महारासलीला का लोकसन्देश

महारासलीला रासलीला महारास गंगाधर पाठक वृन्दावन श्रीरामजन्मभूमि gangadhar pathak maharaasleela

महारासलीला का लोकसन्देश

लेखक:- पण्डित गङ्गाधर पाठक ‘वेदाद्याचार्य’
मुख्याचार्य- श्रीरामजन्मभूमिशिलापूजन, अयोध्या

श्रीवृन्दावन धाम 

श्रीरामजन्मभूमि भूमिपूजन अयोध्या 5 अगस्त 2019 गंगाधर पाठक नरेन्द्र मोदी
प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि मन्दिर का शिलान्यास करवाते मुख्य पुरोहित आचार्य श्री गंगाधर पाठक

ब्रह्मादिजयसंरूढदर्पकन्दर्पदर्पहा ।
जयति श्रीपतिर्गोपीरासमण्डलमण्डनः ॥
समस्तदुस्तरव्याधिसङ्घध्वंसपटीयसे ।
अच्युतानन्दगोविन्दनाम्ने धाम्ने नमो नमः ॥

भगवल्लीला भूमि श्रीवृन्दावनधाम अनादिकाल से भगवद्रसिकों की रससिद्ध राजधानी है अखिलरसामृतसिन्धु रसिकशेखर । निखिलशृङ्गारशिरोमणि रसस्वरूप सच्चिदानन्दविग्रह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की लालित्यपूर्ण लीलाओं में अद्वितीय अनुपमेय महारासलीला स्वमाधुर्य गाम्भीर्य के कारण सर्वापेक्षया महनीय महत्त्व रखती है ।

निगमकल्पतरुविनि:सृत शुकतुण्डसंस्पृष्ट अमृतद्रवयुत वेदोपनिषद्भक्तिसारसर्वस्व श्रीमद्भागवतरूप समग्र रसमय रसालफल के रसस्वारस्य का समास्वादन भगवत्कृपया कोई महाभाग्यवान् भावुक रसिक ही कर सकते हैं, कुतर्कपङ्कविनिमग्न भगवद्भक्तिविहीन बुद्धिवादी नीरस महाशयों का चञ्चुप्रवेश कथमपि सम्भव नहीं । भगवद्वाङ्मयविग्रहस्वरूप समाधिजन्य रसिकधन श्रीमद्भागवत की रसमयी भाषाशैली, माधुर्य, गाम्भीर्य और ज्ञान-भक्ति का पूर्णत्व अद्भुत है; जो “स्वादु स्वादु पदे पदे” तो है ही, साथ ही “विद्यावतां भागवते परीक्षा” से इसका मर्म्मबोध केवल भगवत्कृपासाध्य ही सिद्ध होता है । उसमें भी भगवन्मयी महारासलीला का तो कहना ही क्या !

भगवान् श्रीकृष्ण की अतिरहस्यमयी गम्भीर रासलीला को सामान्य लोकदृष्टिमात्र रखनेवाले शङ्कामहोदधिनिमज्जित महाशय भौतिक कामलीला का एक जुगुप्सित रूप बताकर प्रलापमय जघन्य अपराध करते हैं । महारासलीला के आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक- इन त्रिविध स्वरूपों का मर्मप्रकाश छलप्रपञ्चकरणापाटवादिदोषरहि भगवद्भक्तिभावित शुद्धान्तःकरण में ही हो सकता है ।

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श्रीमद्भागवतादि का रासलीलाविलास भगवान् का दूषण नहीं, अपितु विभूषण है और पूर्णावतार का ही एक गूढ़तम लक्षण है । जिस सद्विग्रह के द्वारा अचिन्त्यानन्त भगवान् की सम्पूर्ण कलाशक्तियों का प्राकट्य हो, वही पूर्णावतार है; भगवान् श्रीकृष्ण का पूर्णावतार तो ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्” से सिद्ध है ही ।

सच्चिदानन्दरूप भगवान् श्रीकृष्ण की पूर्णरूप से रहनेवाली सत् शक्ति का सम्बन्ध कर्म से, चित् शक्ति का सम्बन्ध ज्ञान से और आनन्द शक्ति का सम्बन्ध उपासना से है । जिस अवतार के चरित्र में कर्म, उपासना और ज्ञान- इन तीनों आदर्शों का प्राकट्य पूर्णतया हो, वही पूर्णावतार होता है । भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन में ये तीनों आदर्श पूर्णत: प्रकट थे । कर्म का पूर्ण आदर्श महाभारत के धर्म्मयुद्ध में, ज्ञान का पूर्ण आदर्श श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश में और उपासना का पूर्ण आदर्श रासलीला में ही प्रकट हुआ था रासलीला के अभाव में भगवान् श्रीकृष्ण का पूर्णावतार सिद्ध नहीं हो पाता। महाभारत के कर्म्मप्रधान ग्रन्थ होने से उसमें रासलीला की उपयोगिता नहीं थी, परन्तु उपासनाप्रधान श्रीमद्भागवत में कर्म्मजीवन को गौण रखकर भगवान् श्रीकृष्ण के उपासनामय भावों का परमोदात्त वर्णन किया गया है । कर्म्मप्रधान महाभारतादि विविध ग्रन्थों के लिखने पर भी श्रीकृष्णद्वैपायन भगवान् वेदव्यास के अन्तःकरण में यथार्थ शान्ति और आनन्द की अनुभूति नहीं हुई, तब उन्होंने भक्तिरसपूर्ण श्रीमद्भागवत का प्रणयन करके शान्ति और लोकोत्तर आनन्द प्राप्त किया । इसलिये रासलीला या श्रीकृष्णबाललीला के प्रकाशन में श्रीमद्भागवत का स्थान सर्वोपरि है । महारासलीला कोई साधारण कामलीला नहीं, अपितु चरमभक्ति की मर्म्ममयी लीला है ।

श्रीवृन्दावनधाम में प्रकट हुई महारासलीला का रहस्यमय आधिभौतिक भी उच्चकोटि का सुव्यवस्थित लोकसन्देश है । यह स्वरूप भगवत्प्रेमसमर्पित भक्त गोपियों के भक्तिमय जीवन की अलौकिक उदात्ततम लीला है । गोपियाँ सामान्य स्त्रियाँ नहीं थीं, भगवदिच्छानुसार “गोप्यो गाव ऋचः” श्रुतियों एवं देवाङ्गनाओं ने ही गोपियो एवं गायों का रूप धारण किया था ।

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महारासलीला में सम्मिलित होने के लिये व्रजाङ्गनाओं ने तीव्र साधना और भगवती कात्यायनी की आराधना उपासना करके स्वयं को भगवद्भोग्या होने की योग्यता प्राप्त कर ली थीं । देवताओं के अंशावतार होने के पश्चात् भी मानवीय स्थूलशरीर की उपाधि से वे अपने देवत्व को विस्मृत कर चुकी थीं । भगवान् श्रीकृष्ण ने जब शरत्पूर्णिमा की दिव्यनिशा में महारासलीला का लोकोत्तर अभिनय करना चाहा, तब अपनी वंशी से “जगौ कलं वामदृशं मनोहरम्” भक्तचित्ताकर्षक कामबीज “क्लीं” का मनोहर सन्निनाद किया; जिससे स्त्रीभावापन्न दिव्यात्मायें जागृत हो उठीं और भगवान् के समीप आ पहुँचीं । साधना-आराधना से प्राप्त अधिकारवाली दिव्याङ्गनाओं पर ही इस कामबीजध्वनि का प्रभाव पड़ सकता था, इसलिये केवल सिद्ध गोपियाँ ही आई । गोपियों भगवान् के वंशीरव का श्रवणकर संसार से विरक्त हो, असह्य कष्टों को उठाती हुई, पराभक्ति को प्राप्त करके किस प्रकार सर्वत्र विराजमान आनन्दकन्द सच्चिदानन्दघन व्रजेन्द्रचन्द्र भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर मनोहर मूर्ति को देखी थीं, इसी का वर्णन रासलीला में है । यथा

निशम्य गीतं तदनङ्गवर्द्धनं
व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः ।
आजग्मुरन्योऽन्यमलक्षितोद्यमाः
स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ॥

श्रीकृष्ण के कामविवर्द्धक वंशीरव को सुनकर व्रजाङ्गनायें समाकृष्ट होती हुई परस्पर को छिपाकर भगवान् समीप पहुँच गयीं । साक्षान्मन्मथमन्मथ निरुद्धवीर्य आत्माराम योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने “आत्मन्यवरुद्धसौरतः” कामभाव को दबाकर विविध मनोहर रूपों से लोकोत्तर रमण किया। सम्पूर्ण महारासलीला के दिव्यातिदिव्य प्रकरण में भगवान् के लिये जितने विशेषणों का प्रयोग किया गया है, उनसे परमात्मा श्रीकृष्ण में कथमपि कामभाव की कुति कल्पना नहीं की जा सकती ।

श्रीविष्णुमहापुराण के अनुसार भी श्रीकृष्ण ने एकान्त में अधिकारिणी स्त्रियों को मनोमुग्ध कर देनेवाला मधुर कलनिनाद किया था, जिसे सुनकर गोपियाँ तत्काल ही श्रीभगवान् के पास चली आयीं थीं —

विना रामेण मधुरमतीव वनिताप्रियम् ।
जगौ कलपदं शौरिस्तारमन्द्रकृतक्रमम् ।।
रम्यं गीतध्वनिं श्रुत्वा सन्त्यज्यावसथांस्तदा ।
आजग्मुस्त्वरिता गोप्यो यत्रास्ते मधुसूदनः ॥

कामबीज का यह भगवन्निनाद सकल लोककामना की परिसमाप्ति का ही सूचक है । भगवान् का वंशीरव अपूर्व है, उसकी मधुरता कई स्वरों के मिलने से प्रकट होती है । वंशी में अनेक रन्ध्र हैं, जिनसे विभिन्न शब्द निकलते हैं; परन्तु उन सबके सम्मिश्रण से ही एक सुमधुर शब्द निकलता है- यानी वंशीध्वनि का माधुर्य कई रसों के मिलन का फल है ।

वस्तुतः भगवान् “रसो वै सः ” रसस्वरूप हैं । भगवद्रस ही प्रकृति के द्वारा व्याप्त होकर संसार में कहीं प्रेमरूप से, कहीं कामरूप से, कहीं स्नेहरूप से, कहीं वात्सल्यरूप से, कहीं श्रद्धारूप से और कहीं भ आदि रूप से विराजमान है । एक ही अद्वय ब्रह्मरस को काम, प्रेम, स्नेह, श्रद्धा आदि बहुत रस बना देना और जीव को उन रसों के द्वारा संसार में बाँध डालना- माया का कार्य है । तबतक ही जीव सांसारिक विभिन्न मोहरसों में समाकृष्ट चित्त हो आनन्दानुभव करता है, जबतक भगवान् की कृपा से उसका मोहमायावरण भङ्ग नहीं हो जाता ।

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संसार के जितने रस हैं वे भगवद्रस ही कोट्यश, अर्बुदांश हो सकते हैं । भगवत्कृपा से इसका ज्ञान भान होनेपर सम्पूर्ण द्वैतजगत् के प्रेम के मूल के एक ‘ही अद्वय प्रेमरस का समास्वादन होने लगता है, तब भाग्यवान् जीव समस्त जगत्प्रपञ्च का परित्याग कर एक भगवद्रस में ही मुग्ध होता हुआ भगवान् का प्रेमिभक्त बन जाता है । भगवद्वंशीनिनादित कामबीज के श्रवण से सकलकामनानिवृत्त गोपियों ने भी संसार के समस्त क्षणिक प्रेम को छोड़कर वैराग्यवती हो भगवान् की शरण ले ली थीं संसार से विरक्ति और भगवत्प्रेमासक्ति भी तभी होती है जब स्नेह, प्रेम, कामादि रसों में एक ही भगवान् का आनन्दरस दीखे, तब जीव “श्रीकृष्णः शरणं मम” के अतिरिक्त कुछ नहीं देखता । भगवान् श्रीकृष्ण ने वंशी से सब रसों के मेल से गोपीचित्ताकर्षक कामबीज का मनोहर नाद निकाला था, तब तो गोपियों को वैराग्य होना और संसार छोड़कर भगवान् के चरणकमल की शरण लेना- भक्ति का ही स्वाभाविक उदात्त भाव था भगवान् ने वंशीध्वनि के द्वारा । कामविजयलीला में उन गोपियों को बुलाया और उनके साथ दिव्य रमण कर उनकी इच्छा पूरी की भगवान् का वंशीनाद “अनङ्गवर्द्धन” यानी परमात्मा के आनन्द में मग्न होने की कामना को बढ़ानेवाला है ।

भगवान् अनेक प्रकार से साधक के दृढ़ता की परीक्षा भी लेते हैं, जो श्रीमद्भागवत के महारासलीला प्रकरण में भी बृहद्रूपेण द्रष्टव्य है भगवान् पहले तो गोपियों को संसार के कौटुम्बिक मोहचक्र में बँधे रहने के लिये अनेक मधुमय उपदेश देते हैं, परन्तु गोपियों की दृढ़ भक्ति भावप्रवणता के सामने भगवान् का प्रापञ्चिक उपदेश उन्हें भगवत्प्रेम और भगवत्सन्निधान से पृथ नहीं कर सका । गोपियाँ भगवान् की परीक्षा में सफल हो गई ।

वे “अन्योऽन्यमलक्षितोद्यमाः ” परस्पर को छिपाकर गुप्त रूप से भगवान् के पास आयीं थीं, इससे उनके पूर्ण वैराग्य का भाव स्पष्ट हो जाता है । मुमुक्षु जीव जब संसार से विरक्त हो आनन्दस्वरूप भगवान् के अन्वेषण में निकलता है, तब गुप्त रूप से ही; संवादपत्रों में प्रकाशित करके नहीं । भगवदनुरागिणी गोपियाँ पति, पिता, भ्राता, बन्धु आदि के मना करने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति एकतानमना हो सर्वप्रपञ्च का परित्याग कर भगवदाश्रय में चली आयीं । मुमुक्षु के चित्त में जब तीव्र वैराग्य हो जाता है, तब वह संसार के सभी कामों को अधूरा ही छोड़कर परमानन्दघन की शरण में चला जाता ।

महा रासलीला महारास गंगाधर पाठक वृन्दावन श्रीरामजन्मभूमि gangadhar pathak maharaasleela

निश्चित ही धर्म के मार्ग में अनेक प्रकार की मधुमयी बाधायें आती हैं । मायारूपिणी रात्रि में क्रूर जन्तुरूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि रूपी शत्रु विरक्तों को भी बहुत सताया करते हैं । ये शत्रु पुनः उन्हें संसारसागर में ढकेल देना चाहते हैं जो महात्मा इन सब बाधाओं का तिरस्कार कर धर्मपथ में दृढ़ता से अग्रसर हो सकते हैं, “तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः” उन्हीं को अन्ततः परमानन्दमय ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है ।

गोपियों को भी भगवान् ने विविध प्रकार से इहलोक और परलोक का भय दिखाया था, परन्तु भगवत्प्रेमानुरक्त गोपियों ने श्रीकृष्णशरणागति का परित्याग नहीं किया । वास्तव में भगवान् ही समस्त प्राणियों के आत्मा और बन्धु आदि हैं, पुनः गोपियों के लिये कोई गार्हस्थ्य कर्तव्य अवशिष्ट नहीं रह सकता । भगवान् ने गीता में स्वयं ही आहूत किया है “सर्वधर्म्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” साधारण गार्हस्थ्यादि सब धर्मों या कर्तव्यों का परित्यागकर मुझ अद्वितीय परमात्मा की शरण में आ जा । यदि साधारण धर्म के त्याग से कुछ पाप की सम्भावना होगी, तो चिन्ता मत करो; मैं उन सभी पापों से तुम्हें मुक्त कर दूँगा गोपियों ने परीक्षा में उत्तीर्ण होकर भगवान् के इसी सत्यसिद्धान्त को चरितार्थ किया था, फलत:-

इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः ।
प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोऽप्यरीरमत् ।।

योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने कान्तभाव से प्रेम करनेवाली गोपियों के समर्पणबुद्धियुक्त विविध वाक्यों को सुनकर स्वस्वरूप में अवस्थित होते हुए गोपियों को सब प्रकार से सन्तृप्त किया । भगवदुपलब्धि के उत्तरकाल में यदि कदाचित् साधक मान या अहंकार उत्पन्न हो जाय तो भक्तवत्सल भगवान् किञ्चित् दण्ड अन्दर में दिखाकर भक्त की उन्नति में बाधारूप अभिमान या अहंकार को विनष्ट करके भक्तिपथ को निष्कण्टक बना देते हैं गोपियों में भी यह विकार उत्पन्न हो गया था, भगवान् ने —

“तासां तत्सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ||”

गोपियों के सौभाग्य के मद और मान को देखकर उसे नष्ट करने के लिये भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये । यद्यपि गोपियाँ देवियाँ थीं, तथापि मायामय शरीर का प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक ही था । श्रीभगवान् के सहसा छिप जाने से गोपियाँ अत्यन्त व्याकुल हो उच्चस्वर से रुदन करते हुए सर्वत्र व्यापक भगवान् श्रीकृष्ण को ढूँढ़ने लगीं । गोपियों की इस अवस्था को भक्तानुताप अवस्था कहते हैं, शास्त्रों में इसकी बड़ी महिमा है । इस प्रकार के अनुताप के अश्रुद्वारा ही भक्त के अन्तःकरण का समस्त दोष धुलकर चित्त निर्मल हो जाता है, जिससे भक्त के हृदयसिंहासन पर भगवान् आसीन हो सकते हैं। योगदर्शन में भी कहा गया है- “तीव्रसंवेगानामासन्नतमः” श्रीभगवान् के प्रति भक्त के द्रुतचित्त का तीव्र वेग ही अतिशीघ्र श्रीभगवान् का दर्शन करा सकता है । गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के भाव में तन्मय हो गई और भगवान् के बाललीला आदि का अभिनय करने लगीं । इस प्रकार लीलापुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ने लोकोत्तरलीला द्वारा गोपियों को अप्राकृत विशुद्धप्रेमामृत का पान कराया ।

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इन रहस्यों से सिद्ध होता है कि श्रीमद्भागवतादि में वर्णित रास केवल रूपक या कल्पना नहीं है, यह सर्वथा सत्य है और उक्त वर्णन के अनुसार ही मिलन विलासादिरूप शृङ्गार का समास्वादन भी हुआ था । यह अप्राकृत नायक नायिका का दिव्य संयोग था। इसके नायक थे सच्चिदानन्दविग्रह परात्पर पूर्णतम परब्रह्म स्वाधीन स्वेच्छाचारी व्रजेन्द्रनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और नायिका थी- श्रीकृष्णप्राणाधिष्ठात्री ह्लादिनीशक्तिरूपा स्वयं भगवती राधा और उनकी कायव्यूहरूपा गोपियाँ । इस अप्राकृत दिव्यलीला में प्राकृतकाम वासनाओं का कोई स्थान नहीं है । गोपियाँ नाना प्रकार की मनोवृत्तियाँ हैं, जो अधोमुखी होकर व्यवहार का निर्वाह करती हैं और ऊर्ध्वमुखी होकर भगवान् का सान्निध्यलाभ करती हैं तथा अलौकिक आनन्द से जीव को तृप्त कर उसका भी जीवन धन्य कर देती हैं। जीव का सर्वात्मसमर्पण ही भगवान् के इस महारासलीला विलास का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है | शुभमिति दिक् ।

— पण्डित गङ्गाधर पाठक ‘वेदाद्याचार्य’ —
मुख्याचार्य:- श्रीरामजन्मभूमिशिलापूजन, अयोध्या

मार्गदर्शक:-  श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पञ्चाङ्गम्, जयपुर  

श्री कृष्ण के जीवन में बसा है संसार का हर रूप.

श्रीमद्भागवत व अन्य पुराणों की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता

उपरोक्त लेख आदरणीय लेखक की निजी अभिव्यक्ति है एवं लेख में दिए गए विचारों, तथ्यों एवं उनके स्त्रोत की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु The Analyst उत्तरदायी नहीं है।

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