अभी कुछ दिन पहले ही हॉवर्ड फास्ट की पुस्तक The Naked God: The Writer and The Communist Party पढ़ा। फास्ट ने 17 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू किया था और जीवन के अंत तक लिखते रहे। कुल मिलाकर 80 किताबें लिखी। वे 1943 से 1956 तक अमेरिका के कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य रहे, परंतु 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में ख्रुसचेव की गोपनीय रिपोर्ट पढ़ने के बाद साम्यवाद से मोहभंग हो गया और कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गये। उपरोक्त पुस्तक उनके कम्युनिस्ट रहते हुऐ अनुभवों का दस्तावेज है। कम्युनिस्ट पार्टी के नज़रिये, क्रियाकलाप, मनोवैज्ञानिक विशेषताओं और कार्य शैली की ऐसी सार गर्भित विवेचना अन्यत्र दुर्लभ है।
फास्ट ने लिखा है कि यदि कोई यह सोचता है कि कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने से किसी को आंतरिक शांति या ख़ुशी मिलती है, तो वे भूल पर है। सच्चाई यह है कि आदमी को अपनी आत्मा बेच देनी पड़ती है, यह मानकर कि इसी से मानवता की मुक्ति होगी। पार्टी की नज़र में व्यक्ति का स्वाभिमान, भावावेग और स्वतंत्रता की चेतना आदि ‘बुर्जुआ बोझ’ मात्र है, जिनसे मुक्त होकर कम्युनिस्ट शब्दावली में बुर्जुआ वर्ग की छुद्र चेतना छोड़ कर (de-classed) होकर सर्वहारा वर्ग की चेतना से सम्पृक्त होकर ही सच्चा कम्युनिस्ट हुआ जा सकता है।
फास्ट ने लिखा है कि कम्युनिस्टों में पुजारी की भांति तरह तरह के अंधविश्वास और अनुष्ठान करने का प्रावधान है। उन्होंने चार तरह के अंधविश्वास का उल्लेख किया है।
कम्युनिस्ट पार्टी के अन्धविश्वास
1. परिणाम का अंधविश्वास (sympathetic magic)-
वह अंधविश्वास है जिसके आधार पर विश्व स्थिति का तथाकथित विश्लेषण किया जाता रहा है। उनकी प्रस्तुति और भाषा ऐसी रही जैसे दुनिया भर की सामाजिक घटनाओं का पोर पोर और उसका फल पता हो। उदाहरण के लिए “पूंजीवाद अब अंतिम सांसे ले रहा है”, “पूरी दुनिया में समाजवादी लहर तेजी से फैलती जा रही है” आदि।
2. भविष्य ज्ञान और गूढ़ ज्ञान का अंधविश्वास (Divination)-
इस प्रकार का अंधविश्वास इस परिकल्पना पर खड़ा रहता है कि इच्छित परिणामों के बारे में बोलते रहने से परिणाम सचमुच मिल जाएंगे। इसमें कुछ रस्मों, टोटकों (फास्ट का मूल शब्द spells) का भी स्थान है। जैसे, प्रस्ताव पास करना, प्रदर्शन करना, पर्चे छापना आदि। भविष्य ज्ञान के अंधविश्वास का सबसे बड़ा उदाहरण तमाम मार्क्सवादी संगठनों का यह विश्वास था कि दुनिया साम्यवाद की ओर अनिवार्य रूप से बढ़ रही है, न्यूटन के गति के नियम की तरह मार्क्स का समाजिक गति का नियम है।
3. अबूझ शब्द जाल पर अंधविश्वास (Thaumaturgy)-
बुर्जुआ बैगेज, लुम्पेन बुर्जुआ, पार्टी कांशसनेस, फ्यूडल बुर्जुआ अलायन्स, नियो फ़ासिस्ट, डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज़्म आदि। पढ़ने, सुनने वाले अनुयायीगण महज सन्दर्भ से इनका अर्थ लगाते थे। जैसे सोवियत साहित्य में कॉस्मोपोलिटिनिज्म शब्द के प्रयोग का अर्थ था कि यहूदियों के विरुद्ध कुछ बात कही जा रही है।
4. जड़ सूत्रों और मुहावरों का अंधविश्वास (Incantation)-
यह वह चीज है जिसमें आमतौर पर कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेज सजे रहते हैं। जैसे, Dialectical materialism, surplus value, scientific socialism, proletarian internationalism आदि। फ़ास्ट लिखते हैं कि इन शब्दों ने मज़हबी जादुई मंत्रों की सी स्थिति प्राप्त कर ली है। मार्क्स, एंजेल और लेनिन के लेखन को उसके सन्दर्भों से पूरी तरह काटकर मंत्रोपचार में बदल दिया गया।

फास्ट ने कम्युनिस्ट पार्टी में एक और खास बात नोट किया कि वह हमेशा असुविधाजनक सवालों से कतराने की मानसिकता रखती है। फास्ट के कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ने पर सोवियत समाज में, जहां फास्ट के लाखों पाठक और प्रशंसक थे, पार्टी ने पूरी खबर पर पर्दा डाल दिया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। कोई क्रोध नहीं, कोई प्रहार नहीं, कोई बहस नहीं, सीधे एक नकार। जैसे फास्ट नाम का कोई व्यक्ति कभी असितित्व में था ही नहीं।
फ़ास्ट लिखते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी में आने वाले व्यक्ति प्रायः बहुत भले, आदर्शवादी, समर्पित इंसान होते रहे हैं। यदि इस बात को न समझा गया तो कम्युनिस्ट संगठन की भयावहता को समझना संभव नहीं। परंतु यही ईमानदार व्यक्ति अपने अंधविश्वास में सबसे भयंकर अत्याचारों, मिथ्याचारों के साथ सहयोग करता है। आगे चलकर वही स्वयं ऐसे काम करने लगता है, यह सोचकर कि इसी से मानवता की मुक्ति होगी। मगर अंत में वह कामरेड केद्रोव की परिणित पर पहुंच जाता है, कि वह यातना देने वालों को देखकर भी नहीं देख पाता, स्वयं अत्याचार, मिथ्याचार करते हुए भी उसे अत्याचार, मिथ्याचार के रूप में पहचान तक नहीं पाता।
फास्ट ने पुस्तक में यह स्पष्ट किया है क़ि कैसे पार्टी लेखक आदतन झूठ बोलने वालों में तब्दील हो जाते हैं। 1949 में सोवियत प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व करने वाले फदेयेव से जब कई लेखकों के बारे में पूछा गया तो वह मजे से झूठ पर झूठ बोले जा रहे थे, जबकि उस समय तक उन सबको या तो गोली मारी जा चुकी थी, या वे यातना गृहों में कैद अपने दर्दनाक अंत का इंतजार कर रहे थे। स्वयं फदेयेव ने 1956 में ख्रुश्चेव रिपोर्ट के कुछ दिन बाद ही आत्महत्या कर ली।
उस सम्मेलन में जैसा झूठ फदेयेव ने बोला था, बाद में वैसा ही झूठ बोरिस पोलिवाई ने लेखक क्वितको के बारे में बोला। इस लेखक के बारे में पूछने पर बोरिस ने बताया कि क्वितको उनके बिल्डिंग के ही एक अपार्टमेंट में रह रहें हैं और अमेरिकी कॉमरेडों को अभिवादन भेजा है, जबकि तथ्य यह था कि क्वितको कई बर्ष पहले ही मारे जा चुके थे।
उपरोक्त पुस्तक पढ़ने के बाद यदि भारतीय संदर्भ में विचार किया जाय तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित प्रगतिशील लेखक संघ में भी विशेष कर वर्ष 1948-1951 के बीच ठीक यही हुआ था। स्वयं एक प्रगतिशील लेखक शिवदान सिंह चौहान के अनुसार, इस दौरान प्रगतिशील लेखक संघ में कम्युनिस्ट पार्टी की नीति के कट्टर अनुयायियों और संगठन मंत्री के कुछ दोस्तों को छोड़कर सारे लेखकों को मार्क्सवाद और जनता का दुश्मन कहकर राहुल, पन्त, अज्ञेय, दिनकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी यशपाल अश्क, वच्चन आदि को जनद्रोही मुज़रिम करार दिया गया। ये तो कहो कि 22 फरवरी1949 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित भारतीय बोल्शेविक क्रांति विफल हो गयी, इसलिए इन लेखकों का क्रांतिकारी हिसाब न हो सका। यदि फरवरी क्रांति सफल हो गयी होती तो संभवतः प्रगतिशील लेखक संघ के मंत्री डॉक्टर रामविलास शर्मा का कैरियर कुछ और होता और इतिहास आज उन्हें किन्हीं और रूपों में याद करता। एक तरह के भारतीय जदानोव या फेदिन की तरह।
– शिवपूजन त्रिपाठी, लेखक भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के गहन जानकर एवं अध्येता हैं
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