बेल्जियन स्कॉलर Koenraad Elst ने 1992 में एक किताब लिखी है जिसका शीर्षक Negationism in india: Concealing the record of islam है। इसका विस्तृत संस्करण 2014 में आया और 2016 में पुनः प्रकाशित हुआ । यह पुस्तक मुख्य रूप से सीताराम गोयल की किताब Hindu Temples: What Happened To Them in 2 volumes के review के रूप में लिखी गयी थी। गोयल ने अरबी,उर्दू और अंग्रेजी में उपलब्ध हज़ार सालों के इस्लामी स्रोतों से ही एकत्र करके दो हज़ार से अधिक मंदिरों के विध्वंस की विवरणों समेत प्रमाणित संदर्भ सूची बनाई है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह कोई सम्पूर्ण सूची है। इसके बारे में श्री गोयल लिखते हैं कि अल-बिलाधूरी से शुरू करके, जिसने नवीं सदी के उतरार्द्ध में अरबी में लिखा था, सैयद महमुदल हसन, जिन्होनें बीसवीं सदी के चौथे दशक में अंग्रेजी में लिखा, इन ग्यारह सौ सालों में फैले हुए अस्सी इतिहास पुस्तकों से संदर्भ एकत्र किए गए हैं।
संदर्भ सूची में 61 शासकों, 63 सैनिक सरदारों और 14 सूफ़ियों द्वारा 154 स्थानों में पश्चिम में ख़ुरासान से लेकर पूर्व में त्रिपुरा तथा उत्तर में ट्रांस ओक्सियाना से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक 1100 सालो में बड़े और छोटे हिन्दू मंदिरों के विध्वंस का उल्लेख है। अधिकांश मामलों में मंदिरों को तोड़ कर मस्जिद, मदरसे और खानकाह आदि बनाये गए और प्रायः तोड़े गए मंदिर की सामग्री से ही। हर बार अल्लाह का शुक्र अदा किया गया जिसने इन मूर्तिभंजकों को इस पवित्र कृत्य द्वारा मजहब की सेवा करने योग्य बनाया । इन नायकों में कुछ नाम बार बार आये हैं, जैसे- मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनी, इल्तुतमिश, अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज शाह तुगलक, अहमद शाह प्रथम, गुजरात का महमूद बेगधा, सिकंदर लोदी और औरंगजेब।
विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार Will Durant ने अपनी विख्यात पुस्तक History of civilization में यह अकारण नहीं लिखा कि भारत मे इस्लामी अभियान इतिहास की सबसे खूनी दास्ताँ है । Elst ने लिखा है कि, “बुद्धजीवियों एवम इतिहासकारों का एक वर्ग मानवता के विरुद्ध किये गए अपराध को अस्वीकार करता है और ऐसे बुद्धजीवियों को Negationist या नास्तिवादी कहा जाता है।” पश्चिम देशों में ऐसे बुद्धजीवी हैं जो हिटलर द्वारा यहूदियों के सामूहिक संहार को येन केन प्रकारेण अस्वीकार करते हैं, या कम करके बताते हैं अथवा इस संहार को न्यायसंगत भी ठहराते हैं। ये अलग बात है कि ऐसे नास्तिवादी बुद्धजीवियों को सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा समर्थन नही मिलता तथा प्रमुख विचारधारा में स्थान नहीं मिलता है। यहाँ तक कि फ्रांस और जर्मनी में Anti Negationist Law (नास्तिवादी निषेध अधिनियम) भी पारित किया गया है।
प्रमुख Holocaust denier में Eric Thomson, Ernst Zundel,Germar Rudolf, Siegfried Verbeke, Gabriel Cohn Bendit, Robert Faurisson, Noam Chomsky आदि हैं। David Irving Holocaust denier तो नही हैं, परन्तु उनके अनुसार Holocaust हिमलर द्वारा किया गया था, और हिटलर को इस बात की जानकारी नहीं थी। पश्चिमी के नव वामपंथी भी नास्तिवादी ग्रुप में शामिल हो जाते हैं जब वे इस अपराध को मात्र पूंजीवाद की Extreme Phase कह कर अलग हो जाते हैं और पश्चिम में वर्जित विषय जिसमें मरने वाले यहूदियों की संख्या के संबंध में है, उसको कम करके बताते हैं।
Elst ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि भारतवर्ष में जितनी मुखरता से नास्तिवाद प्रचलित है , वैसा अन्यत्र नहीं है। इस्लाम की विध्वंसक भूमिका के अस्तित्व को अस्वीकार करने की नास्तिवादी (Denial of Jehad) परम्परा लगभग 1920 से शुरू हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा 1931 में कानपुर में हुए दंगे के बाद इस्लाम की नकारात्मक भूमिका को अस्वीकार कर इस्लाम की इमेज को बदलने का प्रयास किया। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अलीगढ़ स्कूल के इतिहासकारों की रही , जिसमें प्रमुख रूप से मोहम्मद हबीब का नाम है। नास्तिवादी मोहम्मद हबीब द्वारा इतिहास का पुनर्लेखन किया गया और इस्लाम की विध्वंसक भूमिका को कम करने का प्रयास किया गया ।

मोहम्मद हबीब द्वारा इस संबंध में चार तर्क प्रस्तुत किये गये-
1. कोर्ट पोएट द्वारा घटनाओं को बढ़ा चढ़ाकर लिखा गया है।
2. आक्रमण का उद्देश्य धार्मिक न होकर आर्थिक था।
3. तीसरा नस्लीय कारण जिसका अर्थ यह है कि आक्रांता तुर्की थे, जो मूल रूप से असभ्य और बर्बर थे और इस्लाम के स्वरूप को समाहित नहीं कर पाए थे।
4. चौथा कारण यह था कि शरियत हिन्दू कानून से अधिक समता मूलक थीं, इसीलिए लो कास्ट के लोग स्वेच्छा से इस्लाम में धर्मांतरित हुए।
Elst ने उल्लिखित किया है कि हिंदुस्तान में मार्क्सवादियों और कट्टर मुस्लिमों का विचित्र गठजोड़ है। JNU, नास्तिवादियों का मक्का है और इसमें प्रमुख नास्तिवादी विपिन चंद्रा, के. एन. पनिक्कर, एस.गोपाल, रोमिला थापर, हरवंश मुखिया, इरफान हबीब, आर.एस. शर्मा, ज्ञानेन्द्र पांडेय, सुशील श्रीवास्तव, असग़र अली इंजीनियर तथा मुस्लिम फंडा मेन्टलिस्ट सैयद शहाबुद्दीन आदि हैं। मानवता के विरुद्ध हुए अपराध को अस्वीकार करने की इनकी तकनीक वही है, जो दुनिया के अन्य नास्तिवादी अपनाते हैं-
- ऐसे विद्वानों की निंदा करो, जिनके द्वारा दिए गए साक्ष्य असुविधाजनक हो।
- असुविधाजनक साक्ष्यों को पाठक के दृष्टि से ओझल करना
- यदि साक्ष्यों को अनदेखा करना संभव न हो तो उसके अस्तित्व को अस्वीकार किया जाए
- यदि साक्ष्य के अस्तित्व को अस्वीकार न किया जा सके, तो उसे तोड़ मरोड़ का प्रस्तुत करना।
- असुविधाजनक साक्ष्य के किसी एक हिस्से पर ध्यान केन्द्रित करके झूठा प्रमाणित कर पूरे साक्ष्य को अस्वीकार करना।
- यदि असुविधाजनक साक्ष्य को न रोक जा सके, तो विषय के अतिरिक्त अन्य मामलों को उठाना। उदाहरण के लिए होलोकास्ट को अस्वीकार करने के लिए यहूदियों की कठोरता और हिंदुओं के संबंध में अस्पृश्यता का सवाल उठाना।
- यदि फिर भी तथ्यों का सामना करना पड़े, तो पीड़ितों को ही दोषी ठहराना।
- यदि लोग फिर भी आप के उटपटांग निर्णय को अस्वीकार करें, तो उन्ही के ऊपर तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने तथा Political abuse of history का आरोप लगाना।
इस स्थिति में वास्तव में आक्रमण ही सबसे अच्छा रक्षात्मक कदम है। यह शुद्ध रूप से बौद्धिक बेईमानी है और इस स्थिति में सत्य राजनीतिक विवशता का शिकार है।
– शिवपूजन त्रिपाठी, लेखक भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के गहन जानकर एवं अध्येता हैं
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