के आगे ज्यादा प्रार्थना भी नहीं की थी। अहर्निश निरंतर मातृभूमि की सेवा -अर्चना ही उनके जीवन का जीवन-मंत्र था। उनका जीवन कितना ऊँचा था, इसका एक उदाहरण- जीवन के अंतिम दिन थे | उन दिनों गुरुजी केरल के कोट्टाईकल में उपचार के लिए गए थे। वहाँ तेलधारा स्नान की प्रक्रिया चल रही थी। एक दिन वहाँ के वैद्यजी आए। उन्होंने धूप-दीप जलाए और प्रार्थना की। फिर उन्होंने गुरुजी से कहा, ‘आप जल्दी ठीक हो जाएँ, उसके लिए भगवान् से प्रार्थना कीजिए।” गुरुजी प्रार्थना करने के लिए तैयार न हुए। उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया और कहा, “आपको मेरे स्वास्थ्य के लिए जो कुछ करना है, करो, मैं बीच में नहीं आऊँगा; लेकिन मेरी इस नश्वर देह के लिए भगवान् के पास प्रार्थना करने की क्या जरूरत है? इस शरीर से वे जितना काम करवाना चाहेंगे उतना करवाएँगे। उन्हें जब लगेगा कि मेरा काम समाप्त हो गया है तो मुझे अपने पास वापस बुला लेंगे। केवल अपने शरीर के लाभ के लिए मैं उनके पास प्रार्थना नहीं करूँगा।
पूजनीय गोलवलकर गुरुजी के प्रति श्रद्धाभाव रखनेवाला हर कोई उनकी पीड़ा में सहभागी होने उनसे मिलने जाता था। कोई हवन करवाता, कोई पूजा-पाठ करवाता, कोई मंत्र जाप करता तो कोई अनुष्ठान करवाता। सभी की अपनी अपनी श्रद्धा थी, लेकिन भाव एक ही था कि गुरुजी जल्द से जल्द ठीक हो जाएँ, उनकी पीड़ा कम हो जाए।
ऐसे ही एक दिन श्री भाऊरावजी देवरस और श्री रज्जू भैया इलाहाबाद गए थे उनकी वहाँ के प्रखर पण्डित के पास अनुष्ठान करवाने की इच्छा थी। वे जैसे ही दरवाजे पर पहुँचे कि पंडितजी ने सामने से कहा, “मैं आप महानुभावों के आने का प्रयोजन जानता हूँ। आप एक समर्थ विद्वान्, समर्पित समाजसेवी महापुरुष का अनुष्ठान करवाने आए हैं; लेकिन ७ जून के पश्चात् मुझे उनका जीवन नहीं दिखता है। वे महात्मा हैं। उनका पुनर्जन्म भी नहीं है। वे मोक्ष के अधिकारी हैं। वे परमहंस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं।
—प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की पुस्तक ‘सेतुबन्ध‘ डाउनलोड करें
श्री गुरुजी देह रूप नहीं, कर्म रूप थे एक तरह से काया माया से दूर थे। अपनी बीमारी के समय में भी वे अपने आस-पास प्रसन्नता बिखेरते रहते। जीवन के अंतिम क्षणों में भी मिलने आनेवालों के साथ उनकी बातें देश, समाज, संघ के साथ ही जुड़ी रहती थीं।
देश भर के महापुरुषों ने इस महापुरुष को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। हैदराबाद के ‘द डेक्कन क्रॉनिकल’ ने लिखा था- “स्वामी विवेकानंद की तरह वे भी भारत की आत्मा की साकार मूर्ति थे।”
‘नवभारत टाइम्स’ लिखा था, “विचार और आदर्शों में मतभेद रखनेवाले लोग भी स्व. गुरु गोलवलकर जी के जीवन की निस्पृहता, तेजस्विता, त्याग और तपस्या को सहृदय स्वीकारते हैं। इन गुणों का हमारे राष्ट्रीय जीवन में से लोप हो रहा है। आदर्शों की व्यक्तिगत साधना आज के सैकड़ों विचारकों के हाथ में उपहास का विषय बन रही है; किंतु यह एक ऐतिहासिक निर्विवाद सत्य है कि कोई भी राष्ट्र एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में तब तक परिवर्तित नहीं हो सकता, जब तक उसमें उन गुणों का समावेश नहीं हो जाता, जो श्री गोलवलकर जी के जीवन में दृष्टिमान थे। इन महान् गुणों के समक्ष धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्रवादी जीवन दर्शन की चमक फीकी पड़ जाती है।”
‘हिंदुस्तान’ ने लिखा था- “गुरु गोलवलकर जी का जीवन श्रेष्ठ समर्पण का एक उज्ज्वल उदाहरण है। ध्येय के लिए जीने के लिए अपने दैनिक जीवन में जो संयम, संकल्प शक्ति और कष्ट सहन करने की शक्ति अपेक्षित होती है – गुरुजी में वे गुण संस्कारगत थे। भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों की तरह उन्होंने अपनी संपूर्ण सार्थकता को निचोड़कर एक कुशल रसायनशास्त्री की तरह उसका उपयोग किया। साधना और सिद्धि में से उन्होंने साधना को ही पसंद किया, क्योंकि उनका निष्कर्ष था कि साधना ही ध्रुव शक्ति है। गुरु गोलवलकर का जीवन और उनकी राष्ट्र सेवा शुद्ध सुवर्ण जैसे पुरुषार्थ की है। सच्चरित्र उनकी तपस्या थी और राष्ट्रभक्ति उनकी निष्ठा। उनके प्रति चरित्र के संदेह का कोई अवकाश नहीं है।”
—- श्री नरेन्द्र मोदी, ज्योतिपुंज पुस्तक में
मेरु गिरि सा मन अडिग था, आपने पाया महात्मन।
त्याग कैसा आप का वह, तेज साहस शील पावन॥
मात्र दर्शन भस्म कर दे, घोर षडरिपु एक क्षण में।
शत नमन माधव चरण में॥
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