हमारे भारतीय ग्रन्थों में बहुत से ऐसे प्रसंग हैं जिनमें गहरी वैज्ञानिक बातें छिपी हुई हैं पर हम लोगों के उनपर शोध न करने के कारण वे सामने नहीं आ पातीं। हमारे मन का एक कोना जानता तो है कि भारत ने प्राचीन काल में ही एक बेहद समृद्ध संस्कृति का सृजन किया था जिसमें विज्ञान भी विकास के चरम पर था और आध्यात्मिक ज्ञान भी अपने शिखर पर था। पर हम उसके बारे में ठोस जानकारी की ओर ध्यान नहीं देते, जो हमारी एक कमजोरी कही जा सकती है। आज हम महाभारत के ऐसे ही एक प्रसंग की बात करेंगे जिसमें भारतीय ऋषियों की गहरी वैज्ञानिक दृष्टि के दर्शन होते हैं।
गांधारी के पुत्रों के जन्म की कथा।
कथा कुछ इस तरह से है कि महर्षि वेदव्यास ने, माता गांधारी को सौ पुत्र होने का वरदान दिया था। लेकिन जब गान्धारी का गर्भ-धारणकाल लंबा होता चला गया तो दुखी होकर उन्होंने गर्भ पर ज़ोर ज़ोर से हाथ मारे, जिसके कारण उनको असमय प्रसव हुआ और एक अपरिपक्व मांसपिण्ड निकला। इसपर दुखी माता गांधारी ने महर्षि वेदव्यास जी को उनके वरदान की याद दिलाई। गांधारी की प्रार्थना पर वेदव्यास जी ने मांसपिण्ड पर जल छिड़का, एवं उसे सौ भागों में विभक्त कर दिया। फिर उन्होंने उन सौ पिण्डों को घी के अलग अलग कुम्भों(मटकों) में रख दिया। एक वर्ष बाद इन घड़ों से ही गांधारी को सौ पुत्रो की प्राप्ति हुई।
अब इसे इस तरह कहते हैं कि इसके पीछे का रहस्य आसानी से समझ में आए,
माता गान्धारी ने जो गर्भ धारण किया था उसका विकास कुछ अपरिहार्य कारणों से बेहद धीमा था। किन्तु उनके ज़ोर से हस्त-प्रहार करने पर असमय प्रसव हुआ। उस माँसपिण्ड रूपी भ्रूण की कोशिकाएं भ्रूणीय विकास की प्रारम्भिक अवस्था में ही थीं। अर्थात उनमें विभेदीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हुई थी। तब वेदव्यास जी ने सौ पात्र (कुम्भ) तैयार किए, एवं उनमें उन्हीं रासायनिक, भौतिक एवं जैविक परस्थितियों को कृत्रिम रूप से विकसित किया जैसी कि गर्भाशय में होती हैं। अर्थात वे कुम्भ, ‘कृत्रिम गर्भाशय’ थे। यहाँ घी का अर्थ ऐसे आवश्यक रसायनों का सम्मिश्रण है, जो भ्रूणीय विकास के लिए सभी पोषकतत्वों को प्रदान करता रहे। घी को वैदिक शास्त्रों में सोम माना गया है, और सोम वह होता है जो पोषण प्रदान करे, किसी न किसी प्रकार पुष्ट करे। यहाँ वह घृत सम्मिश्रण ही सोम है। महर्षि ने मांस-पिण्ड रूपी भ्रूण की कोशिकाओं को अलग-अलग किया एवं उन्हें इन पात्रों में प्रतिस्थापित कर दिया। एक वर्ष पश्चात पूर्ण विकसित होने पर संतान-प्राप्ति हुई। यहाँ हमारे मन में एक सवाल आ सकता है कि भ्रूण विकास में तो 9 महीने लगते हैं फिर 1 वर्ष कैसे लगा? तो उसका समाधान यह है कि कोई क्रिया यदि प्राकृतिक रूप से हो और वही क्रिया यदि कृत्रिम रूप से हो तो उनमें समय आदि का कुछ भेद अवश्य ही आ जाता है। जैसे कि किसी दूसरे प्राकृतिक वातावरण में उगने वाले पौधे को यदि उससे भिन्न वातावरण में उगाया जाए तो उसकी अधिक देखभाल करने पर भी उसका विकास अपेक्षाकृत धीमा होता है।
यहाँ वैदिक ऋषियों के विज्ञान पर हमने संक्षिप्त व्याख्या करने का प्रयास किया है परन्तु वास्तविकता तो इससे असंख्य गुणा अद्भुत रही होगी। पाँच हजार वर्ष पूर्व एक महर्षि ने कैसे विज्ञान के इस चमत्कार को अंजाम दिया था, हूबहू जिसकी तरह आज आधुनिक विज्ञान, भ्रूणीय विकास की प्रारम्भिक प्रक्रिया में कोशिका का विभाजन करता है और उसे पूर्ण विकसित करने के प्रयासों में जुटा हुआ है। जीव विज्ञान के चरम को छूती यह कथा आज भी अचम्भित करने वाली है। आज विज्ञान उस स्थिति में है कि उपरोक्त की भांति कोशिकाओं को अलग अलग कर लेता है किन्तु पूर्ण विकास के स्थान पर, केवल ऊतक(टिशु), लीवर आदि कुछ अंग ही बना पाता है। आधुनिक विज्ञान भी ऐसे विषयों में कल्पना या अनुमान तभी कर पाता है जब कोई आधार हो, फिर पाँच हजार वर्ष पूर्व के महर्षि ने या इस प्रसंग को लिखने वाले ने बिना किसी आधार के कैसे कल्पना कर ली होगी? हमारे ऋषि महर्षि आदि सम्पूर्ण विज्ञान व विद्याओं को जानने वाले रहे हैं। हमारा विज्ञान आध्यात्म की ओर जाता है और आधुनिक विज्ञान पूर्णतः भौतिकवादी है। बस यह भेद है। आधुनिक विज्ञान स्थूल में ही घूमता रहता है, और हमारे ऋषि-मुनि आदि सीधा उस अंतिम तत्व को जानते थे जिससे उनके लिए बाकी सब जाना हुआ ही हो जाता था।
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