मेधा, कौतूहल, जिज्ञासा का अर्थ और झुण्ड प्रवृत्ति

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मेधा ऋषि यज्ञ मन्त्र

मेधा और झुण्ड

“जो धर्म की रक्षा करता है,धर्म उसकी रक्षा करता है ।”

धर्म का अर्थ है वैदिक यज्ञ,अर्थात् वैदिक कर्म का काण्ड । धर्म के दस लक्षण हैं — धृति क्षमा दम अस्तेय शौच इन्द्रियनिग्रह धी विद्या सत्य अक्रोध । किन्तु ये सब तो केवल लक्षण हैं जिनके आधार पर हम पहचान सकते हैं कि अमुक कर्म को धर्मसम्मत मान सकते हैं वा नहीं । धर्म स्वयं में क्या है?यज्ञ । यज्ञ को ही मेध भी कहते हैं । मेध की बुद्धि को मेधा कहते हैं ।

पोथी पढ़ने से मेधा नहीं मिलती । वेद को लिखा भी नहीं जा सकता । पोथी तो मैक्समूलर ने भी छाप दी,किन्तु वेद उसके पल्ले नहीं पड़ा । वेद पल्ले पड़े इसके लिये मेधा होनी चाहिये । मेधावी ही मेध हेतु सक्षम है ।

मेधावी केवल व्यक्ति हो सकता है,झुण्ड नहीं । झुण्ड का नेतृत्व यदि मेधावी अथवा मेधावियों के पल्ले हो तब वह झुण्ड नहीं रहता,तब उसे संगठन कहते हैं । वरना संग रहने वालों में भी आपस में ही ठन सकती है । अपने ही गोल में गेन्द डाल देंगे!

जिस व्यक्ति की जन्मकुण्डली में नेतृत्व करने वाली मेधा हो वह झुण्ड को संगठन में बदल सकता है । वरना विनय झा की तरह फेसबुक पर प्रलाप करता रहेगा जिसपर लोग लाइक ठोकते रहेंगे परन्तु कोई संगठन नहीं बनेगा । और विनय झा को यदि कोई बात आती भी है तो वह बात उसके साथ ही चली जायगी,जैसे कि विनय झा से बहुत बड़े ज्ञानियों की बातें भी उनके साथ ही चली गयीं,युगचक्र सत् से कलि की ओर लुढ़कता रहा । सच्चे ब्राह्मणों की बात मानने वालों आर्यों का समाज धूर्तों के नेतृत्व में घिसियाने वाले झुण्डों में परिणत होता रहा ।

अब तो मेध का अर्थ भी धूर्तों ने बदल दिया है । अश्वमेध का अर्थ बताते हैं घोड़े की हत्या । ताकि गोमेध यज्ञ में गोवध कर सकें और गोमांस को वैदिक यज्ञ की हवि कहकर खा सकें । गोपूजक हिन्दू जनता को पता नहीं है कि सभी संस्कृत विश्वविद्यालयों के वेद−विभागों में अश्वमेध और गोमेध के यही अर्थ आज पढ़ाये जाते हैं;गोपूजक हिन्दू जनता को इस बात का पता चल जाय कि संस्कृत विश्वविद्यालयों में ऐसी बातें पढ़ायी जाती हैं तो वैदिक आचार्यों की खैर नहीं । इस पाप का ठीकरा अंग्रेजों पर फोड़ना अनुचित है,प्राचीन वेद−भाष्यों में केवल ऐसी ही बकवास भरी हैं । प्राचीनतम वेदभाष्य भी उस काल में लिखे गये थे जिसे हिन्दू−संस्कृति का अन्धयुग कहा जाता है,जिस युग के अनाचार के फलस्वरूप हिन्दूजाति को दीर्घकालीन दासता झेलनी पड़ी । अभी भी दासता का ही युग है,अन्तर यही है कि रेगिस्तानी और समुद्री डाकुओं के बदले अब देसी डाकुओं की दासता झेलनी पड़ रही है जो अपने को कभी जनेऊधारी तो कभी रामभक्त वा दुर्गाभक्त हिन्दू कहते हैं किन्तु सनातन धर्म से कोसों दूर हैं ।

आज भी चाण्क्य और चन्द्रगुप्त वाली मेधा के लोग जन्म लेते हैं,किन्तु अब उनके मार्ग पर चलने वाले साथी नहीं मिलते जो समाज को धर्म पर चला सकें । अतः मेधा को एकान्त में तप करने और निजी मोक्ष का प्रयास करने के सिवा कोई विकल्प नहीं मिलता । झुण्ड को मेधा नहीं चाहिये,क्योंकि झुण्ड का नारा है —

“हमारा नेता कैसा हो?जो हमारे जैसा हो!”

ब्राह्मण झुण्ड,राजपूत झुण्ड,ओबीसी झुण्ड,दलित झुण्ड,कैथॉलिक झुण्ड,सुन्नी झुण्ड,तालिबानी झुण्ड,कम्युनिष्ट झुण्ड,भगवा झुण्ड!झुण्ड ही झुण्ड!केवल झुण्ड ही झुण्ड!

कुछ लोग गलत अर्थ लगायेंगे कि कम्युनिष्ट झुण्ड और भगवा झुण्ड को मैंने एक साथ क्यों रख दिया । एक साथ रखने का कारण यह है कि कम्युनिष्ट और भगवा में आकाश पाताल का अन्तर होने के बावजूद ये दोनों “झुण्ड” हैं जिनका नेतृत्व भी झुण्डवृति वाले तथाकथित नेता ही करते हैं,क्योंकि नेता धार्मिक हों तो उनके पीछे झुण्ड नहीं रहेगा ।

“झुण्ड” कम्युनिष्ट हो या भगवा,अन्ततः खाई में ही गिरना है । कम्युनिष्ट झुण्ड को कम्युनिष्ट खाई में गिरना है और भगवा झुण्ड को भगवा खाई में!खाई में गिरने के बाद भी अलापेंगे कि खाई है तो क्या हुआ,भगवा रङ्ग की खाई है!

अधर्म का रङ्ग भगवा तो है!यह नहीं सोचेंगे कि “भगवा” शब्द बना है “भगवत्” से और इसका रङ्ग संन्यास अर्थात् ज्ञानकाण्ड का प्रतीक है । ज्ञानकाण्ड का अर्थ है आत्मज्ञान । जहाँ वास्तविक भगवा हो वह खाई में जा ही नहीं सकता ।

“आर्य” और “समाज” एक दूसरे के विलोम हैं । जहाँ समाज है वहाँ आर्यधर्म नहीं । (“समाज” एक आधुनिक शब्द है जिसका प्राचीनतम उल्लेख भी कलियुग का ही है — अशोक मौर्य का शिलालेख,और उस शिलालेख में इसका अशुभ अर्थ है जिस कारण समाज का निषेध करने की आज्ञा अशोक ने दी ।)

समाज बनता है विभिन्न संगठनों से । संगठनों का सञ्चालन होता है उनके अपने−अपने विधानों से । उदाहरणार्थ,सेना भी एक संगठन है । सेना का अपना विधान होता है । त्रेता और द्वापर युगों में भी आर्यों की सेना के अपने विधान होते थे । किन्तु एक अन्तर था — राम या कृष्ण ही नहीं बल्कि अर्जुन जैसे व्यक्ति भी स्वयं परिस्थति के अनुसार विधान बनाते थे जिसका पालन पूरी सेना करती थी । अब न तो वैसी सेना है और न वैसे मेधावी ।

मेध से मेधा बनती है । अतः मेध करें । मेध के अनेक प्रकार है । पूरे समाज के लिये सामूहिक मेध का नाम है “हिन्दू−संस्कार” । जो झुण्ड इसे जीवन में उतारे वह झुण्ड नहीं रहता,आर्यसमाज बन जाता है ।

देश और समाज के लिये जो सबसे अच्छा लगे उसे वोट दें । किन्तु उसकी बात अपने जीवन पर लागू न करें । अपने जीवन पर महर्षि वेदव्यास जी के धर्म को लागू करें । कलियुग के लिये महर्षि वेदव्यास जी अन्तिम प्रमाण हैं,वे अन्तिम वैदिक ऋषि पराशर जी के पुत्र हैं । इसी में आपका व्यक्तिगत कल्याण भी है और धार्मिक समाजों का भी । जो समाज धर्म पर न चले उससे बचकर रहें — कम से कम दो गज की दूरी!

कौतुहल और जिज्ञासा में अन्तर

किसी विषय को सीखने की योग्यता की दो पूर्वशर्तें हैं — मेधा और जिज्ञासा । कौतुहल उस योग्यता में बाधक है क्योंकि कौतुहल मन का विचलन है । माया के कौतुकों का आकर्षण ही कौतुहल है । माया से वैराग्य लेकर सच्चे ज्ञान को पाने की ईच्छा ही जिज्ञासा है । मेधा मन की स्थिरता (योग) से प्राप्त होती है और तब सही जिज्ञासा उत्पन्न होती है । मन का विचलन वासनाओं का प्रतिफल है । पूर्वकर्मों द्वारा जनित अनन्त वासनायें ही कौतुहल पैदा करती हैं । मन की स्थिरता की पहली शर्त है एक वर्ष का अखण्ड ब्रह्मचर्य (एक वत्सर में ब्रह्म का वत्स बनने की योग्यता मिलती है) । ब्रह्मचर्य मूर्ख को भी मेधावी बना देता है ।
किन्तु मूर्ख को ब्रह्मचर्य का लाभ ईश्वर भी नहीं समझा सकते,जबतक ठोकर खाकर स्वयं समझने का सच्चा प्रयास न करे ।
मेधा मेध से उत्पन्न होती है,देव को हवि का अशन करा सके ऐसे द्रुत (अश्)
निर्बाध यज्ञ ( = मेध) को अश्वमेध कहते हैं ।

( बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार अश्वमेध का वह अश्व सर्वव्यापी ब्रह्म है । अश्वमेध का यह अर्थ महर्षि याज्ञवल्क्य का है । सायणाचार्य ने अश्वमेध का अर्थ रावण के मायावी दुष्ट भाष्य से लिया था क्योंकि सायण को पता नहीं था कि रावण ने कितनी धूर्तता से वेदभाष्य में आसुरी कलुष जोड़ा । आज भी हमारे संस्कृत विषविद्यालयों में अलग−अलग नामों से रावणभाष्य ही पढ़ाया जाता है जिसमें गोवध,नरवध और अश्व के साथ रानी का यौन सम्बन्ध जैसी अश्लील और धर्मविरोधी बकवास हमारे वैदिक पढ़ाते हैं । सम्पूर्ण महायुग में रावण जैसा तीव्रबुद्धि धूर्त न हुआ और न होगा । )

ज्ञान का अन्त नहीं,अतः ब्रह्म के सिवा कोई ज्ञानी नहीं । ऋग्वेद में उसे नेति नेति कहा गया । जहाँ ज्ञान का पड़ाव आ जाय वहीं से मूर्खता आरम्भ होती है । मूर्खता का आरम्भ है कौतुहल,जो द्वार है अन्य समस्त पापों का ।

वैदिक दर्शनों,विशेषतया योगदर्शन,की शास्त्रीय शब्दावली में समाधि से भिन्न अवस्था को व्युत्थान कहते हैं जिसके अनेक भेद हैं । ऐन्द्रिक जगत के कौतुकों में चित्त का भटकाव कौतुहल है जो व्युत्थान के अनेक भेदों में से एक है । उपनिषदों के अनुसार चित्त की पचास प्रवृत्तियाँ हैं जिन सबके नाम उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि बहुत से प्राचीन ग्रन्थ अब नहीं मिलते । पचास प्रवृत्तियों में से प्रमुख क्लिष्ट मलों के नाम योगसूत्र में हैं किन्तु क्लिष्ट मलों में कौतुहल नहीं आता । अतः योगदर्शन की भावना को ध्यान में रखकर कौतुहल को भटकाव का आरम्भ मैंने कहा है जिसमें विपरीत अश्वत्थवृक्षरूपी संसार के मूल ब्रह्म की ओर न होकर विपरीत उत्थान अर्थात् ऐन्द्रिक फुनगियों की ओर व्युत्थान आरम्भ होता है । ब्रह्म की ओर प्रवृति का आरम्भ जिज्ञासा है,उससे विपरीत प्रवृति व्युत्थान है जिसका आरम्भ कौतुहल है ।

प्रारब्ध के पाश से जो बँधा रहे उसे पशु कहते हैं,जिसका मन उदित (उष्) हो वह मनुष्य है । पाश तोड़ने का साधन है पुरुषार्थ जिसका क्रम है धर्म,फिर अर्थ,तब काम,और अन्ततः मोक्ष । कुछ मूर्ख अर्थ लगाते हैं कि चारों की पूर्ति अनिवार्य है । ब्रह्मसूत्र का आदेश है कि वैराग्य उत्पन्न होते ही संन्यास ले लेना चाहिये । मन में वैराग्य हो तो गृहस्थ बने रहना मूर्खता ही नहीं ,पाप है । वैराग्य न हो तो संन्यास लेना पाप है ।

ज्ञान का लक्ष्य मोक्ष है । जिस किसी कर्म वा अवस्था का लक्ष्य मोक्ष नहीं वह अविद्या है । धर्म (यज्ञ) भी अविद्या है । किन्तु कर्मकाण्डरूपी धर्म द्वारा ही मोक्ष के द्वार को खोला जा सकता है । प्राणायाम आदि भी कर्मकाण्ड के अङ्ग हैं । शतपथ ब्राह्मण का आदेश है कि यज्ञ आरम्भ होते ही यजमान संकल्प ले कि मनुष्य असत् है और देवता सत्,अतः यज्ञ समाप्त होने तक यजमान देवत्व में स्थित रहेगा ।

— आचार्य विनय झा 

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उपरोक्त लेख आदरणीय लेखक की निजी अभिव्यक्ति है एवं लेख में दिए गए विचारों, तथ्यों एवं उनके स्त्रोत की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु The Analyst उत्तरदायी नहीं है।

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