कृष्णपक्ष!उसपर अष्टमी!वह भी दक्षिणायन वाली!केवल पूर्णावतार ही इसे झेल सकते हैं,और इसे शुभ बना सकते हैं!
एक महायुग में श्रीविष्णु के दस अवतार होते हैं जिनमें केवल तीन ही पूर्णावतार हैं । उन तीनों में से केवल कृष्णावतार ही दो युगों के लिये होते हैं — द्वापर और कलि,क्योंकि कलियुग में कोई पूर्णावतार नहीं होता । कलियुग पूर्णावतार को झेल ही नहीं सकता ।
धर्म कभी भी देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष नहीं होता । देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष तो अवसरवाद तथा व्यवहारवाद होता है ।
धर्म केवल एक है और वह सनातन शाश्वत अपरिवर्तनीय है । धर्म है कर्म करने की सही वैदिक विधि,और वह विधि सही है अथवा नहीं इसकी पहचान हेतु धर्म के दस लक्षण हैं — जो सबके सब सनातन शाश्वत अपरिवर्तनीय हैं ।
किन्तु धर्म को व्यवहार में प्रयुक्त करने की विधियाँ देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष होती हैं जिस कारण धर्म के मर्म को न समझने वालों को लगता है कि धर्म अनेक हैं अथवा उसके सापेक्ष रूप अनेक हैं ।
धर्म की सही विधि बतलाने वाले व्यक्ति को ब्राह्मण कहते हैं,और उन विधियों के सङ्कलन को ब्राह्मणग्रन्थ कहते हैं । ब्राह्मणग्रन्थ लिखे नहीं जाते थे क्योंकि जो कुछ भी लिखा जाय वह अपूर्ण होता है ।
धर्म है कर्म करने की सही वैदिक विधि — अर्जुन को कुरुक्षेत्र में धर्म की सही विधि पूर्णावतार श्रीकृष्ण ने बतायी । किन्तु गीता में केवल तात्कालिक देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष कर्तव्य का उपदेश ही नहीं है,चारों वर्णों के लिये शाश्वत धर्मोपदेश भी है ।
धर्म के दस लक्षण यदि समझ में न आयें तो केवल एक लक्षण स्मरण रखें — सनातन आत्मतत्व की स्वरूप अवस्थिति में जो कर्म सहायक हो वह धर्म है और जो बाधक हो वह अधर्म है । स्वरूप अवस्थिति धर्म नहीं है,उसमें जो कर्म सहायक हो वह धर्म है ।
संसार में जीने हेतु कर्म करना ही पड़ेगा,अतः समस्त कर्तव्यों को त्यागकर समाधि लगाना धर्म नहीं है,ऐसे व्यक्ति को समाधि में असफलता ही हाथ लगेगी । कर्तव्यों की अविद्या को धर्म की अविद्या द्वारा तरकर ही कर्तव्यों से परे स्वरूप-अवस्थिति की विद्या का पद प्राप्त हो सकता है । स्वरूप अवस्थिति धर्म नहीं है,धर्म−पुरुषार्थ की पूर्णाहुति के पश्चात ही चौथे पुरुषार्थ की अर्हता प्राप्त हो सकती है ।

धर्म है सही कर्म का विधान । अतः धर्म अविद्या है । किन्तु समस्त अविद्याओं में धर्म एकमात्र ऐसी अविद्या है जो वास्तविक विद्या का द्वार खोलती है । अन्य समस्त अविद्यायें त्याज्य हैं ।
वास्तविक विद्या का उल्लेख भी गीता में है — सांख्य जैसा ज्ञान नहीं!किन्तु बिना योग का बल प्राप्त किये वहाँ पँहुचना सम्भव नहीं । जो लोग आसानी से वहाँ पँहुच जाते हैं वे पिछले जन्मों में बल प्राप्त कर चुके हैं । मन सबसे शक्तिशाली है,और मन पर नियन्त्रण ही सबसे बड़ा बल है ।
धर्म प्रथम पुरुषार्थ है । बिना इसके अन्य सारे पुरुषार्थ असिद्ध रहेंगे । धर्म के तीन कोण हैं — लग्न,पञ्चम और नवम भाव ।
लग्न है स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरों के क्रियमाण संस्कारों का वह समुच्चय जो व्यक्ति को चारित्रिक पहचान देता है । पहचान का अर्थ है देह । स्थूल भी और सूक्ष्म भी ।
पञ्चम है सांसारिक विद्यायें,जो स्थूल एवं सूक्ष्म देह को जीने योग्य बनाये । नवम है उस देह और विद्या द्वारा सही वैदिक कर्म । वैदिक कर्म में समस्त धार्मिक कर्म आते हैं,भले ही नास्तिक भाव से किये जाये । कोई नास्तिक भी निस्वार्थ समाजसेवा करे तो धर्म है । कोई आस्तिक भी आस्तिकता को धन्धा बनाये तो उसकी आस्तिकता झूठी है ।
कर्म के दो भेद हैं । समस्त धार्मिक कर्म नवम भाव हैं । अन्य समस्त सांसारिक कर्म दशम भाव हैं । ये दोनों प्रकार के कर्म तब अकर्म बन जाते हैं जब निष्काम हों । अकर्म को मिलाकर कर्म के तीन भेद हैं ।
दशम का द्वादश अर्थात् हानिभाव है नवम । अर्थात् नवम की वृद्धि होने पर दशम का ह्रास होता है । अतः धर्म की वृद्धि होने पर सांसारिक सकाम कर्म का ह्रास होता है,मोक्ष की प्राप्ति के संस्कार प्रबल होने लगते हैं ।
जन्माष्टमी का सार है गीता । और गीता का सार है निष्काम कर्म । कलियुग में लोग सकाम कर्म को भी निष्काम कह देते हैं,गीता पर प्रवचन की भी फीस वसूलते हैं,गीता में त्याज्य भोजन चटखारे लेकर निगलते हैं,गीता के दर्शन को भुलाकर रासलीला रचाते हैं — जिसमें न तो रास का अर्थ जानते हैं और न लीला का ।
रस में डूबकर लय का आभास हो परन्तु कमल की तरह रसमुक्त होकर उबर जाय तो वह ली के पश्चात ला है । काम में डूबना लय नहीं है,काम का लय अर्थात् संहार ही ली/लय है । निष्काम काम संसार का सर्वाधिक कठिन कर्म है,किन्तु गीता में इसे साक्षात् श्रीकृष्ण कहा गया है । यही रास का मर्म है ।
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