वेदविद्या का अनुशीलन करने के पक्षपाती लोगों में पण्डितजी का नाम ही पर्याप्त परिचय है। वैदिक साहित्य और संस्कृत को जनसामान्य की पहुंच में लाने का ऐसा महनीय कार्य उन्होंने किया था। जैसा करने की इच्छा कभी दयानन्द स्वामी ने की थी। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को वेदभाष्य की भाषा बनाकर वेदविस्मृत लोगों में वेदों के प्रति एक गम्भीर आकर्षण पैदा कर दिया था। परन्तु दो ही वेदों का भाष्य वे कर सके। इस कार्य को उन्हीं की सी तितीक्षा वाले उनके पट्ट शिष्य श्रीपाद सातवलेकर ने आगे बढ़ाया। और चारों वेदों का ‘सुबोध हिन्दी भाष्य’ तैयार कर हिन्दू समाज में इसे सुगम्य बना दिया। आर्यसमाज की आधारभूत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसी पुस्तकों का मराठी में भाष्य करने वाले पण्डित सातवलेकर तब भी धारा में बंधे नहीं रहे। स्वामी दयानन्द की सी परिशोधन की दृष्टि लेकर उनके सिद्धांतों में भी परिशोधन से पीछे नहीं हटे और अकेले ही “स्वाध्याय मण्डल” की स्थापना करके वेदभाष्य के पुरुषार्थ में लग गए।
लोकमान्य तिलक जैसे मनीषी के प्रभाव से कांग्रेस से जुड़े और स्वदेशी पर व्याख्यान देकर स्वाधीनता के यज्ञ में जुट गए। “वैदिक धर्म” और “पुरुषार्थ” जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन करते रहे। हैदराबाद प्रवास के दौरान राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत उनकी ज्ञानोपासना वहाँ के निज़ाम को अच्छी नहीं लगी, और उन्हें हैदराबाद छोड़कर महाराष्ट्र के औंध में आना पड़ा। राष्ट्रशत्रुओं के विनाशकारी वैदिक मंत्रों का संग्रह “वैदिक राष्ट्रगीत” के नाम से मराठी और हिंदी में छपवाकर विदेशी शासन की जड़ों पर उन्होंने प्रहार कर दिया। और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर डालने के आदेश जारी हो गए। वेदों के आधार पर लिखित उनका लेख ‘तेजस्विता’ भी राजद्रोहात्मक समझा गया। जिसके कारण उन्हें तीन वर्ष की जेल काटनी पड़ी।
संस्कृत सीखने की एक पूरी पद्धति ही ‘सातवलेकर पद्धति’ कही जाती है। क्योंकि सातवलेकर ही थे “संस्कृत स्वयं शिक्षक“ के कर्णधार जिससे घर बैठे संस्कृत सीखने का कॉन्सेप्ट सामने आया। “संस्कृत स्वयं शिक्षक” यह पुस्तक ही संस्कृत शिक्षण की संस्था है। जिसकी उपादेयता आने वाले कई दशकों तक कम नहीं होने वाली है। पण्डित जी एक कुशल चित्रकार और मूर्तिकार भी थे। पर अत्यंत गरीबी में भी हज़ार रुपए पारितोषिक निश्चित करने वाले राय बहादुर का चित्र इसलिए नहीं बनाया क्योंकि अंग्रेज शासन के गुलाम की पाप की कमाई का एक अंश भी उन्हें मंजूर नहीं था।
1936 में पंडितजी सतारा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और औंध रियासत के संघचालक बने। 16 वर्ष तक उन्होंने संघ का कार्य किया। गाँधीजी की हत्या के बाद महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों की घर सम्पत्तियां गोडसे की जाति देखकर अहिंसा के पुजारी के भक्तों ने जला डालीं। सातवलेकर जी का वैदिक संस्थान भी जलाकर नष्ट कर दिया गया। वे किसी तरह अपनी जान बचाकर सूरत के पारडी आए और यहाँ “स्वाध्याय मण्डल” का कार्य पुनः आरम्भ किया।
जिस साल 1968 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया उसी साल यह वेदविद्या का उज्ज्वल नक्षत्र 101 वर्ष की दीर्घायु के साथ अस्त हो गया। 101 वर्ष की अवनितल वैदिक साहित्य साधना में उन्होंने वेद पर तो सुबोध हिंदी भाष्य किया ही साथ ही मूल वेद सहिंताओं का सम्पादन भी किया। महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ का भाष्य किया। गीता पर उनकी पुरुषार्थबोधिनी टीका आज भी गीताभाष्यों की अग्रिम पंक्ति में सुशोभित है। इसके साथ साथ उन्होंने 400 से भी अधिक ग्रन्थों की रचना की जो स्वाध्याय मण्डल पारडी, राजहंस व चौखम्भा जैसे प्रकाशनों से छपते हैं।
ऐसे मनीषी को भुला देना आज वैदिक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जीवन खपाने वाले महापुरुषों की पूरी पंक्ति के प्रति अक्षम्य अपराध माना जाएगा। उन्होंने अपने जीवन सनातन धर्म और राष्ट्र को समर्पित किए हैं, तब आज वेद से कुछ सीखने समझने की हम लोग सोच पाते हैं। ऐसे महापुरुष को कोटि कोटि नमन है….
सातवलेकर जी के कुछ ग्रन्थ हैं :-
– चारों वेदों का सुबोध भाष्य
– वैदिक व्याख्यानमाला
– गो-ज्ञान कोश (वेदों में गाय एवं बैल के अवध्य होने के प्रमाण, तत्सम्बन्धी मन्त्रों का सही सान्दर्भिक अर्थ एवं गाय सम्बन्धी मन्त्रों का विवेचन सहित संकलन)
– वैदिक यज्ञ संस्था
– वेद-परिचय
– महाभारत (सटीक) – 18 भागों में (
– श्रीमद्भगवद्गीता पुरुषार्थबोधिनी हिन्दी टीका
– महाभारत की समालोचना (महाभारत के कतिपय विषयों का स्पष्टीकरण एवं विवेचन)
– संस्कृत पाठमाला
– संस्कृत स्वयंशिक्षक (दो भागों में)
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