अष्टाध्यायी (१⋅२⋅३४) का कथन है कि “जप,न्यूङ्ख तथा साम के सिवा यज्ञकर्म में एकश्रुति का पाठ किया जा सकता है” । किसी भी वेदमन्त्र में जब दीर्घ “ॐ” (वा ह्रस्व “उ” अथवा “ओ”) को जोड़ना पड़े तो उस “ॐ” को “न्यूङ्ख” कहते हैं । एकश्रुति का अर्थ है सारे स्वरों को एक ही स्वर मानकर पाठ करना । जप,न्यूङ्ख तथा साम में एकश्रुति वर्जित है । किन्तु उत्तर भारत के सारे वैदिक तथा अन्य पण्डित अब केवल एकश्रुति ही जानते हैं,सस्वर वेदपाठ की परम्परा केवल सामवेदियों में बची है जिनकी संख्या अल्प है । पाणिनी के अष्टाध्यायी के अनुसार “ॐ” का सदैव सस्वर उच्चारण ही करना चाहिये । इसका अर्थ यह हुआ कि अपनी शाखा के वेद के नियमों के अनुसार ही पाठ करना है । शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिनों को अपने प्रातिशाख्य के नियमानुसार त्रिस्वर पाठ करना चाहिये — जो अब कोई नहीं करता । अतः गलत पाठ से बेहतर है कि मौन पाठ करें । जप भी सस्वर न कर सकें तो मौन जप ही श्रेष्ठ है । किन्तु सामगान कभी भी मौन नहीं करना चाहिये,जिस कारण सामवेद का सस्वर पाठ बचा हुआ है ।
उदाहरणार्थ,गायत्री तीनों वेदों की सभी शाखाओं में है,उसमें ओंकार जोड़ने पर गायत्री मन्त्र बनता है । ओंकार के कारण गायत्री मन्त्र का मौन पाठ ही करना चाहिये वरना गलत पाठ का दोष लगेगा ।
वेद की सहस्रों शाखायें हैं,जिनमें अधिकांश लुप्त हैं किन्तु दर्जनों बची हैं । अपनी वेदशाखा के नियमानुसार ओंकार का पाठ करना चाहिये,किन्तु शुक्ल यजुर्वेद वाले भूल चुके हैं । ऋग्वेद और सामवेद वालों में सस्वर पाठ बचा है किन्तु उनकी अनेक शाखायें हैं,सबमें सस्वर पाठ के अलग−अलग नियम हैं ।अतः शुक्ल यजुर्वेद वालों को मौन पाठ ही करना चाहिये ।
“ओंकार” में “कार” हटाने पर जो बचता है वही उच्चारण है = ओम् ।
ॐ = अ+उ+म् ॥ किन्तु “अउम्” पाठ गलत है ।
ओम्” में ह्रस्व,दीर्घ अथवा प्लुत कुछ भी हो सकता है,यह मन्त्र एवं प्रयोग पर निर्भर करेगा । सामान्यतः आजकल लोग ओऽम् पढ़ते हैं,किन्तु प्राणायाम काल की सावित्री में अतिह्रस्व ॐ पढ़ने पर ही प्राणायाम कर सकेंगे,ओऽम् पढ़ने पर साँस टूट जायगी ।
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