“मैं दोनों हाथ उठाकर पुकार पुकार कर कह रहा हूँ परन्तु मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म पालन के मार्ग पर मोक्ष तो मिलता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, फिर भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते?”
– महर्षि वेदव्यास, महाभारत, स्वर्गारोहण पर्व, 5/62
ऋग्, यजु, साम और अथर्ववेद के रूप में वेदों का विभाग करने वाले, श्रीमद्भागवत आदि अट्ठारह पुराणों के रचयिता, श्रीमद्भगवद्गीता, महाभारत, ब्रह्मसूत्र और मीमांसा जैसे सनातन धर्मसर्वस्व ग्रन्थों के प्रणेता भगवान वेदव्यास के हृदय से ये मार्मिक उद्गार फूट पड़े!
आज तो कलियुग है, परन्तु वेदव्यास जी ने ये बातें महाभारत काल में ही कही थीं। उस समय भी धर्म का नाम लेने वाले तो बहुत लोग थे परन्तु सबने अपने अपने अर्थ, काम और मोक्ष के संस्करण के अनुसार धर्म की परिभाषाएं गढ़ रखी थीं। जहाँ भीष्म पितामह अधर्म पर चुप्पी साधने को धर्म समझकर अपना मोक्ष साधने में लगे थे, वहीं मित्रधर्म की आड़ में कर्ण अपना अर्थ साध रहे थे। द्रोण पुत्रमोह के ‘काम’ में उलझे धर्म भूल रहे थे। पाण्डव भी इससे अछूते नहीं थे, अर्जुन धर्मपालन की राह में स्वजनमोह के रोड़े देख विचलित हो गए, पुनः श्रीभगवान को वेदव्यास जी की ही बात दोहरानी पड़ी,‘स्वधर्मं निधनं श्रेयः’, ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।’ सभी के धर्म के पीछे अपने कुछ निहित स्वार्थों और मनमानी मान्यताओं की छाया अंकित थी। फिर कौरवों की तो बात ही क्या, दुर्योधन तो स्पष्ट रूप से कहता था, “धर्म और अधर्म, मैं दोनों को समझता हूँ लेकिन मेरी प्रवृत्ति अधर्म की ओर ही रहती है।”
महाभारत काल में अधर्म सभी ओर पसरा था, ऐसी स्थिति में भगवान वेदव्यास की यह मर्म वेदना बिल्कुल आसानी से समझी जा सकती है, उनकी यह वेदना स्वयं के लिए नहीं बल्कि सारे संसार के लिए थी। ऐसी स्थिति में महाभारत के किसी भी पात्र को आदर्श मानना सही नहीं है। ऐसे अधर्म के साम्राज्य में केवल परमानन्दघन भगवान श्रीकृष्ण ही धर्म के व्योमाकाश में ध्रुवतारे की भांति चमक रहे थे, जिन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में कलियुग के लिए साररूप में स्पष्ट और सरल शब्दों में धर्म का प्रकाश करके संसार का उपकार कर दिया। महाभारत पात्रों की धर्म सम्बन्धी हर उलझन का चुटकियों में समाधान कर दिया और बार बार भगवान वेदव्यास का उपरोक्त वचन दोहराया कि,‘स्वधर्मपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि’
लोग महाभारत के पात्रों के लिए लड़ते हैं कि कर्ण ऐसा था, भीष्म वैसे थे, युधिष्ठिर ने ऐसा क्यों किया, फलाने को वह नहीं करना चाहिए था, पर उससे महाभारत के मूल आशय से भटक जाते हैं। महाभारत के लीलासमुद्र में श्रीभगवान कृष्ण ही आदर के पात्र हैं और उन्होंने जिनका साथ दिया वे आदर के पात्र हैं, जो उनके शरणागत हो गए वे निश्चय ही आदर के पात्र हैं। अर्जुन विशेष रूप से आदर के पात्र हैं क्योंकि भगवान के वे अति प्रिय थे, गीता में भगवान ने स्पष्ट रूप से कहा अर्जुन तुम मुझे विशेष प्रिय हो। जैसे कमल के पंक को कीचड़ मलिन नहीं करती वैसे ही महाभारतकालीन समस्त दोषों से श्रीकृष्ण ही सर्वथा निर्लेप थे, धर्म के प्रकाशपुंज थे, अतः वे ही हमारे पूज्य और आदरणीय हैं। अन्य सभी पात्र और उनके क्रियाकलाप हमारे लिए गौण और महत्वहीन होने चाहिए।
भगवान नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, महर्षि वेदव्यास सहित सब आचार्य, ऋषि, महर्षियों और तत्वदर्शियों ने दोनों हाथ उठाकर उच्च स्वर में यही उद्घोष किया है कि, “धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं, परंतु काम, अर्थ और मोक्ष तक की प्राप्ति का एकमात्र साधन धर्म ही है।” इसी धर्म का पालन ही महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता आदि सारे शास्त्रों का सार और उनका मूल आशय है। पुराण दिग्दर्शन
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