- ट्रैड निम्न लेख प्रतिज्ञ @RamaInExile द्वारा लिखित है। ट्रैड
मेरे साथ विगत कुछ महीनों में जो घटनाएं हुई उसने मुझे झकझोर कर रख दिया। घटनाओं में घटकों के वास्तविक रूप से मैं अनभिज्ञ था। मेढक के बच्चे के भांति मेरा भी लौकिक दृष्टिकोण कायान्तरित होने लगा। ट्रैड वाद के नाम पर धर्म के वैश्विक प्रतीकों का चीरहरण होता देख मैं स्तब्ध था। फलस्वरूप अपने अंदर की उथलपुथल के प्रशमन हेतु इन सबके मूल में जाने को सोचा और हाथ लगा करपात्र साहित्य। “अभिनव शंकर” एवं “कलियुग व्यास” इत्यादि उपाधियों से विभूषित प्रकाण्ड पण्डित धर्म सम्राट अनंत श्री स्वामी करपात्री जी महाराज के प्रति मेरा सम्मान था और है। किसी की तपश्चर्या और अच्छे गुणों से सदैव मनुष्य सीख सकता है। किन्तु उनके साहित्य और शास्त्रीय व्याख्याओं को पढ़ने के बाद मेरा दृष्टिकोण बदल गया। अत: बिना स्तुति और निंदा किए, मैं महाराज जी के कुछ अनसुने विचारों को प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरा उद्देश किसी को ठेस पहुंचाना नहीं है।
करपात्री महाराज शूद्र मंदिर प्रवेश के विरोध में थे। उनके व्याख्यानुसार शूद्रादि निम्न जातियों को मंदिर प्रवेश की अनुमति धर्म प्रदत्त नही थीं। महाराज जी समता के पक्षधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना करते हुए तीखे तेवरों में कहते हैं: “शास्त्रोक्त मंदिर मर्यादा को नष्ट करने पर तुले ही रहते हैं, समाजवादियों की तरह संघी भी मन्दिरों में भंगियों को घुसाकर मंदिर मर्यादा नष्ट करना चाहते हैं।” (आ.औ.हिं./१२०/२९)। सोमनाथ उद्धारोपरान्त मंदिर संस्कार के प्रसंग में जब स्वामी जी को निमंत्रण मिलता है तब स्वामी जी शर्त रखते हुए कहते है: “मंदिरों की मर्यादा क्या है? उसका पालन कैसे किया जाय? उसमे किनका कैसे प्रवेश हो और किनका नहीं?”(वि.पि./३६२/११-२०)।
इतना ही नहीं एक अन्य स्थान पर उन्होंने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “विश्वनाथ मंदिर हरिजन प्रवेश पर सरकारी साधुओं और सरकारी पंडितो का चुप रहना भी एक विचित्र बात है।” (ना.आ./५७/२५-२६)। महाराज जी कहते हैं कि, “जो लोग मूर्ति को पत्थर बता कर खण्डन कर रहे थे, वो आज देव मंदिरों को भ्रष्ट करने के लिए कट्टर मूर्तिपूजक की तरह सभी को मंदिर प्रवेश तथा देव दर्शन की आवश्यकता बतलाते हैं।” (सं.ए.व./ ६७/१-३)। महाराज जी लिखते हैं कि, “मंदिर प्रवेश, रोटी-बेटी का व्यवहार शास्त्र विरुद्ध है, और शास्त्र मानने वाले के लिए असंभव है।” (सं.ए.व.६५/२५)। तत्कालीन सरकार की हिंदू धर्म के विरुद्ध नीतियों के विरोध में लिखते समय करपात्री महाराज मंदिर प्रवेश पर भी बोल जाते हैं, वे कहते हैं, “हिंदू धर्म के मंदिरों की मर्यादाओं को तोड़कर उन्हें नष्ट भ्रष्ट किया जा रहा है।” वे आगे लिखते हैं, “सरकार आस्तिकों के विश्वासों एवं धार्मिक भावनाओं को तोड़ने के लिए मंदिरों में बेरोकटोक सबको घुसाना चाहती है।”(आ.औ.रा/ ६/२०-२९)।
वास्ताव में ये मंदिर मर्यादा है क्या? करपात्री महाराज के अनुसार, मंदिर के शिखर-दर्शन पर सभी का अधिकार है (वि.शा./९६/१५-१८)। अत: शूद्र और निम्न जातियां केवल मंदिर शिखर दर्शन से आध्यात्मिक उत्कंठा शांत कर सकती हैं। मंदिर मर्यादा संरक्षण माहात्म्य बताते हुए करपात्री महाराज ने मुख्यमंत्री संपूर्णानंद के हरिजन प्रवेश इत्यादि बातों का युक्तिपूर्वक उत्तर दिया और यह बताया कि यदि कोई अंत्यज मंदिर के शिखर का दर्शन करता है, और मंदिर की बाह्य सेवा करता है, तो उसे शास्त्रानुसार वही फल मिलता है। अत: उपरोक्त प्रमाणों से करपात्री महाराज के विचार स्पष्ट हो जाते हैं, इनके अतिरिक्त नीम करौरी बाबाजी की स्वामी जी से बहस, राजनैतिक प्रपत्रों के प्रमाण, तत्कालीन समाचार, तत्कालीन मंदिरों के शूद्र प्रवेश प्रतिबंध सूचक होर्डिंग इत्यादि अन्य प्रमाण उपलब्ध हैं, किन्तु करपात्री महाराज के स्वयं के साहित्य ही उनकी विचारधारा का निष्पक्ष प्रतिबिंब हैं।
बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है की उनके समर्थक उनके ही विचारों की उपेक्षा करके, उनके ही शास्त्रीय व्याख्याओं की तिलांजलि दे कर हार मान चुके हैं। उनमें इतना साहस नहीं बचा कि शूद्र मंदिर प्रवेश के विरुद्ध शास्त्रीय पक्ष रख पाएं। इसके इतर बेचारे येन-केन प्रकार से स्वामी जी के तिरोभूत आभामण्डल के संरक्षण हेतु विषयांतर करके बात को गर्भगृह प्रवेश तक समेटने का प्रयास करते हैं, गर्भगृह प्रवेश की स्वामी जी ने कहीं बात ही नहीं की है! प्रमाण में वो सत्य पर आवरण डालता हुआ कोई स्मृति ग्रन्थ उद्धृत करते हैं! अगर ट्रैड बंधु स्वयं सुधारवाद को समविष्ट किए हुए शुद्र मंदिर प्रवेश प्रतिबंध की परंपरा को छोड़कर अनर्गल विलाप कर रहे हैं तो जिस परंपरावाद के ट्रैड पक्षधर है वह तो नितान्त खोखला निकाला!
करपात्री महाराज जन्मना छुआछूत प्रथा के भी समर्थक थे। उनके अनुसार निम्न जातियों से छुआछूत करना धर्मादेश है। भक्ति आन्दोलन प्रभावित तथाकथित सुधारवादी वैष्णव कथावाचकों की धर्मविरोधी गतिविधियों की पोल खोलते हुए महाराज जी लिखते हैं –“भगवन्नामसङ्कीर्तन की ओट में सुधारकों को शास्त्रसिद्ध स्पृश्यास्पृश्य मिटा देने का बड़ा ही सुन्दर मौका मिल गया। कीर्तन मण्डल में तो एक म्लेच्छजातीय भक्त के साथ सहभोज भी हुआ। कुछ लोग सत्यनारायण की कथा-कीर्तन का निमंत्रण देकर बेचारे भोले भाले सनातनियों को बुलाकर अस्पृश्यता निवारण का उपदेश देते हैं। अस्पृश्य तथा अव्यवहार्य लोगों के हाथ से प्रसाद बंटवाते हैं, और कहते हैं–जाति पांति पुछय नहिं कोई। हरि को भजइ सो हरि का होई।।…” (सं.ए.व/६३/१५-२०) अत: महराज जी ने अस्पृश्यता की परंपरा का पूर्ण समर्थन किया जो कि उनके अनुसार शास्त्र सिद्ध थीं। वो कहते हैं कि, “जिस प्रकार आंतरिक अंगों के स्पर्श के पश्चात् हस्त प्रक्षालन करना पड़ता है उसी प्रकार अंत्यजो का स्पर्श न करना कोई उनका अपमान नहीं है।”(सं.ए.व/६६/१८-२०)। ऐसे लोगों के हाथों से प्रसाद तक ग्रहण नहीं करना चाहिए, स्वामी जी का ऐसा मत था। कोई ब्राह्मण प्रसाद लेने से मना करता था और कोई वैष्णव ये कहे कि देखो राजा ने गोप के हाथ का प्रसाद लेने से मना किया था तो उसके सारे पुत्रादि नष्ट हो गए .. ये सब बातें करपात्री महाराज के अनुसार धर्म के विपरीत हैं।(सं.ए.व/६४/१-३)।
करपात्रीजी महाराज के अनुसार, अव्यवहार्य निम्न जाति के निषादराज और श्रीराम द्वारा आलिंगन की अनुकृति हमें नहीं करनी चाहिए, और तो और व्यवहारादि में धर्मशास्त्र प्रमाण होते हैं इतिहास (रामायण व महाभारत) नहीं।(रा.मी/७६५/१८-२६)। और “जासु छांह छुई लेइअ सींचा” की दृष्टि से अगर शूद्र की छाया भी पड़ जाय तो भी जल से सींच लेना चाहिए ऐसा। सहभोज और रोटी-बेटी व्यवहार के भी समर्थन में स्वामी जी नहीं थे। महाराज जी लिखते हैं:- “धर्म की बड़ी बड़ी बाते करते हुए भी भंगी चमार सबकी रोटी खाने में संघी लोग धर्म की हानि नहीं समझते।”(रा.औ.हि./१२०)। एक स्थान पर पुन: अपनी बात को दोहराते हुए कहते हैं, “राष्ट्र के लड़के संघ में पड़ कर संध्यावंदन, सूर्य दर्शन, वेदादि शास्त्रों का स्वाध्याय शास्त्रीय सदाचारो से वंचित होकर प्रेम के नाम पर सबकी रोटी खाकर वर्णव्यवस्था तोड़कर छद्ममय बनते जा रहे हैं।“ (आ.औ.रा/१३/९-१२)। आशय स्पष्ट है संभवत: शूद्र की रोटी व सहभोज शास्त्रीय (महाराज कृत व्याख्या) सदाचार के अनुकूल न था। करपात्रीजी महाराज ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र में रक्त का भेद भी मानते थे।
अधिकतर भारतीय बुद्धिजीवियों के अनुसार “कास्ता” शब्द का जनक यूरोप है और वहीं इसको रक्त की शुद्धता के दृष्टि से देखा जाता था और अंग्रेजों के भारत आक्रमणोपरान्त “कास्ट” शब्द को रक्त की शुद्धता से जोड़ कर देखा जाने लगा। किंतु करपात्री महाराज के अनुसार वर्णों में रक्त का भेद इत्यादि सिद्धांत शास्त्रसम्मत है। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र में बाहर से कोई भेद नहीं है, किंतु रक्त की दृष्टि से भेद है, ऐसा। महाराज जी का वक्तव्य है, “ब्राह्मणादि में उपरिगत भेद भासित न होने पर भी शास्त्रप्रमाणगम्य विभिन्न गुण-धर्मों, रक्तों के भेद से उनमें भेद मानना अनिवार्य है।”(मा.औ.रा/२८४/४-५)। महाराज जी के अनुसार, “विशुद्ध रक्त का अभिमान केवल दंभ नहीं है।” (मा.औ.रा/२८७)। रक्त सांकर्यता और रक्त शुद्धता की बात महाराज जी पग पग पर करते आए हैं।
इसी रक्त शुद्धता पर चर्चा करते हुए महाराज घूंघट प्रथा और बाल विवाह का समर्थन करते हैं। महाराज जी बताते हैं, “स्त्री नव दश वर्ष की अवस्था में ब्याही जाती है, श्वशुरकुल में जाते ही परदे में रहती है। ज्येष्ठ श्वशुर तक से भी नहीं बोलती, घर के भीतर सदा घूँघट की ओट में रहती हैं, जहां घूंघट प्रथा नहीं है, वहाँ दृष्टिसंवरण रूप प्रथा है ही, बिना कुटुंबियो के अकेले आना जाना संभव ही नहीं, किसी बाहरी व्यक्ति से बोलना जब असंभव है, तब स्वतंत्र मिलने की तो बात ही क्या ? ऐसी दशा में कुटुम्ब में व्यभिचार भले ही हो जाए परंतु परजाति के साथ संबंध तो असंभव ही है !” (मा.औ.रा/२२३/१-६) इन वचनों से सिद्ध है महाराज जी की विचारधारा। ऐसा प्रतीत होता है की महाराज जी को कुटुम्ब में व्यभिचार से ज्यादा परजाति में संबंध न हो इसकी चिंता थी। आगे महाराज जी लिखते हैं, “रजस्वला होने पर स्त्री के मन में विकार आने पर किसी पर मन जा सकता है, इसलिए रजस्वला होने के पहले ही विवाह का नियम है।”(मा.औ.रा/२२३) ऐसे वचनों से महाराज जी बाल विवाह का समर्थन करते हैं।
यह सर्व विदित है कि मैक्समूलर द्वारा आर्य आक्रमण सिद्धांत में शूद्रों को अनार्य बता कर आर्य और द्रविड़ विभाजन का कुचक्र चलाया गया। परन्तु यहां भी करपात्री महाराज इस बात पर ठप्पा लगाते प्रतीत होते हैं, गोलवरकर जी ने कहा था हम आर्य प्रबुद्ध लोग थे, किंतु इसका भी खण्डन करते हुए करपात्री महाराज लिखते हैं –“आर्य शब्द का प्रयोग शूद्र के लिए भी नहीं होता था” (आ.औ.हिं/६१/२०-२२)। एक जगह करपात्री महाराज ये कहते हैं कि, “आज कल दयानंदी हिंदू “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” का उद्घोष करते हुए संपूर्ण विश्व को आर्य बनाना चाहते हैं।” अन्य जगह करपात्री जी इस वेद मंत्र का ये अर्थ ‘संपूर्ण विश्व को आर्य बनाना’ नहीं है, ये बतलाते हैं(आ.औ.हिं/२१५)। वैसे स्पष्ट भी है, क्योंकि जब ब्राह्मण क्षत्रिय इत्यादि जन्म से होता है और शूद्र आर्य है ही नहीं तो संपूर्ण विश्व आर्य बन ही नहीं सकता। अत: इस दृष्टि से वेद मंत्र की व्याख्या करना स्मृति सम्यक होगा, ऐसा। उपरोक्त विचार केवल और केवल आर्य आक्रमण सिद्धांत को शास्त्राधार प्रदान करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
अधिकार अनधिकार के विषय में तो सर्वविदित है की वेद-वेदान्त पर स्त्री और शूद्र का अधिकार नहीं है। और भी कई सारे जगह उनको अधिकार नहीं हैं जो स्मृतियों द्वारा प्रोक्त हैं।
शूद्र मंदिर प्रवेश, छुआछूत और रोटी व्यवहार के संदर्भ में करपात्री महाराज के विचार तो हमने देख लिए, किन्तु इस सब बातों के इतर करपात्री महाराज शास्त्रों की व्याख्या करते हुए शूद्र को संस्कृत भाषा तक से वंचित रखने का प्रयत्न करते हैं। शूद्र को संस्कृत के केवल नामोऽन्त मंत्रों पर अधिकार है। करपात्रीजी महाराज लिखते हैं –“संस्कृत भाषा ही सबकी भाषा है’ यह कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। शास्त्र की दृष्टि से भी संस्कृत द्विजातियों की ही भाषा कही गई है। कई लोगों के लिए तो संस्कृत शब्दों का उच्चारण भी निषिद्ध है।“(रा.औ.हि./१४७/५-७)। एक अन्य स्थान पर महाराज जी ने इसको और स्पष्ट कर दिया है, “संस्कृत ब्राह्मणों की ही नहीं; ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों की भाषा है। इतना ही क्यों वो तो प्राणी मात्र की धर्म भाषा है। शूद्र बन्धुओं का उनके अधिकारानुसार संस्कृत के नामोऽन्त मन्त्रों में अधिकार है।”(रा.मी./७६०/२८-३१) ! ये सब कथन अंबेडकरवादियों को भी समर्थन देते प्रतीत होते हैं क्योंकि संस्कृत को ब्राह्मणों की भाषा और पालि प्राकृत को शूद्रों की भाषा बतलाकर भीमवादी झूठ और प्रलाप करते हैं।
“पुनश्च शूद्र को दूध (कपिला क्षीर पान), प्रणव(ॐ), शालिग्राम सेवा, होम का भी अधिकार नहीं है।” (वि.पि./१९४/७-९)! जो भी हो महाराज जी नहीं रुके और अछूतोद्धार के नाम पर कथित धर्मद्रोही सुधारवादी वैष्णव कथावाचकों को शूद्र के अधिकार का स्मरण करते हुए कहते हैं, “हाँ, भगवन्नाम कीर्तन के अधिकारी सभी हैं पर, वेदवेदान्तादि के द्वारा भगवान् के स्वरूपादि कीर्तन के अधिकारी त्रैवर्णिक ही हैं।” (सं.ए.व/८०/७-१०)। अर्थात् शूद्र और अन्य निम्न रक्तीय लोग केवल नाम का कीर्तन कर सकते हैं, राम राम राम .. इस रीति से किंतु वेद, वेदांत और अन्य स्रोतों के द्वारा जिनमें उनके नाम के अलावा उनके स्वरूप, रस, ऐश्वर्य का वर्णन हो ऐसे कीर्तन का अधिकारी शूद्र नहीं है। महाराज जी स्पष्ट करते हैं कि शूद्रों को पुराण व इतिहास शास्त्र के पठन में भी अधिकार नहीं है, वे मात्र पुराणों रामायणादि की कथा ब्राह्मण के मुख से सुन सकते हैं, अर्थात् विष्णु सहस्रनाम आदि किसी भी संस्कृत/पौराणिक स्तोत्र के पठन का अधिकार भी नहीं है। जबकि सभी वैष्णव सम्प्रदाय स्पष्ट रूप से शूद्र का संस्कृत एवं इतिहास (रामायण/महाभारत) – पुराणों, विष्णु सहस्रनाम आदि के पाठ में अधिकार मानते हैं। यही अधिकार पुराणों में आई कथाओं एवं अनेक स्तोत्रों की फलश्रुति से भी सिद्ध हो जाता है।
महाराज जी भजन संकीर्तन के कार्यक्रमों में शूद्र और स्त्री के प्रतिभागिता के भी समर्थक नहीं थे। वे लिखते हैं, “इन संस्थाओं तथा उत्सवों में प्राय: शूद्र समाज तथा सधवा या विधवा नारी वर्ग स्वधर्मोचित कर्तव्यों की उपेक्षा करके सम्मिलित होते हैं।”( सं.ए.व/७८/१७-२०)। महाराज जी चाहते थे कि आध्यात्मिकता के नाम पर लोग उनके जन्मना वर्णाधारित स्वधर्मों का परित्याग न करें। वैसे भी जब शूद्र और स्त्री आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने लगेंगे तो फिर त्रैवर्णिकों की सेवा सुश्रुषा कौन करेगा? जो भी हो महाराज जी आगे कहते हैं, “जिनका कर्तव्य है पिता-पुत्र-भ्राता आदिकों के आश्रित रहकर उचित परिश्रमों से जीवन निर्वाह करती हुईं अपने घरों ही में श्री हरि का समाश्रयण करें।” (सं.ए.व/७८/२१-२२) अत: चारदीवारी में ही रहे, अगर उद्देश कीर्तन इत्यादि का हो तो भी बाहर न निकलें, घर में ही हरि चिन्तन करें।
करपात्री महाराज प्रश्नोत्तर के माध्यम से लेखन करके अपने मंतव्य प्रकट कर रहे होते हैं, इस बीच एक प्रश्न वे उठाते हैं, “कुछ लोग शास्त्र मानने का दावा रखते हुए भी कहते हैं कि, भगवतभक्त शूद्र भी पूज्य है, अभक्त ब्राह्मण अपूज्य है, अत: साधु वेश भूषित शूद्र भक्त भी पूज्य है।“(सं.ए.व/६७) अब इसके उत्तर में महाराज जी विस्तार से संपूर्ण शास्त्र की व्याख्या करते हुए ये सिद्ध करते हैं कि उपरोक्त बातें शास्त्र विरुद्ध हैं। महाराज जी बताते हैं, “जिस तरह लात मारती हुई गाय, गाय ही है; उसी प्रकार “दु:शीलोऽपि द्विज: पुज्य:” दु:शील, अधम .. ब्राह्मण भी पूजनीय है। किन्तु “न तु शूद्रो जितेन्द्रिय:”(सं.ए.व/६८)। अर्थात् जितेंद्रिय, जिसने इन्द्रियों को जीत रखा है वो भी अगर शूद्र हुआ तो पूजनीय नहीं है। स्वामी जी के मंतव्य से ऐसा शूद्र आदरणीय हो सकता है पर पूजनीय नहीं। यहाँ तक कि महाराज जी बताते हैं कि, “शूद्र के लिए नमस्कार अग्निवत् दीप्त त्रैवर्णिक को भी गिरा देता है।”(सं.ए.व/६८/२१-२३)। अर्थात शूद्र अभिवादन के भी योग्य नहीं है, चाहे जितेंद्रिय क्यों न हो। महाराज जी लिखते हैं, “कर्त्तव्यपरायण शूद्र कर्तव्यपरायण ब्राह्मण को नमस्कार करता है, ब्राह्मण शूद्र को नमस्कार नहीं करता। पिता पुत्र को प्रणाम नहीं करता, पुत्र पिता को प्रणाम करता है। पिता पुत्र को ‘ए-ओ’ कहकर पुकारता है और पुत्र “पिताजी” कहकर पुकारता है'”!! (वि.पि./४१६/१५-१८)।
भगवदभक्ता होने पर निम्न अथवा वर्णबाह्य शबरी माता की पूजनीयता शंकित न हो जाए अतः महाराज जी शूद्रों के गिने चुने ऐतिहासिक महापुरुषों में से एक शबरी को भी वाल्मीकि रामायण आदि की विचित्र व्याख्या करते हुए एवं इतिहास के सभी अन्य रामायणकारों, टीकाकारों, स्पष्ट वाक्यों, वैष्णव सम्प्रदायों, जनपरम्परा को नकारते हुए इतिहास में प्रथम बार अपनी पुस्तक रामायण मीमांसा में शबरी को ब्राह्मणी घोषित कर देते हैं। उपर्युक्त मत का सप्रमाण निवारण निम्नोक्त लेख में किया गया है। करपात्रीजी महाराज लिखते हैं, “वाल्मीकि रामायण के अनुसार शबरी एक धर्मचारिणी ब्राह्मणी श्रमणी थी। उसका शबरी केवल नाम ही था। वह शबरजाति की भीलनी आदि नहीं थी और श्रमणी अर्थात् सिद्धा सिद्धसम्मता तापसी थी। यत्र-तत्र शबरी को शबरजाति का बताना और उसके द्वारा श्रीराम को जूठे फल देना आदि प्रामाणिक न होकर प्रेमस्तुत्यर्थ ही है।” (रा.मी./४८८-४८९/…)
भीलनी शबरी के झूठे बेर श्रीराम द्वारा खाना वाल्मीकि रामायण से सिद्ध है

करपात्रीजी महाराज बताते हैं, “ब्राह्मणो न हन्तव्य:” से ब्राह्मण जाति के हनन का भी निषेध है, चाहे उत्तम हो या अधम (रा.मी/ ६१२)!! महाराज जी को भक्त शूद्रों द्वारा काषाय वस्त्र पहनना भी शास्त्र विरोधी प्रतीत होता था।(सं.ए.व/६७/८-९)। स्वामी जी का मत है कि स्त्रियां भी शास्त्रसिद्ध पातिव्रत्यजन्य गौरव की उपेक्षा करके गोपी बनने की दुश्चेष्ठा करती हैं। प्रश्न ये उठता है कि ये स्वधर्म है क्या? करपात्री महाराज की परंपरा वर्ण को जन्माधारित मानती है और तदनुकूल कर्म-व्यवस्था भी स्वीकार करती है, अर्थात स्पष्ट शब्दों में जन्म से ही सौ प्रतिशत आरक्षण। महाराज जी लिखते हैं, “विद्वान ब्राह्मण पुरोहित तथा महामात्य बनाना चाहिए। न्यायाध्यक्ष तथा अध्यापक के पद पर भी ब्राह्मणों की ही नियुक्ति होनी चाहिए। सेनापति के पद पर पवित्र वीर क्षत्रिय एवं सैनिक भी अधिकतर कुलीन क्षत्रिय ही होने चाहिए। कोषाध्यक्ष वैश्य एवं सेवाध्यक्ष शूद्र होने चाहिए। चर्म के व्यापारों तथा यंत्रों के अध्यक्ष चर्मकार होने चाहिए। शुचिता (सफाई) विभाग का अध्यक्ष अंत्यज होना चाहिए। इसी तरह प्राय: सभी यंत्र शिल्प, कल-कारखाने आदि पर शूद्रों का ही प्रधान्य रहना चाहिए।”(आ.ना./५६/१-७)
अर्थात् जन्म से ही किसी का भविष्य तय है, पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना जन्माधारित स्वधर्मानुरत प्राणी ही सच्चा हिन्दू होगा। यहाँ यह ज्ञात होना चाहिए कि करपात्रीजी महाराज जन्मना ब्राह्मण, वैश्य, शूद्रादि को मानते थे। और पूरे करपात्र साहित्य में हर स्थान पर बताया है कि जैसे सिंह जन्म से सिंह होता है, और गर्दभ जन्म से गर्दभ वैसे ही जन्म से ही वर्ण पृथक पृथक हैं। सिंह के साथ श्वान-गर्दभ की अनुरुक्ति इतने बार हुई है कि मैं इसका उद्धरण संख्या दिए बगैर छोड़ देता हूँ। अब चूँकि सबका कार्य निश्चित है ऐसे में किसी एक विशेष समाज का जन्माधारित दासत्व भी सुनिश्चित है। करपात्री महाराज दासप्रथा के भी समर्थक प्रतीत होते थे। महाराज जी लिखते हैं, “दास प्रथा को कितना भी निरर्थक अस्वाभाविक, या मूर्खतापूर्ण क्यों न कहा जाय किंतु किसी न किसी रूप में उसका अस्तित्व सर्वत्र है और रहेगा” (मा.औ.रा/२४४)
आगे सोवियत संघ का उदाहरण देने के पश्चात कहते हैं, “शासन न्याय शिक्षा सेना आदि सभी विभागों में उच्च कर्मचारियों में और निम्न कर्मचारियों में अङ्गाङ्गिभाव या शेष शेषिभाव अनिवार्य रहता है। एक व्यक्ति दूसरे का हुक्म मानने के लिए बाध्य हो, न मानने पर दण्डित हो’ यही दास प्रथा का नमूना है। इसका अभाव कब हो सकता है। धर्म नियंत्रित राज्य में ही शासन एवं शासित आदि का अभाव हो सकता है। वहाँ भी धर्ममूलक नियमन-नियामक भाव, गुरु-शिष्य, अग्रज-अनुज, पिता-पुत्र, पति-पत्नी के नियम नियामक भाव रहता ही है।” (मा.औ.रा/२४४/१-१२) बात तो यहाँ महाराज जी ने सही की है किन्तु महाराज जी तो जन्माधारित कर्मव्यवस्था के समर्थक थे, धर्म नियंत्रित का मतलब स्पष्ट है जन्म से वर्णाश्रम व्यवस्था! ऐसे में पूरा का पूरा वर्ण ही जन्म से दासत्व भाव को प्राप्त हो जाता है। और यही बाद में दासप्रथा का रूप ले लेती है, जहाँ दमन स्वाभाविक हो जाता है। हाथ कांपता है दासप्रथा जैसे शब्द को लिखते हुए। महाराज जी के उपरोक्त विचारों को पढ़ने के बाद इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञानोन्मुख व्यक्ति के लिए यह सब ग्राह्य नहीं है।
करपात्री महाराज जी ने विदेश यात्रा को सर्वथा शास्त्रविरुद्ध बताते हुए पूरी एक पुस्तक लिखी है। सभी वर्णों के लिए विदेश यात्रा निषिद्ध है। यहाँ तक की जो धर्माचार्य और आचार्य गण विदेश में लोक कल्याण का काम कर रहे हैं, इसको करपात्री महाराज उनकी “व्यक्तिगत वासना” बताते हैं। (वि.शा./३/२-७)। विदेशयात्रा पर शास्त्रीय एवं ऐतिहासिक विचार निम्नोक्त लेख में किया गया है —
कुछ महाराज जी के चेलों द्वारा विगत कुछ वर्ष में धर्म के नाम पर एक संगठित लहर सी उमड़ पड़ी है, जिनके विचारों को मैं ट्रैड वाद की संज्ञा देता हूँ। यद्यपि इनके समूचे विचारों का स्रोत करपात्ररत्नसमुच्चय ही है, फिर भी समझते है ट्रैड वाद है क्या? इसको समझने से पहले हमे समझना होगा कि एक अहंकारी की मानसिकता क्या होती है? एक बद्ध-मनुष्य, अज्ञानी कभी भी अपनी गलती स्वीकार नहीं करता। सारा जीवन केवल अहंकार के भरण पोषण में नष्ट करता हुआ वो मानव; भोक्ता और भोज्य का वैचारिक, राजनैतिक और व्यवहारिक रूप से रक्षण करता है। इनका वैचारिक मत कुछ इस प्रकार का है जिससे ब्राह्मण और उच्च वर्णों के रक्ताधारित जातिगत शुक्रगत अहंकार को आंच न आए। अर्थात् सीधे सीधे कोई ब्राह्मण और ब्राह्मण संबंधी कोई भी विषयवस्तु बुरी नहीं हो सकती है, बुरा हुआ भी तो कोई बुरा कह नहीं सकता है, अगर कोई बुरा कह भी दिया तो वह ब्राह्मण विरोधी तत्काल घोषित हो जायेगा। शुरू से शुरू करते हैं, अगर दूध में मक्खी गिर जाए तो भी ट्रैड वाद ये मानने को तैयार नहीं कि दूध में मक्खी है, उसको दुग्ध की शुद्धता पर इतनी अंधश्रद्धा है कि विवेक नष्ट हो गया, अब अगर कोई ये बोल भी दे कि दूध में मक्खी है, तो ट्रैड अनुयायी को ये लगेगा कि दूध की शुद्धता पर प्रश्न उठा कर ये दुग्ध-विरोधी हो गया। ट्रैड वाद दूध को दूध पड़ी मक्खी के साथ पीने का सैद्धांतिक रूप है। यहाँ पर मक्खी है मध्यकालीन कुरीतियाँ। किंतु इन बाह्य कुरीतियों का सम्मिश्रण होने के पश्चात् इनको परंपरा बना कर आज परंपरावाद के नाम पर छद्म परंपरावाद “ट्रैड वाद” को फैलाया जा रहा है।
परम्परा रूपी नदियों का महासागर – हिन्दू धर्म
इस ट्रैड वाद का वास्तविक परंपरावाद से कोई लेना देना नहीं है, सनातन धर्म की विविध परंपरा है, इनमें रुद्र, ब्रह्म, शांकर, रामानुज श्रीवैष्णव, पुष्टिमार्ग, गौडीय-वैष्णव, निम्बार्क वैष्णव, रामानन्दी-वैष्णव, स्मार्त्त, हरिदास, तांत्रिक, सहजिया, सिद्धांत-शैव, काश्मीरी-शैव, कापालिक, नाथपन्थ, लकुलीश, सिद्ध, औघड़, वीरशैव, जंगम, लिङ्गायत्, तंत्रमार्गी, शाक्त, समयाचारी, त्रिक, कौलाचार, वामाचार, इत्यादि अनेकानेक मत संप्रदाय भारत धरा पर व्याप्त है, इनमें आपस में दार्शनिक और सैद्धांतिक धरातल पर बहुत भेद है। यहीं पर द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, शिवाद्वैत, शाक्ताद्वैत, त्रैत आदि अनेक दर्शन परम्परा विद्यमान हैं। तो अगर आप परंपरावाद के समर्थक हैं तो परस्परानुकूलता के साथ पृथक-पृथक शाखा आच्छादित निष्पक्ष सम्प्रदायनिरपेक्ष रक्षा करनी होगी, उनकी सबकी मान्यताएं सुनिश्चित करनी होगी। लेकिन छद्म परंपरावादी केवल शांकर वा स्मार्त्त मतावलंबी होकर, और राजनैतिक दृष्टि से केवल करपात्री महाराज और वर्तमान के श्री पुरी शंकराचार्य जी के एकपक्षीय विचारों द्वारा आदेशित हैं। अत: यह स्पष्ट है कि ये समूचे हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। स्वयं पुरी शंकराचार्य एवं गोवर्द्धनपीठ द्वारा आधिकारिक रूप से जारी हिन्दू के वर्गीकरण में हिन्दू के प्राथमिक, मध्यम, उत्तम एवं उत्तमोत्तम चार भेद किए गये हैं, इनमें उत्तमोत्तम हिन्दू मात्र शांकर सम्प्रदाय के केवलाद्वैतवादियों को ही माना गया है, जो ब्रह्म को जगत का अभिन्न निमित्तोपादान कारण मानते हैं, शांकर साम्प्रदायिकों के अतिरिक्त कोई भी वैष्णव आदि ऐसा नहीं मानता है। अर्थात् कोई भी अन्य सम्प्रदाय, सिद्धान्त, मत पन्थ उत्तमोत्तम हिन्दू कभी नहीं कहला सकता है। ऐसे में स्वतः शंकराचार्य का शास्त्रप्रतिकूल, अनैतिहासिक एवं स्वघोषित कथित सर्वोच्च धर्मगुरुत्व निरस्त हो जाता है।

ट्रैड वादियों की कथनी और करनी
इन्हीं दो महाराजों के विचारो को शिरोधार्य किए हुए ये अहंकारग्रस्त ट्रैड वादी मनुष्य नौजवान बंधुओ को मिथ्याहङ्कार का झुनझुना पकड़ा कर बहला फुसलाकर कर ट्रैड वाद फैलाते हैं। विचारों को शिरोधार्य? तनिक ठहरिए! कितने ट्रैड वादी बाल-विवाहित हैं? अगर बाल-विवाह का कोई समर्थन करता है तो करके भी दिखाए, और अगर आपने इस प्रथा का अब परित्याग कर दिया है तो फिर आप अपने ही परंपरावाद के सगे नहीं हुए। ट्रैड वादी स्वयं उस पद्धति को आत्मसात् किए हुए हैं जिसको ये “सुधारवाद” कहते हैं। मलेच्छ आचार, आहार च व्यवहार लिए मलेच्छ देश स्थित होकर ज्ञान की गंगा उड़ेलने वाले ये ट्रैड बन्धु किस मुंह से बात करते हैं? चलो मान लिया जन्म से ब्राह्मण हो, फिर भी ब्राह्मणोचिताचाराहार दृष्टिगोचर होने चाहिए, केवल जन्म से ब्राह्मण बन कर, ब्रह्मणोचित सम्मान का मजा लेना चाहते हैं! आप अपने ही छद्म परंपरावाद को ठुकराकर अपरोक्ष रूप से किस परंपरावाद की दुहाई देते हैं? आज कितने सतीप्रथा समर्थक, दासप्रथा समर्थक, जन्मना छुआछूत समर्थक,”शूद्र मंदिर-प्रवेश वर्जित है” के समर्थक, विदेशयात्रा-निषेध समर्थक, जन्मना-जातिवाद समर्थक इस सब को प्रयोग में लाते हैं? उत्तर कोई नहीं! और अगर आप इन परंपराओं को प्रयोग में नहीं लाते, तो आपका परंपरावाद खोखला है! अत: स्पष्ट है की ट्रैड वाद के विचारों का डिब्बा प्रायोगिक दृष्टि से शून्य है।
तो फिर ये है क्या? ट्रैड वादी मानसिकता हर पुरानी चीज संरक्षण योग्य बतलाती है, हर पुरानी चीज सही है, गर्व का विषय है ये सिखलाती है। ऐसी मानसिकता सृष्टि के क्रम के ही विरुद्ध है। समस्त आध्यामिक विधाएं चेतना के विकास के लिए ही हैं, ये मानसिक, शारीरिक, सैद्धांतिक अलग अलग स्तरों में एक सम्मान चलती है। सामूहिक विकास से सामाजिक चेतना का विकास होता है। जहा विकास है वहां परिवर्तन सुनिश्चित है। और परिवर्तन की जब स्वीकृति होती है तब वह सुधार कहलाता है। सुधारवाद की कभी बाद में बड़े विस्तार से चर्चा करेंगे। अत: ये मान ही लेना चाहिए की ये ट्रैड वादी छद्म परंपरावाद के विचारों का डब्बा दार्शनिक विवेचना में भी शून्य है। तो फिर ये है क्या? यह नवोदित छद्म परम्परावादी ट्रैड वाद केवल और केवल जात्याभिमान का संरक्षण है! स्वयं पुरुषार्थ शून्य व बाप दादा की मिलकीयत का संरक्षण है! मेरे शुक्रजनित अस्तित्व के कारण मैं सर्वदा सही हूँ! शुक्रजनित जातिवाद का संरक्षण है! ट्रैड वाद परंपरावाद के नाम पर मुरझाई पत्तियों के संरक्षण का द्योतक है, किन्तु नित-नूतन-पुष्पों के कुसुमित पल्लवित होने की परंपरा का संरक्षण, जो वास्तविक परंपरावाद है उसका मैं पक्षधर हूँ। धन्यवाद
— प्रतिज्ञ
संक्षेपाक्षर:-
आ.औ.हिं आरएसएस और हिंदू धर्म
वि.शा. विदेशयात्रा शास्त्रीयपक्ष
सं.ए.व. सङ्कीर्तन मीमांसा एवं वर्णाश्रम मर्यादा
मा.औ.रा. मार्क्सवाद और रामराज्य
ना.आ. नास्तिक आस्तिकवाद
रा. मी. रामायण मीमांसा
वि.पि. विचार पियूष
आ.औ.रा आधुनिक राजनीति और रामराज्य परिषद्
अंकन : (पुस्तक का नाम/ पृष्ठ संख्या/पंक्ति संख्या)
-: विषयसंबंधित कथ्य तथ्य :-
• उपर्युक्त लेख में किसी भी प्रकार से करपात्री महाराज का अपमान नहीं किया गया है। लेखक आध्यात्मिक दृष्टि से महाराज जी का सम्मान करता है। यह लेख केवल महाराज जी के स्वलिखित ग्रंथो में से उनके विचारों का संकलन है। बाद के अंश में ट्रैड वाद पर चर्चा की गई है।
• जैसा की दृष्टिगोचर है लेख शास्त्र चर्चा पर नहीं है, क्या सही क्या गलत इसके निर्धारण पर नहीं है, धर्म समर्थित अथवा धर्म विरुद्ध इनके निर्धारण पर भी नहीं है । इसी तरह के अन्यान्य विषयों पर कोई चर्चा नहीं करता, यह मात्र करपात्री महाराज के विचारों का प्रस्तुतिकरण है।
• स्पष्ट रूप से लेख किसी मत, पंथ, मठ, सिद्धान्त, संप्रदायादि के विषयों पर भी नहीं है, न ही किसी का खण्डन या महिमामण्डन है।
कुतर्ककूटनाशक
यद्यपि लेख केवल करपात्री महाराज के विचार के प्रस्तुतिकरण पर था, फिर भी कुछ पूर्वाग्रह से ग्रस्त मनुष्यों को ऐसा लगा कि ये करपात्री महाराज पर प्रहार है। और तो और उनको ये लगने लगा कि ये स्मार्त्त परंपरा पर सैद्धांतिक प्रहार है। अपने इसी कल्पित विचारों को लेखक के साथ जोड़कर कुछ खण्डन जैसा लिख दिया और मुझ पर मिथ्याभियोग लगाया : यहां_पढ़े। भले ही इन्होंने विषयांतर करके बात की हो, पर उसकी भी समीक्षा मैं करने का प्रयत्न करता हूँ। यहां मैं कहीं कहीं अपने विचार अवश्य प्रस्तुत करूंगा। पूर्वपक्षी के वक्तव्य नीले रंग में एवं समीक्षा काले रंग में अंकित हैं, पुरी शंकराचार्य के वीडियो अंश लाल रंग में अंकित किए गए है।
धर्म के कुछ वैश्विक प्रतीक हैं:-भारतीय दर्शन, भारतीय परम्परा , मन्दिर- मठ आदि। अन्य भी हों तो इनका स्रोत क्या है? ऋषि मुनि एवं शास्त्र या फिर भावनाएं, मान्यताएं? द्वितीय पक्ष बन नहीं सकता क्योंकि उनका वैविध्य है, साथ ही उनके यथार्थ प्रमा का साधन होने में भी कोई हेतु नहीं। प्रथम पक्ष बने तो उनका ही अपलाप लेखक के समान व्यक्ति करने का प्रयास करते हैं। साथ ही प्रारम्भ की चार पंक्तियां ही आपको संशय-विपर्यय से ग्रसित सिद्ध करती हैं, ऐसा व्यक्ति कैसे किसी विषय के यथार्थज्ञान का कारण माना जा सकता है?
सही है, अखण्ड भारतीय ज्ञान, ध्यान, भक्ति योगादि की परंपरा के स्त्रोत शास्त्र और ऋषि मुनि हैं, और इन विधाओं के प्रवर्तक और वाहक ही धर्म के वैश्विक प्रतीक हैं, कोई मध्यकालीन मान्यता नहीं जिसको धर्म के साथ चिपकाया जाय। ऐसे में धर्म के वैश्विक प्रतीकों का जब चीरहरण होता है तो इससे धर्म की ही हानि होती है। फलस्वरूप धर्म के वैश्विक गुरुओं, जिनके विचार और आख्यान मठों के बाहर भी सार्वभौम सर्वत्रगम सर्वहृद् रमण करते हैं; जब उन साधुजनों पर सीमा का अतिक्रमण करके अनर्गल आरोप और गाली गलौच होने लगता है, तब हमे भी प्रतिपक्षभावनार्थ कारणात् लेखनी उठानी पड़ती है, सो मैंने भी उठाया, परंतु धर्म के डाकिया ठेकेदारों को यह रास नहीं आया। आप कहते हैं कि मैं संशय विपर्यय से ग्रसित हूँ, अत: मेरे यथार्थ ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह उठता है, किन्तु आपको ये विदित नहीं है कि बिना अनुभूति के यथार्थ ज्ञान थोथला है। मैंने अपने कुछ अनुभव ही प्रकट किए थे, उनकी अनुभूति ही मेरे ज्ञान का कारणभूत प्रमाण है। केवल महल में बैठे रहने से नहीं, घने जंगल में अंधेरे की अनुभूति के बाद ही उसकी यथार्थ व्याख्या संभव है, परोक्षापरोक्षघटित अनुभूतजन्य विचारों का प्रस्फुटीकरण ही यथार्थ ज्ञान है।
साथ ही प्रारंभ में ही आपने व्यक्ति केन्द्रित कुतर्क की पृष्ठभूमि बना ली, जिसका पोषण आप व्यक्तिगताक्षेपों द्वारा आगे के लेख में करते हुए प्रतीत होते हैं।
संशय में पड़े व्यक्ति को अयोग्य घोषित करने का कारण यही है कि अन्त तक वह अपनी प्रतिज्ञा को विस्मृत कर बैठता है। हेत्वान्तर, प्रतिज्ञान्तर करने को प्रवृत्त हो जाता है। लिखा है “अत: बिना स्तुति और निंदा किए, मैं महाराज जी कुछ अनसुने विचारों को प्रस्तुत कर रहा हूं” किन्तु लिखते लिखते लेखक अन्त में (1) “महाराज जी के उपरोक्त विचारो को पढ़ने के बाद इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञानोन्मुख व्यक्ति के लिए ये सब ग्राह्य नहीं है। (2) महाराज जी ने धरती चपटी कहना लिखा है (ऐसा कहीं लिखा नहीं मिलता) (3) पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना जन्माधारित स्वधर्मानुरत प्राणी ही सच्चा हिन्दू होगा (4) इन वचनों से सिद्ध है महाराज जी की विचारधारा। ऐसा प्रतीत होता है की महाराज जी को कुटुम्ब में व्यभिचार से ज्यादा परजाति में संबंध न हो इसकी चिंता थी। ऐसे ही अनेकों उदाहरण हैं जिनसे लेखक ने अपनी प्रतिज्ञा की ही हानि कर दी है। अनेकों स्थानों पर करपात्री जी के शब्द हटाएं हैं, नए शब्द जोड़े हैं, मनमाना अर्थग्रहण किया है। सद्भावना वाले व्यक्ति के ऐसे लक्षण लोक में दिखते नहीं। अत: लेख के प्रारम्भ से ही इनकी लचर अवस्था विचारणीय है। लेख का अन्त का भाग देखना तो अति आवश्यक है। क्या ऐसा व्यक्ति किसी यथार्थ सूचना का स्रोत हो सकता है?
व्यक्ति केन्द्रित कुतर्क की नाव पर सवार आप हेत्वान्तर का गीत गाते हैं। किंतु आपको प्रस्तुतिकरण की शैली नहीं पता है, उद्धृत वचनों के अंतराल में लेखक द्वारा लघु समीक्षा/आशय स्पष्टीकरण देना पड़ता है, तात्पर्य मर्मादि बताना पड़ता है। जैसा कि दृष्टिगोचर है, करपात्ररत्नसमुच्चयांश में भी (जहां मैने ट्रैड वाद की चर्चा नहीं की है) मैंने यथासंभव निष्पक्ष रहने का प्रयास किया है। इन वचनों में भी मैंने करपात्री महाराज की निंदा या स्तुति तो की नहीं। अगर मेरे द्वारा बीच बीच में सीधे सीधे निष्कर्ष रूपी वक्तव्य आपको निंदा/स्तुति लगते हैं तो ये आपका भ्रम मात्र है; प्राक्कथनानुसार आलेखविस्तारपर्यन्त मै दृढ़-प्रतिज्ञ रहा, जहाँ जहाँ मैने महाराज जी के वचन सप्रमाण उद्धृत किए हैं वहाँ मेरा कुछ नहीं है। यहाँ किसी भी स्थान पर करपात्री महाराज के शब्दों के साथ छेड़छाड़ नहीं हुई है। देखते हैं आगे आपने कुछ प्रमाण भी प्रस्तुत किया है या बस हवा में बात की है। अभी तक आपने मात्र व्यक्ति केन्द्रित कुतर्क किया है। इसके माध्यम से आपने पाठक के मन में पूर्वाग्रह स्थापित किया है, जिससे कोरी भावुकता की दृष्टि से लोगों को वश में किया जा सके।
लेखक करपात्री जी के निकट भक्तों, विश्वसनीय व्यक्तियों द्वारा रचित स्मृति ग्रन्थों को तो अप्रमाण कह रहा है। जबकि वह किसी भी दशा में अप्रमाण कोटि के नहीं हो सकते। लेकिन अन्य स्थान पर वह अपनी ही मनमानी व्याख्या करता है कि “करपात्री महाराज शूद्र मंदिर प्रवेश के विरोध में थे”। हम तो अपने पक्ष के लिए अनेकों प्रमाण उद्धृत कर सकते हैं, किन्तु तुम्हारे इस पक्ष में क्या प्रमाण हैं? करपात्री जी द्वारा प्रयुक्त कुछ शब्द इस प्रकार हैं :-“सरकार आस्तिकों के विश्वासो एवं धार्मिक भावनाओं को तोड़ने के लिए मंदिरों में बेरोकटोक सबको घुसाना चाहते हैं”(आ.औ.रा/ ६/२०-२९)। ” जो लोग मूर्ति को पत्थर बता कर खण्डन कर रहे थे वो आज देव मंदिरों को भ्रष्ट करने के लिए कट्टर मूर्तिपूजक की तरह सभी को मंदिर प्रवेश तथा देव दर्शन की आवश्यकता बतलाते है (सं.ए.व./ ६७/१-३)” “मंदिरों की मर्यादा क्या है? उसका पालन कैसे किया जाय? उसमे किनका कैसे प्रवेश हो और किनका नही?”(वि.पि./३६२/११-२०) “विश्वनाथ मंदिर हरिजन प्रवेश पर सरकारी साधुओं और सरकारी पंडितो का चुप रहना भी एक विचित्र बात है” (ना.आ./५७/२५-२६) । इतने सभी संदर्भों में कहीं भी शूद्र शब्द का प्रयोग नहीं है। फिर यह किस प्रमाण से लिखा है कि “अत: शूद्र और निम्न जातियां केवल मंदिर शिखर दर्शन से आध्यात्मिक उत्कंठा शांत कर सकती है।” उनके व्याख्यानुसार शूद्रादि निम्नाति जातियों को मंदिर प्रवेश की अनुमति धर्म प्रदत्त नही थीं।” अभी तक प्रमाणहीन बातें कर तुम तो प्रलापीमात्र ही सिद्ध हो रहे हो।
आपने लिखा “लेखक करपात्री जी के निकट भक्तों, विश्वसनीय व्यक्तियों द्वारा रचित स्मृति ग्रन्थों को तो अप्रमाण कह रहा है” जबकि ये झूठ है, ऐसा कहीं कहा ही नहीं/या निष्कर्ष निकाला ही नहीं गया। मैंने कहा :“प्रमाण में वो सत्य पर आवरण डालता हुआ कोई स्मृति ग्रन्थ उद्धृत करते हैं!” आपको ये भी नहीं पता कि प्रमाण में वरीयता क्या होती है? निश्चित रूप से करपात्री महाराज के स्वलिखित ग्रंथ किसी अन्य के द्वारा लिखे हुए ग्रंथ से सहस्त्र गुना अधिक महत्व रखते हैं। इसके ऊपर से उनके निकट भक्तों द्वारा विरचित करपात्री महाराज के जीवन प्रसंगों की स्तुति करते हुए ग्रंथों की विश्वसनीयता शैक्षिक निष्पक्षता की दृष्टि से सदैव संदिग्ध रहेंगी, यही युक्तिसंगत विधान है। अत: पुन: अपनी बात दोहराता हूं “करपात्री महाराज के स्वयं के साहित्य ही उनकी विचारधारा का निष्पक्ष प्रतिबिंब हैं।”
अगला आक्षेप ये लगाया गया की लेखक ने मनमानी व्याख्या की है। सर्वप्रथम मैं आपको ये बताना चाहूंगा कि पहले प्रमेय प्रस्तुत किया जाता है फिर उसके प्रमाण दिए जाते हैं। यथा मैंने पहले ये प्रमेय रूपी वक्तव्य रखा कि करपात्री महाराज शूद्र के प्रवेश के विरोध में थे। फिर इससे संबंधित अष्ट प्रमाण प्रस्तुत किए, जो वक्तव्य को सिद्ध करने हेतु पर्याप्त हैं। करपात्री महाराज के उद्धृत वक्तव्यों (जिनको मैने हाईलाइट किया है) में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं हुई। किन्तु आपने व्युत्पतिशास्त्र कुतर्क का सहारा ले मूलार्थ विषयान्तर कर एक शब्द “शूद्र” पर प्रलाप करने लगे कि दिखाओ ये शब्द कहाँ प्रयोग किया है। चलो माना की की शूद्र का प्रयोग नहीं किया है। लेकिन किन किन शब्दों का प्रयोग किया है? उत्तर : “भंगी” , “हरिजन”, “अंत्यज” इत्यादि। अब भंगी यानी वाल्मीकि समाज किस वर्ण का है? ये भी भला कोई पूछने वाली बात हुई? “हरिजन” में बहुत से दलितों अंत्यजों चण्डालों के अलावा यह शब्दावली शूद्रों के लिए भी प्रयुक्त होती है। ये सभी विभाजन शिथिल है, इसी शिथिलता का लाभ उठाकर एक विशेष वर्ग को प्रवेश से इतिहास में वंचित किया गया! आप दलित, अंत्यज, शूद्र, अनुलोमज, प्रतिलोमज, चाण्डाल इत्यादि शब्दों से मत खेलिये! वैसे भी संपूर्ण विभाजन चार वर्णों में ही हुआ है, कोई अन्य पांचवा वर्ण नहीं है, “चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः“ इनसे जो पृथक तथाकथित “अवर्ण” हैं भी कभी शूद्र की श्रेणी में थे। और अवर्ण सवर्ण का खेला मध्यकालीन मल मात्र है।
कहाँ आप पहले गर्भगृह की तान छेड़े हुए थे, और कह रहे थे कि सभी को मंदिर प्रवेश का अधिकार है! और अब ढोल की पोल खुलते ही अंत्यज, चांडाल पर बात ले आए! और अब एक शब्द को पकड़ कर मिथ्या खण्डन का दावा ठोकने लगे। आगे और आपके झूठ की पोल खोलते हैं।
शंका :- पुरी शंकराचार्य जी ने तो शूद्र का मन्दिर निषेध माना है उनकी वीडियो का शीर्षक ही है “शूद्र के मन्दिर प्रवेश में अधिकार”। समाधान:- शीर्षक, अनुशीर्षक लिखने लिखवाने का कार्य तो पुरी आचार्य जी का है नहीं, न ही उनके पास साधन व समय है।अनेकों वीडियो के शीर्षक गलत ही हैं। प्रश्नकर्ता व्यक्ति का प्रश्न यह है कि “ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ,शूद्र आदि जो भी यह हैं उनको मंदिर प्रवेश में शास्त्रीय निषेध है या नहीं?”उपशीर्षक लिखने वाले व्यक्ति ने यहां पर लिखा है “क्या शूद्र मंदिर जा सकते हैं?” गलती स्पष्ट है। इतनी दीर्घ वीडियो में कहीं पर भी पुरी शंकराचार्य जी द्वारा यह नहीं कहा गया है कि “शूद्र को मन्दिर प्रवेश नहीं है,वह शिखर दर्शन कर ले” अपितु अनेकों शूद्र व्यक्तियों के इसके विपरीत वक्तव्य देखने को आते हैं कि उन्हें पुरी शंकराचार्य जी ने दीक्षा दी,मंदिर प्रवेश के विषय में पूछने पर नहीं रोका इत्यादि। अत: प्रमाणाभाव में कल्पना करना ठीक नहीं।।
सर्वप्रथम तो कलयुग प्रह्लाद श्री श्री पुरी शंकराचार्य के वीडियो का शीर्षक एकदम स्पष्ट है, फिर भी आप अपने ही पक्ष की इतनी बड़ी चूक बता कर पलायन करके निकल लिए। कोई बात नहीं ये आपकी लीपापोती ज्यादा देर तक नहीं टिकेगी। आइए पाठकों पुरी शंकराचार्य के वीडियो पर प्रकाश डालते हैं: (मूल वीडियो लाल फॉण्ट में)
प्रश्न: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ………(घटिया स्तर की निम्न ध्वनि जिसमे कुछ स्पष्ट नहीं है) .. उसको मंदिर में जाने के लिए क्या शास्त्रों में मतलब निषेध है, या अंदर जा सकता है और पूजन भी कर सकता है, कि नहीं?
महाराज जी०: आपका नाम क्या है ?
(महाराज जी हमेशा सर्वप्रथम जाति ही पूछते हैं, लगभग सभी वीडियोज् में; यहाँ तक कि महान नित्य संन्यासी संतों जिनके चीरहरण की बात मैंने प्राक्कथन में कहीं थी, उनको भी महाराज जी सर्वदा जातिसूचक शब्दावली से संबोधित करते हैं।)
प्रश्न कर्ता के नाम नाम बताने के बाद:
महाराज जी: क्या कहे? उपाध्याय है? बैठिए!
आपको तो कहीं रोका नहीं गया? आपने रोका था !! आपको को नहीं रोका, अच्छा ठीक हूं हू हू (हंसकर) !
(ये इस बात का भी सूचक है कि इनके ट्रैड वादी शिष्य किस प्रकार के हैं! जो लोगो को रोक देते हैं मंदिर में घुसने से)
गीता से श्लोक उद्धृत करने के पश्चात महाराज जी समझाते हैं कि किस प्रकार फल चौर्य नहीं है, फिर जिस बात को लेकर आप सभी पलायन कर रहे थे; जिस शब्द “शूद्र” को लेकर इतने देर मिथ्या भाषण कर रहे थे उसी की ढोल खोल दी महाराज स्वयं ने:
महाराज जी : “बहुत अच्छा उदाहरण है, आप शूद्र और अंत्यज को छोड़ दीजिए, मुझे ले लीजिए क्योंकि आजकल ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में – न देना भी अनुचित है और दे दिया तो बस जेल में हथकड़ी ही हूं हूं हूं (हंसकर) इसीलिए सुप्रीम कोर्ट तक कोई फांस न सके और सारी बात आ जाए वो शैली तो अपनानी पड़ती ही है; समझ गए नहीं तो हम रोजै जेल में जाए! हूं हूं हूं (हंसकर) “
स्पष्ट रूप में आप सभी कान फाड़ फाड़ कर सुन लीजिए, “शूद्र और अंत्यज” अगर इनको पृथक भी मानें तो भी दोनों के अनधिकारों की बात हुई है। शूद्र शास्त्रीय शब्दावली है जबकि चमार, भंगी, हरिजन दलित ये सब जातिगत व्यवहारिक शब्दावली है जो आम समाचारों में प्रयुक्त होती हैं। सार्वजनिक पूजास्थल (प्रवेश अधिकार) अधिनियम 1956 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को मंदिर में पूजा से रोकने पर 6 माह कैद की सजा भुगतनी पड़ सकती है। इस प्रकार मंदिर प्रवेश संबंधी और तो और महाराज जी को अदालतों और भारतीय न्यायिक संविधान के अंतर्गत नियम कानून पता हैं, इसीलिए उन्होंने पूरे वीडियो के समय केवल सांकेतिक प्रयोग किया है! शासकों पर शासन की रट लगाए हुए महाराज जी को हथकड़ी लगने का क्या डर? आगे फिर महराज जी अपने कथित राजनैतिक और सांस्कृतिक सर्वोच्च पद की बात का स्मरण करते हुए पुनः “शूद्र” शब्द की पुष्टि कर देते है :
महाराज जी : ” मै सन्यासी हूं, आप शूद्र और दलित की बात छोड़ दीजिए….
क्यों बार बार महाराज जी शूद्र शब्द की पुरुक्ति कर रहे है?
अत: पूर्ण रूप से आपकी सारी बातें मिथ्या हैं।
चूँकि आपने पुरी शंकराचार्य की वीडियो की तान छेड़ ही दी है तो एक और वीडियो देख लो:
पुरी मंदिर प्रवेश आंदोलन १९३२-३४ तो विश्व प्रसिद्ध है। इससे पहले मंदिर में निम्न जातियों का भी आना वर्जित था, अब सभी हिन्दू प्रवेश कर सकते हैं, केवल गैर हिंदू प्रवेश वर्जित है। निम्न जातियों में कैवर्त मछुआरों जैसे गोखा, सियुल, तियार, न्यूलिय, कन्द्रादि का प्रवेश निषिद्ध ही था ये सभी कैवर्त्त जातियां शूद्र ही कहलाती हैं। पुरी शंकराचार्य बताते हैं कि अब शास्त्रसम्मत मंदिर प्रांगण प्रवेश (≠ गर्भगृह) नहीं होता! अब जो नियम है वो शासनतंत्र द्वारा प्रतिपाद्य है, इसी बात को ख्यापित करते हुए पण्डे पुजारियों की आलोचना करते हुए महाराज जी एक अन्य वीडियो में कहते हैं-
“पण्डे पुजारी भी जिनको शास्त्र का विधिवत ज्ञान नहीं है जिनको बिल्कुल ज्ञान नहीं है; वे समझते हैं कि जिनका प्रवेश निषेध किया गया है वो शास्त्रसम्मत निषेध है। वो शास्त्र सम्मत निषेध नहीं है! शास्त्रसम्मत निषेध तो पहले क्रियान्वित था। अब तो ओडिसा शासनतंत्र के द्वारा, यहाँ के न्यायालय के द्वारा जो निषेध आज्ञा है या विधि है, उसका अनुपालन हो रहा है। शास्त्र की मर्यादा यही है कि जो व्यक्ति शास्त्र सम्मत विधा से मंदिर के प्रांगण में प्रविष्ट होते हैं, विधिवत् श्री जगन्नाथ दारुब्रह्मादि का दर्शन करते हैं; उनको फल प्राप्त होता है, लेकिन जो व्यक्ति शास्त्रीय मर्यादानुसार क्योंकि शुद्धि-अशुद्धि में शास्त्र ही प्रमाण है……………..()….. शास्त्रों ने जिनके लिए निषेध किया है उसके उपर अनुग्रह है कि वो शिखर का दर्शन करके, परिक्रमा करके भी वही फल प्राप्त कर सकते हैं, फल से किसी को वंचित नहीं किया गया है”
शूद्र मंदिर प्रवेश निषिद्ध है, मंदिरों के बाहर ऐसे निषेध सूचक वाक्य लगाने वाले वेद वेदांत मर्मज्ञ पंडे पुजारी वास्तव में किससे प्रेरित हैं? आंखे धोखा नहीं खाती!




श्रीपाद व्यासतीर्थ स्वामी जी के शिष्य महान वैष्णवाचार्य श्री कनकदास जिनका जन्म बीर गौडा और बचम्मा के गड़रिया कुरुबा जाति में हुआ था। कुरूबा जाति शूद्र मानी गई है। ये रेड्डी जाति समतुल्य प्रथम शूद्र है और स्वयं को “इंद्र शूद्र” से संबंधित करते हैं। एक बार व्यासराज मठ के व्यासराय स्वामीजी के अनुरोध पर वे उडुपी आए थे। लेकिन यह एक ऐसा मध्यकालीन युग था जब पंडितो द्वारा जाति के आधार पर भेदभाव अपने चरम पर था। मंदिर के पंडे पुजारियों ने उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया क्योंकि वह शूद्र थे, हालांकि व्यासराय स्वामीजी ने उन्हें कनकदास को मंदिर में जाने के लिए कहा था। कनकदास मंदिर के बाहर कृष्ण, उनके भगवान का ध्यान कर रहे थे, और श्रीकृष्ण की स्तुति में गीत गा रहे थे। उन्होंने हफ्तों तक ऐसा किया, मंदिर के बाहर डेरा डाला और खाना पीना भी स्वयं से बनाया। यद्यपि मंदिर में प्रवेश करने से रोके जाने से व्याकुल होकर उन्होंने भगवान कृष्ण की स्तुति में कविताओं की रचना की और कीर्तन (कविता) की रचना की जो आज भी प्रासंगिक हैं। वह गाते हैं कि कैसे सभी मनुष्य समान हैं, जैसे सभी का जन्म समान रूप से शारीरिक रूप से होता है, सभी एक समान जल साझा करते हैं और एक ही सूर्य को पृथ्वी पर जीवन की सहायता करते हुए देखते हैं। हिंदू मंदिर और मंदिरों में देवता हमेशा पूर्व की ओर मुंह करते हैं। उडुपी में, यद्यपि, भगवान कृष्ण, देवता रूप में, पश्चिम का सामना करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कुछ अस्वाभाविक हुआ होगा जब कनकदास मंदिर में जाने की अनुमति के लिए कई दिनों तक मंदिर के बाहर थे। ऐसा माना जाता है कि उन दिनों, जब कनकदास को भगवान कृष्ण के दर्शन करने की अनुमति नहीं थी, उन्होंने अपने प्रिय भगवान के लिए कीर्तन गाते हुए अपना दिल बहला दिया। चमत्कारिक रूप से, भगवान कृष्ण के देवता पश्चिम की ओर मुख किए। मंदिर की बाहरी दीवारों में एक दरार के माध्यम से, श्री कृष्ण के प्रबल भक्त कनकदास अपने भगवान को देखने में सक्षम हो गये।
इसने रूढ़िवादी ट्रैड वादियों को चकित कर दिया कि ऐसा कुछ क्यों हुआ। तब से, श्रीकृष्ण के देवता पश्चिम की ओर मुख किए हुए हैं, हालांकि मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है। अभी चमत्कार बाकी है। आज वह खिड़की ( “कनकना किंडी” कहा जाता है) कनकदास को श्रद्धांजलि के प्रतीक में विद्यमान है। उडुपी के श्रीकृष्ण मंदिर में आने वाले भक्त, इस छोटी सी खिड़की के माध्यम से भगवान कृष्ण के दर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। यह कनकदास के लिए एक स्मारक है, और उदार हिंदू मान्यता का भी प्रमाण है कि भक्ति, कविता और संतत्व जाति और पंथ से ऊपर हैं और निश्चित रूप से कठोर बनाए गए रूढ़िवाद से ऊपर हैं। ऐसा कहा जाता है कि कनकदास इस स्थान पर “गोपुर” के सामने एक झोपड़ी में रहते थे। बाद में, उनकी स्मृति में एक छोटा मंदिर बनाया गया और इसे “कनकना किंडी” या “कनकना मंदिर” के नाम से जाना जाने लगा। इसी प्रकार श्रीपाद वल्लभाचार्य ने शूद्र कृष्णदास(अष्ट छाप) को मंदिर का मुख्य मैनेजर तक नियुक्त किया।
अब आप ट्रैड वादी बताए मुझे उस समय किन शास्त्रों के आधार पर शूद्र कनकदास को मंदिर प्रवेश नही दिया गया था? क्या वो शास्त्र लुप्त हो गए क्या? अपने लोगों को पागल बनाना छोड़ दीजिए!
अब नहीं लगता मुझे इस विषय पर बोलने की कुछ आवश्यकता है। करपात्री महाराज और उनके अनुयायियों के विचार स्पष्ट हैं, वैसे ही मेरा आलेख केवल उनके विचार पर था। वैसे तो आज के समय में मंदिर अनधिकार की परंपरा भी छिन्न भिन्न हो गई है, सभी को मंदिर प्रवेश का अधिकार प्राप्त है चाहे हरिजन हो या भंगी या अंत्यज, या दलित या शूद्र! सबको समान मंदिर प्रवेश का अधिकार प्राप्त हो, सर्वप्रथम इस आंदोलन की नींव श्रीपाद रामानुजाचार्य ने डाली थी। अब आप जैसे ट्रैड वादियों के सामने समस्या ये है कि इसका पालन तो कर नहीं रहे हो, अपने गलतियों को स्वीकार भी नहीं कर रहे हो, जब ऐसी परंपरा काल के गर्त में समा गई और अनेक संत महात्माओं द्वारा धर्मविरुद्ध घोषित हो गई! ये परंपरा अब बची ही नहीं तो संरक्षण किस बात का है?क्योंकि संरक्षण (conservation) तो endangered का किया जाता है extinct का नहीं! आपका कथित संरक्षण है केवल और केवल मिथ्याहङ्कार का! ऐसे में आपका छद्मपरंपरावाद नितांत खोखला तो निकला ही !!
लेखक को अस्पृश्य और अभक्ष्य जैसे साधारण पदों के मध्य अन्तर ही ज्ञात नहीं। भक्ष्याभक्ष्यविवेक को यह अस्पृश्यता नाम दे रहे हैं तो अस्पृश्यता को न जाने क्या नाम देंगे। इसमें क्या ही दोष है? यह व्यक्ति यह बताए कि करपात्री जी ने पृष्ठ 63 में वैष्णवाचार्य शब्द कहां वर्णित किया है?यह व्यक्ति अपने ही मन से शब्दों का जोड़ और हेर फेर करने में लगा है। यह दिखाना चाह रहा है कि मान्य वैष्णवाचार्य भी इनकी ही भांति वेद विरुद्ध सुधार के पक्षधर थे, इसका वर्णन आगे विस्तृत रूप में किया जाएगा। अभी के लिए इतना जान लीजिए कि “वर्णाश्रम स्वराज्य संघ, धर्मसंघ में सभी वैष्णव सम्प्रदायों के मान्य आचार्य भी थे।
आप कितने प्रतिभासंपन्न लग रहे हैं ये भक्ष्याभक्ष्यविवेक? अभक्ष्य, अस्पृश्य का अंतर? महाराज जी ने स्वयं इस शब्द का प्रयोग किया है तथा बार बार और जन्मना छुआछूत को शास्त्र सिद्ध कहा है। ये मानते हैं कि रोटी व्यवहार तक न हो। शूद्र की रोटी, शूद्र की रोटी की रट लगा रखी है और आपकी हिम्मत तो देखो, छी! इसी शूद्र की रोटी के विषय में तो एक वीडियो में पुरी शंकराचार्य जी ने श्रीरामजन्मभूमि के योद्धा, अयोध्या के सन्त श्रीनृत्यगोपालदासजी महाराज तक की निन्दा की ही थी। अगर कोई कहे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अछूत है क्योंकि जन्म से शूद्र है तो मेरे दृष्टि में ये विवेक नहीं विनाशोन्मुखता है, यहाँ मैं अपने विचार जरूर लिखूंगा।
आपने अपने मन से अपने मन से क्या लगा रखा है?? जहाँ जहाँ करपात्री महाराज के वचनों का उद्धरण दिया वहाँ कोई छेड़ छाड़ नहीं हुई अब लेखक उद्धरण के मध्य कुछ न कुछ तो लिखेगा ही? उसमें आप रोने लगे कि ये इनके वचनों को उल्ट पलट दिया! ये सब आपका पारिस्थितिक कुतर्क है। पाठक स्वयं ही समझ लेगा। स्पष्ट रूप से कथावाचक, सुधारक, कीर्तन, सांस्कृतिक सामूहिक भगवन्नाम कीर्तन इत्यादि का वर्णन करने वाली संपूर्ण पुस्तक जिसका शीर्षक ही संकीर्तन मीमांसा हो वो किस पर कटाक्ष है ये कोई सूंघ के भी जान लेगा। उनका सीधा मन्तव्य तत्कालीन वैष्णवाचार्यों के प्रति ही था जो रोटी व्यवहार, छुआछूत, जात परजात, जन्मना कर्तव्य भुलाकर शोषित अछूतोद्धार हेतु हरिनाम संकीर्तन करवा रहे थे। अतः अपने कुतर्क अपने पास रखें!
और कौन कौन वैष्णवाचार्यों के क्या क्या पक्ष हैं इसकी जानकारी किसी को आपके मुंह से नहीं अपेक्षित है जिनके स्वघोषित सार्वभौम गुरु मध्वाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, गोस्वामी तुलसीदास सब को स्मार्त अद्वैतवादी बता चुके हो। वैष्णवाचार्यों के क्या विचार हैं वो अभी चर्चा का विषय ही नहीं हैं! करपात्री महाराज के लिए तो देवल और मेधातिथि ही शास्त्रविरुद्ध सुधारवादी थे तो वैष्णवों की तो क्या ही बात करनी! ये सब बातों का उपरोक्तोक्तालेख से कोई मतलब नहीं है, आप अनायास ही अपने छद्म पाण्डित्य का प्रदर्शन कर रहे हैं।
शूद्र को किसी भी शास्त्र में अस्पृश्य नहीं कहा उनसे मिलना जुलना आदि के बाद भी कोई दोष नहीं होता तो छाया पड़ने पर स्नान की बात ही क्या है?
शास्त्र की बात कोई नहीं कर रहा यहाँ! यहाँ विषय है करपात्री महाराज के विचार का, बार बार बार एक ही कुतर्क करना, उस चीज का जिसका आलेख से लेना देना नहीं है, उस अन्यत्र चिंतनीय विषय पर आपने पूरा प्रमाणशून्य विषय विमुख कथित प्रत्युत्तर डाल दिया जिससे पाठक को ऐसा प्रतीत हो कि अहो! ये सारी बातें गलत हैं!!! बाकी रही बात छुआछूत की तो स्पष्ट रूप से भंगी-चमार, हरिजन, अंत्यज आदि जातिसूचक शब्द जो प्राय: शूद्र के चर्चित शब्दावली में ही प्रयुक्त होते हैं, अगर नहीं भी होते तो भी इनमें पृथकत्व का भाव का अनुपालन दुर्लभ है, इतिहास साक्षी है! यहाँ पर आप जानबूझकर पारिभाषिक कुतर्क करके शब्दों का विच्छेदन करने का प्रयत्न कर रहे हैं, जबकि करपात्री महाराज ने स्पष्ट रूप से शूद्र शब्द का प्रयोग करके उन्हें कीर्तनों सम्मेलनों में मिलने जुलने से मना किया है। शास्त्र क्या कहते हैं आप कितनी घोपले बाजी करके ढक रहे हो!
अगर मान भी लें कि आपको विषय विमुख बात ही करनी है और आप कह रहे हैं कि शूद्र को किसी शास्त्र में अस्पृश्य नहीं कहा तो जाके ग्रंथ पढ़ना प्रारम्भ कर दीजिए। स्पष्ट वचन है ग्रन्थों में “सर्वं च शूद्रसंस्पृष्टमपवित्रं न संशय:” अर्थात् शूद्र के संपर्क में/स्पर्श में आने वाली सभी सभी वस्तुएं अपवित्र हो जाती हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। यहाँ तक कि संसार में ३ चीज जो शास्त्रों द्वारा अपवित्र (लोके त्रीण्यपवित्राणि) कहीं गई उनमें शूद्र भी है। “श्वा च शूद्र:श्वपाकश्च अपवित्राणि” अर्थात् शूद्र, कुत्ता, और चण्डाल अपवित्र है! आपने हमें पहले तुच्छ घोषित कर दिया तो आप जैसे महापंडित में इतनी तो योग्यता होनी ही चहिए कि उपरोक्त वचन कहाँ से उद्धृत है ये आपको पता हो! अपितु गौतम धर्मसूत्र ही आपको नहीं पता वहा भी कथन है कि, “शुद्र का लाया जल दूषित हो जाता है!” इसीलिए ये शब्दों में विच्छेद उत्पन्न करके अपने भोले भाले पाठकों का जी न बहलाइए ये कहकर- “ये देखो उन्होंने शूद्र नहीं लिखा, भंगी-चमार, हरिजन-दलित अन्त्यज ये सब लिखा है (हालांकि उन्होंने शूद्र भी लिखा है किन्तु आपको दूर दृष्टि दोष है)! इतने झूठ के पश्चात् भी आप कैसे शास्त्र को लेकर मिथ्या भाषण करते हैं! धिक्!
आप कहते हो शूद्र से छुआछूत नहीं था और उसकी रोटी खाते तो आपको एक वैष्णव ग्रंथ निहित इतिहास बताता हूँ, जो वैष्णवाचार्य श्री रविदास जी से संबंधित है। रविदास जी तो जन्म से शूद्र थे।
आपु हूं पधारें उन बहु धन पटवारें,
विप्र सुनि पांव धारें,सीधौ दै निबारियै।
करि के रसोई द्विज भोजन करन बैठे,
द्वे-द्वे मध्य यों रविदास को निहारियै।
देखि भई आंखें,दीन भावै सिव सालै भये
~भक्ति रस सुबोधीनी टीका, भक्तमाल
रानी के आमंत्रण पर श्री संत रविदास जी चित्तौड़ पधारे। वहाँ रानी ने उनका बहुत आदर किया और बहुत भेंट भी दिया। इसी अवसर पर रानी ने सभी साधु संतो के लिए एक विशाल भंडारे का भी आयोजन किया। आयोजन में ब्राह्मणदेव भी आए, किंतु जन्मना छुआछूत प्रतिस्थापक ब्राह्मणों ने भंडारे में पका अन्न खाने में आपत्ति की, इसलिए रानी ने उनके लिए कच्चा समान का प्रबंध कर दिया, तत्पश्चात् ब्राह्मणों ने अपने हाथ से रसोई बनाई लेकिन जब वो खाने के लिए पंक्तिबद्ध होते हैं तब जो देखते हैं कि हर दो ब्राह्मण के बीच एक संत रविदास जी बैठे हैं। संत रविदास जी का प्रभाव देख कर उनकी आंखे खुली और वो अत्यंत दीन हीन अवस्था में संत रविदास जी से क्षमा याचना मांगने लगें!! उस समय किस शास्त्रों का पालन करके ब्राह्मण ऐसा बर्ताव कर रहे थे? वो शास्त्र लुप्त हो गए क्या आज? वो परंपरा कहा गई आज??
वैसे भी शुद्र से रोटी व्यवहार भी निषिद्ध है ट्रैड वादियों के मत में। आप विषय विमुख हो कर, शास्त्र की बात करते हो! तो मैं कुछ और भी लिख ही देता हूँ। कहीं कहा गया है कि ब्राह्मण के मरते समय यदि शूद्र का अन्न उसके पेट में रहता है तो अगले जन्म में वो या तो सूकर होता है या शूद्र के कुल में जन्म लेता है (“शूद्रान्नोदरस्थेन य: कश्चिन्म्रियते द्विज:,स भवेच्छूकरो ग्राम्यस्तस्य वा जायते कुले“) इत्यादि उदाहरण भरे पड़े हैं! करपात्री महाराज जो भी बोलते हैं सब शास्त्र सम्मत होता है।
तुम अपने ही शब्दों पर ध्यान नहीं देते, लिखते हो कि “पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना” किन्तु करपात्री जी के वचनों में स्पष्ट ही “विद्वान ब्राह्मण” “वीर क्षत्रिय” आदि पद प्रयुक्त हैं,विद्वान व वीर बनना क्या बिना पुरुषार्थ के सम्भव है!! और यह बताओ पुरुषार्थ है क्या? मनमाना आचरण? या धर्म अर्थ काम मोक्ष आदि की इच्छा? यदि प्रथम पक्ष मानों तो सात जन्म लेने पर भी उसे सिद्ध नहीं कर पाओगे। द्वितीय पक्ष मानों तो धर्म शास्त्राधिगम्य है,अर्थ के स्रोत भी वैश्य शूद्रों के ही पास अधिक हैं,मोक्ष भी स्वधर्म में स्थित होकर अनेक माध्यमों से ही मिलता है। अत: यह व्यवस्था ही पुरुषार्थ है इसके अतिरिक्त किया कार्य निन्द्य है।
आप भी थोड़ा शब्दों पर ध्यान देना सीख लीजिए और आंख फाड़ कर देखना सीखिए। झूठ पर झूठ तो इतना कि “विद्वान ब्राह्मण” और “वीर” दिखा पर पूरी बात ही काट दी! उन्होंने कहा “विद्वान ब्राह्मण पुरोहित तथा महामात्य बनाना चाहिए। न्यायाध्यक्ष तथा अध्यापक के पद पर भी ब्राह्मणों को ही नियुक्ति होनी चाहिए। सेनापति के पद पर पवित्र वीर क्षत्रिय एवं सैनिक भी अधिकतर कुलीन क्षत्रिय ही होने चाहिए ” ये बात क्यों लिखना भूल गए कि अध्यापक और न्यायाध्यक्ष में कोई विशेषण नहीं लगाया ये नहीं देखा “ब्राह्मणों को ही“। और भला कुलीनता कौन सी योग्यता है सेनापति के लिए!! और जो झाड़ू साफ करे वाले और दास लोग है उनमें तो योग्यतायोग्यता कोई प्रश्न ही नहीं! इसके बाद फिर से वही विषयविमुख पांडित्य का व्यर्थ प्रलाप प्रलाप; मैं बार बार नहीं बोलूंगा इस पर अंत में चर्चा करेंगे आगे कुछ नहीं कहूंगा पाठकगण समझदार है।
तुम अपने ही शब्दों पर ध्यान नहीं देते, लिखते हो कि “पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना” किन्तु करपात्री जी के वचनों में स्पष्ट ही “विद्वान ब्राह्मण” “वीर क्षत्रिय” आदि पद प्रयुक्त हैं,विद्वान व वीर बनना क्या बिना पुरुषार्थ के सम्भव है!! और यह बताओ पुरुषार्थ है क्या? मनमाना आचरण? या धर्म अर्थ काम मोक्ष आदि की इच्छा? यदि प्रथम पक्ष मानों तो सात जन्म लेने पर भी उसे सिद्ध नहीं कर पाओगे। द्वितीय पक्ष मानों तो धर्म शास्त्राधिगम्य है, अर्थ के स्रोत भी वैश्य शूद्रों के ही पास अधिक हैं, मोक्ष भी स्वधर्म में स्थित होकर अनेक माध्यमों से ही मिलता है। अत: यह व्यवस्था ही पुरुषार्थ है इसके अतिरिक्त किया कार्य निन्द्य है।
आप भी थोड़ा शब्दों पर ध्यान देना सीख लीजिए और आँख फाड़कर देखना सीखिए। झूठ पर झूठ तो इतना कि “विद्वान ब्राह्मण” और “वीर” दिखा पर पूरी बात ही काट दी! उन्होंने कहा “विद्वान ब्राह्मण पुरोहित तथा महामात्य बनाना चाहिए। न्यायाध्यक्ष तथा अध्यापक के पद पर भी ब्राह्मणों को ही नियुक्ति होनी चाहिए। सेनापति के पद पर पवित्र वीर क्षत्रिय एवं सैनिक भी अधिकतर कुलीन क्षत्रिय ही होने चाहिए, “ये बात क्यों लिखना भूल गए कि अध्यापक और न्यायाध्यक्ष में कोई विशेषण नहीं लगाया ये नहीं देखा “ब्राह्मणों को ही”। और भला कुलीनता कौन सी योग्यता है सेनापति के लिए!! और जो झाड़ू साफ करे वाले और दास लोग हैं उनमें तो योग्यतायोग्यता कोई प्रश्न ही नहीं! इसके बाद फिर से वही विषयविमुख पांडित्य का व्यर्थ प्रलाप प्रलाप; मैं बार बार नहीं बोलूंगा इस पर अंत में चर्चा करेंगे आगे कुछ नहीं कहूंगा पाठकगण समझदार है
आगे मूढ़ लेखक ने एक और दु:साहस किया है”जासु छांह छुई लेइअ सींचा” की दृष्टि से अगर शूद्र की छाया भी पड़ जाय तो भी जल से सींच लेना चाहिए ऐसा।” प्रथमत: यह शब्द करपात्री जी के हैं ही नहीं। उन्होंने लिखा है कि “वे कहते हैं “राघवेन्द्र केवट के उस दैन्य को मिटा देना चाहते थे,जिसे समाज ने उस पर लाद दिया था। वह धन की दृष्टि से ही नहीं,हर तरह से हीन कर दिया गया था वह अस्पृश्य था “वह किसी राजा के समझ मुख खोलने की कल्पना भी नहीं कर सकता था” यह है अन्यों का पक्ष इसके उत्तर में करपात्री जी ने लिखा है “….., कथावाचक सज्जन भी उसके अपवाद नहीं हैं। परन्तु उनके अनुसार राम एवं तुलसी को अवश्य ही नई आचार संहिता प्रचलित करनी चाहिए थी। कम से कम “जासु छांह छुई लेइअ” का उत्तर तो देना चाहिए था। अब यह मूढ़ लेखक बताए कि इसमें “जासु छांह छुई लेइअ सींचा” की दृष्टि से अगर शूद्र की छाया भी पड़ जाय तो भी जल से सींच लेना चाहिए” यह कहां लिखा है?इतनी हीनभावना से ग्रसित लेखक लिखता है कि “अत: बिना स्तुति और निंदा किए, मैं महाराज जी कुछ अनसुने विचारो को प्रस्तुत कर रहा हूँ”।
आपको आलेख कैसे लिखे जाते हैं और गणितीय तर्कशास्त्र द्वारा कैसे चीजों का वाचन और पाठनबोध किया जाता है वो भी नहीं पता! मैंने तो कहीं आलेख में ये कहा ही नहीं कि ये हूबहू शब्दशः करपात्री महाराज का वक्तव्य है? इसको मैंने बोल्ड और उद्धृत भी नहीं किया तो फिर ये आपका प्रलाप क्यों? न ही इसका कोई उद्धरण संख्या लिखा! फिर भी अनर्गल आक्षेप कुतर्क? आपकी आँखें और आपकी बुद्धि हीनभावना से ग्रस्त हो गई है, जो संसार के हर वक्तव्य में करपात्री महाराज देखते फिरते हो। आप ये प्रश्न पूछ रहे हो कहाँ लिखा है! अरे अग्रज! आपने इससे पहले कोई लेख देखा ही नहीं! ये तो मेरा आशय बतलाता हुआ वक्तव्य है, कई उद्धृत करपात्रवक्तव्यों के बीच; जिसकी बात मैंने की! अब देखते है कि ये वचन क्या है। “जासु छांह छुई लेइअ सींचा” ये तुलसीदास का वचन निश्चित रूप से उस तत्कालीन परंपरा का द्योतक है जिसमें छाया पड़ने पर भी लोग अपने आपको सींचते थे! सीधा सीधा शाब्दिक अर्थ ही यही है। अब कोई इस परंपरा का समर्थन करता है तो भाई मेरे उसके लिए क्या लिखा जाए! इतने घपलेबाजी करके आप लोग थकते नहीं हो! अंत में जब करपात्री महाराज का नाम ही नहीं लिया तो काहे की निंदा और काहे की स्तुति!
करपात्री जी महाराज की परम्परा से क्या आशय है? यह साक्षात वेद का ही सिद्धान्त है। श्री रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लाभाचार्य, रामानंदाचार्य,मीमांसक, नैयायिक , वैयाकरण सभी जन्म आधारित वर्ण ही मानते हैं(आधारित का तात्पर्य है जन्म एवं तदनुरूप संस्कार आदि)। उनके पारंपरिक आचार्यवाक्यों की मनगढ़ंत व्याख्याएं करने के कारण तुम अनेकों बार इन्हीं संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा गलत सिद्ध किए जा चुके हो। गुरु-परम्परा से तुम्हारा अध्ययन है नहीं,कोई स्थिर सिद्धांत भी नहीं है। हम लोग जो प्रत्येक सम्प्रदाय के आचार्यों से सम्पर्क में रहते हैं,उनका मत भी जानते हैं। अपनी निजी हीनभावना या द्वेष को मिटाने के लिए हमारे अनेक सम्प्रदायों के आचार्यों को वेदविरोधी सिद्ध करने का कुप्रयत्न मत करो।
चिंता मत कीजिए आपके सारे प्रलाप सदैव प्रासंगिक रहेंगे और आपको अच्छा लाभ होगा। प्रथम तो ये सब आलेख का विषय है ही नहीं! ये आचार्य क्या मानते है ये उनके धर्मावलंबी बताएंगे मैं नहीं! और रही बात करपात्र महाराज के विचार की तो मैंने लिख ही दिए हैं, वर्ण जन्म से या कर्म से ये यहाँ का विषय नहीं! और अन्य आचार्यों ने भले भी जन्म से वर्ण माना लेकिन सभी को मंदिर प्रवेश मिले इसके पक्ष में सभी अन्य वैष्णव आचार्य हैं, कोई जन्मना छुआछूत समर्थक नहीं है! वर्तमान में वैष्णवाचार्यों क्या शांकर सम्प्रदाय के ही अगणित आचार्यों के विचार ही करपात्री महाराज से तनिक भी मेल नहीं खाते, मध्वाचार्य संप्रदाय संबंधित, वल्लभाचार्य प्रभृति आचार्यों ने सामाजिक कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया था! इनके तत्कालीन ट्रैड वादियों ने भी इनका विरोध किया, चैतन्य चरितामृत में स्पष्ट है कि किस प्रकार ट्रैड वादियों ने धर्म भंग का आरोप लगा मौलाना काज़ी से शिकायत कर डाली थी! क्यों? क्योंकि महाप्रभु महामंत्र स्त्री और निम्न जातियों को भी दे रहे हैं! इस प्रकार के अनेकानेक उदाहरण हर सांप्रदायिक साहित्यों में निहित हैं। यहां तक कि मलेच्छों को भी वैष्णवों ने दीक्षित किया, उद ० कबीर, हरिदास ठाकुरादि। इसीलिए जन्म से वर्ण में आचार्यों की समानता और उनके भाष्य दिखाकर लोगों को झूठी समानता का झुनझुना मत पकड़ावैं जिसमें उनके सामाजिक धरातल पर मतभेद लुप्त हो जाएं!
फिर इसके बाद आप एक और कुतर्क लेके रोते हो? अरे आप एक बात बताओ, आलेख का प्रत्युत्तर/ खण्डन कर रहे हो या लेखक का? अगर लेखक का कर रहे हो तो, उसके लिए उसका आलेख ही प्रमाण है। अपने मन में कुछ भी अंट शंट पूर्वाग्रह बना कर कुछ अंट शंट विषय पर कुछ लिखे जा रहे हो? मैं किनके द्वारा क्या सिद्ध किया जा चुका है, उसका इस लेख से क्या प्रयोजन? कपोलकल्पित इंद्रजाल कॉमिक्स की तरह बात मत करिए! मेरा मत क्या है इससे इस आलेख क्या प्रयोजन, मेरे बारे में जानना है तो व्यक्तिगत बात हो सकती है।
भृत्य कर्म करना धन के लिए ही होता है अन्यथा आय के अन्य स्रोत भी हैं। दमन स्वाभाविक है किसने कहा?किस प्रमाण से जाना? शास्त्रों में ऐसे प्रमाण हैं ,जिनमें स्वयं से पहले दास को भोजन ,घर की स्त्री ,पुत्रों को भूखा रखना किन्तु दास को भूखा न रखना, दासों को आभूषण आदि देने से स्वर्ग प्राप्ति का वर्णन है।ऐसे में दमन होगा? तुम्हारे हाथ क्यों कांपते हैं?तुम जैसे व्यक्ति ही “ग्रामसिंह”(श्वान) और सिंह दोनो में शब्दों के साम्य से दोनों से ही भयभीत होकर कांपने लग जाएं तो यह तुम्हारी समझ का दोष है। सनातन में दास पुत्रसमान है,इसका “स्लेव” से कोई साम्य नहीं
“तुम्हारे हाथ क्यों कांपते हैं?” ठीक है, माना की आप जैसे शोषक निष्ठुर करुणा-दया हीन रौक्ष्य प्राणी के कभी किसी चीज पर हाथ नही कांप सकते, किंतु जिसे इतिहास का ज्ञान है, जिसे इस बात का प्रमाण सहित ज्ञान है उसके हाथ तो जरूर कांपेंगे। ऐसे अनेकानेक उदाहरण व्याप्त हैं जहाँ जन्मना दासत्व पर क्रूरता के उल्लेख है। इतिहास में कई जगह और विगत १०० वर्षो में तो अनेक उदाहरण हैं ही। किंतु आपको विषय विमुख पांडित्य का चस्का लगा है तो मैं भी लिखे ही देता हूँ! दासों के १५ भेद बताए गए है तथाकथित शास्त्रों में जिसमें “गृहे जातस्तथा क्रीतो लब्ध:“ अर्थात् घर के दास दासी से उत्पन्न, और खरीद के लाया, लाभ में मिला.. ये भेद भी हैं! अर्थात जन्म से दास और तो और उनका क्रय विक्रय भी! एक निर्जीव वस्तु की भांति! अपितु ये कभी दासत्व से मुक्त भी नहीं हो सकते, स्वामी के चाहने के बाद भी, “यथा- तत्र पूर्वाश्चतुर्ववर्गो दासत्वान्न विमुच्यते, प्रसादाद्धनिनोऽन्यत्र दास्यमेषां क्रमागतं” ! इतना ही क्यों इन दासों का परीक्षण भी होता था फिर इनका मूल्य चुकाया जाता था! दास ही नहीं दासी और स्त्रियों के क्रय विक्रय की “परंपरा” थीं! प्राय: दास का परीक्षण अवधि १५ दिन और स्त्रियों की १ महीने होती थी (यथा:” द्विपादामर्धर्धमास: स्यात् पुंसां तद्द्विगुणं स्त्रिया:”)! और तो और अगर दासी अपने से निम्न वर्ण की हुई तो स्वामी उसके साथ दुष्कर्म भी कर सकता है। और इसमें कोई दोष नही होता! केवल दासी ही नहीं चार प्रकार की स्त्रियों के साथ ये हो सकता है: १. स्वैरिणी (ब्राह्मणी के अलावा: क्षत्राणि, वैश्य स्त्री, और नीचे वालों का तो क्या ही कहना), २. वेश्या, ३.दासी, ४. निष्कासिता(घर से निकली हुई) [यथा:“स्वैरिण्यब्राह्मणी वेश्या दासी निष्कासिता च या, गम्या: स्युरानुलोम्येन स्त्रियो न प्रतिलोमत:”] ! एक अन्य स्थान पर ये कहा गया कि अगर दासी से दुष्कर्म पश्चात् संतान की प्राप्ति होती है तो स्वामी चाहे तो उसे दासत्व से मुक्त कर सकता है (“स्वदासीं यस्तु संगच्छेत्प्रसूता च भवेत्ततः, अवेक्ष्य बीजं कार्या स्यान्न, दासी समन्वया तु सा”)। दास का अशुभ कार्य क्या है? “गुह्याद्वास्पर्शनोच्छिष्टविण्यमूत्रगहणोज्झनमिष्टत: स्वमिनश्चाङ्गौरूपस्थानमथोऽन्तत:” लिखूं?? इनका उद्धरण संख्या तो पता ही होगा आपको? इनके इतर मनुस्मृति ८.४१३~४१५, भी शूद्र को दास के रूप में प्रतिष्ठापित करता है, दूसरे शब्दों में शूद्र को ब्रह्मा ने ब्राह्मणों के दास के लिए बनाया है (“दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयम्भुवा“)! “यथाकामवध्य:” जैसे विशेषणों से सुशोभित शूद्र है। इनकी कितनी भी लीपापोती कर लो शास्त्रीय ढंग से, इतिहास साक्षी है दासप्रथा की परंपरा का! मेरा तो हाथ जरूर कांपेगा इस शब्द को लिखते हुए।
आपने प्रायश्चित प्रायश्चित के भी बड़े गीत गाए हैं। कितने प्रायश्चित आजके युग में प्रायोगिक हैं? प्रसांगिक हैं? अगर इनकी परंपरा पूर्ण रूप से स्वाहा हो चुकी है तो जब परंपरा ही नहीं बची तो संरक्षण किस बात का? आपको पता भी है सुरापान का प्रायश्चित? “सुरापोग्निस्पर्शा सुरां पीबेत्“ (आ.धा. १.९.२५.३), “सुरां पीत्वोषणया कार्य देहात“( बो. सू २.१.१.१७) इत्यादि अनेकानेक विधान हैं, चोरी करने के भी प्रायश्चित हैं, जो वर्तमान समय में बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं। किसी काल खण्ड में रहे होंगे इसपर भी संशय ही है क्योंकि किसी हिन्दूराज्य के इतिहास में ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण आदि देखने में नहीं आता! अब कोई लिंगोच्छेदन करवा के प्रायश्चित नहीं करता, व इन वचनों के आधार पर पहले भी कौन करता था?! कथित ट्रैड वादियों से पूछता हूँ कि क्या तुम बाल ब्रह्मचारी हो? फिर स्मृति अनुसार गर्दभ की बलि देकर वन में उपवास क्यों नहीं करते! स्मृतियों में जो अव्यवहारिक प्रायश्चित्त दे रखे हैं वह इनमें से एक भी नहीं कर सकता है। बात बात में चान्द्रायण व्रत का विधान लिख रखा है। कथित ट्रैड वादियों के लगभग शतांश पूरे जीवन में एक चान्द्रायण नहीं कर सकते।! ऐसे में तुम सभी तथाकथित ट्रैड धर्मच्युत हों!
एक अन्य बंदरबांटकुतर्क बहुत विख्यात है, अगर कोई सामने वाले किसी व्यक्ति को कोई सहस्त्रों झापड़ जड़ने के बाद जब न्यायायिक समीक्षा की बात आयेगी तो झापड़ मरने वाला व्यक्ति कहे कि पूर्वकाल में मैने भी १० झापड़ खाए थे! एक अन्य उदाहरण ले कीजिए कोई ये कहे आलाने फलाने को खाने का अधिकार नहीं है, और फिर कहे ये मुझे ले लो मुझे भी उपवास में भोजन निषिद्ध है। और इतना ही नहीं साथ में ये कहे कि केवल थाली की तलहटी देखकर आप तृप्त हो जायेंगे तो ये तर्क, कुतर्क की ही श्रेणी में रखे जाते हैं।
अब सबसे महत्वपूर्ण बात सुने जो आपके पूरे प्रत्युत्तर को पूर्ण रूपेण पूर्वाग्रहाश्रित और पटरी के बाहर/विषय के बाहर अहंकार की दौड़ती रेल समतुल्य सिद्ध करती हैं:-
मेरे द्वारा वर्णित “करपात्ररत्नसमुच्चय” में करपात्री महाराज के समस्त विचारों को आपने माना ही है! आपने अपने लेख में उनको शास्त्रसिद्ध किया है, और अन्य आचार्यों के विचारो का उदाहरण लेकर समतुल्यता प्रकट करने की चेष्टा की है। आपका लेख करपात्री महाराज के विचारो को बचाने की दृष्टि से है, यहां भी आपका ही दोष है क्योंकि आपने पहले ही मान लिया की ये सारे विचार महाराज जी के आभामंडल को हानि पहुंचा रहे हैं, ऐसे में आपको लेख लोगो को समझाने हेतु लिखना था नाकि मेरे खण्डन निमित्त।
कितनी मूर्धन्यता का विषय है कि आप न जाने कहाँ-कहाँ के ग्रंथों से शास्त्रीय प्रमाण देने लगे महाराज जी के बातों का! अरे महाराज जी के मुख में तो सरस्वती विराजमान है तो जो वो बोलेंगे वो शास्त्रीय ही होगा (उनकी व्याख्यानुसार) आपको इतने प्रमाण देने के आवश्यकता नहीं है। और तो और ये सब व्यर्थ के विषयविमुख बातों पर व्यर्थ के पांडित्य का प्रदर्शन भी कुतर्क की पराकाष्ठा है। क्यों? क्योंकि मैं यहाँ(आलेख में) यह निर्णय थोड़ी कर रहा हूँ कि क्या सही क्या गलत? मैं ये भी निर्णय नहीं कर रहा हूँ कि ये शास्त्रप्रोक्त है सही है या शास्त्र विरुद्ध? धर्म विरुद्ध है या धर्मसंगत? मैं यहाँ कोई किसी के सिद्धांत का खण्डन थोड़ी न करने बैठा हूँ? मैं तो मात्र महाराज जी के विचार प्रस्तुत कर रहा था, उनको रेखांकित कर रहा था। जिसको मानना है मानो न मानना है मत मानो। लेखक को क्या? सीधी सीधी बात है! पाठक के सामने सारे विचार प्रदर्शित होने चाहिए उसको क्या चुनना है, ये उस पर निर्भर है। यहाँ पर केवल इस बात का निर्णय हो सकता है कि उन्होंने ऐसा कहा या नहीं? हाँ या न? थोड़ा बहुत मंशा/प्रयोजन पर भी विमर्श हो सकता था! किन्तु आलेख का स्वरुप न जानकर जघन्य पूर्वाग्रह से ग्रस्त कुछ भी अनर्गल विषयविमुख परिपेक्षविमुख थोथे पांडित्यविषयों को लिख देना तर्कसंगत ही नहीं है। परिसर की बाहर की चीज़ों पर व्यर्थ वाद विवाद करना जड़ता का सूचक है।
यदि समझ नहीं आया तो उदाहरण स्वरूप अगर मैं बोलूं की मोदी ने कहा अच्छे दिन आयेंगे !! और आप ये बताने लग जाएँ संविधान खोलकर कि ये देखो इसके अनुसार ये होना चाहिए, इसके हिसाब से मोदी की बात शास्त्रसम्मत है तो इसमें मेरा क्या खण्डन हुआ?! और अगर इसके विपरीत संविधान खोलकर ये दिखाने लग जाओ कि ये गलत है वो गलत है, तो भी इसमें मोदी का खण्डन हुआ या मेरा? दोनो ही दृष्टि से संविधान प्रयोग तर्कसंगत नहीं है। और अगर आप ये बताने लग जाए कि राजनाथ ने भी ये बोला है, अलाने फलाने ने ये बोला है तो भी इसमें मेरे प्रयोजन से क्या लेना देना? इसमें मेरा खण्डन हुआ क्या ??
पूंछे नीम बतावें इमली वाला हाल हो रखा हैं! उपर से इसमें भी आप न्याय शास्त्र, अद्वैत, बौद्ध, आचार्यों के विचार, वेद शास्त्रादि ग्रंथो की अस्मिता पर वाद विवाद को उतार दिया! ऐसा लग रहा था जैसे कोई अद्वैत वाद, स्मार्त संप्रदाय से शास्त्रार्थ कर रहा हों! धन्य है प्रभो! ये सारी तोड़ तुमुन; ये सारे थोथलेबाजीं सिद्ध करतीं हैं कि आप अपने अभिनिवेषीयात्मसम्मान तक इसको उतार ले गए! अगर आपको पांडित्य प्रदर्शन करना है, तो शास्त्र सम्मत विधा से समझाइए लोगों को की किस प्रकार बालविवाह शस्त्रसम्मत है, इसके क्या क्या आध्यात्मिक सामाजिक लाभ है, किस प्रकार रजस्वला स्त्री के मन में विकार आता है, कैसे घूंघट से मोक्ष मार्ग सुलभ होता है, ये सब समझाइये न, तब तो बात बनेगी!समझाइए की कैसे दलित, अंत्यज, शूद्र मंदिर के शिखर कर मोक्ष प्राप्त करेगा!
लोगो को समझाएं कि किस प्रकार शूद्र को दास बनाया जाए, और उनके दासत्व में ही उनके मुक्ति का मार्ग है! अपने “धर्म सम्मुच्चय” को अपने अंजली में ही मत समेटिए, थोड़ा मानसिक अहंकारिक चक्कवाल से बाहर निकलिए, मठों से बाहर निकलिए और अपने प्रोक्त धर्म का प्रचार करिए, जन जन को समझाएं, उनका मोक्ष मार्ग सुलभ करावैं। सभी वर्णों को; शास्त्रोद्धरण से, शास्त्रगम प्रमाण से समझाइए की किस प्रकार एक जितेंद्रिय शूद्र हुआ तो भी अभिवादन नहीं करना है और दु:शील जन्मना ब्राह्मण भी हुआ तो भी पिता समान जी लगाकर हाथ जोड़ लेना है, अधर्मी ब्राह्मण के भी न दंड देने के प्रावधानादि अनेकानेक विषयों पर सुप्त हिंदू समाज को शिक्षित तो कीजिए! जन जन तक इनका मर्म समझाइए और स्वयं पालन कीजिए तब तो कुछ धर्मोत्थान होगा! जन्मना छुआछूत की अनिवार्यता समझाएं, जन्मना व्यवसाय से कैसे मोक्ष मिलता है ये बतलाए! कहा फंसे हुए है आप लोग! आखिर आप लोग ये कार्य नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा? हम जैसे लेखक तो नहीं करेगें! जिस दिन आप पूर्ण रूप से मुझको/जन जन को इन विषयों पर संतुष्ट कर देंगे प्रत्यक्षानुमानागम प्रमाणों के धरातल पर उसी दिन मैं आपके मतों का अनुपालन कर्ता बन जाऊंगा! अभी हम जैसे लेखकों के मत जान कर क्या करना आपको??
यहीं तो विडंबना है आप सभी में, हजारों वर्षो से खण्डन मंडन करते करते भी क्षुधा शांत नहीं हुई, व्यर्थ के लाल बुझक्कड़ के मानवनिर्मित शब्द जालों से आपने सामान्य जनता को बुन दिया! सत्य की संगोष्ठी केवल खण्डन कर्ता और प्रतिखण्डनकर्ता तक सिमट गई और कालक्रम में इसका उद्देश मात्र जातिगत शुक्रगत संप्रदायगत अहंकार के सींचन हेतु रह गया। वाद संवाद सत्य को अपनाने के लिए होता है! बाप दादा मिल्कायत के संरक्षण हेतु नहीं! यहाँ भी भाव अपनाने का है, जिसके लिए कुछ असत्य छोड़ना पड़ेगा जो की ट्रेडवाद की विचारधारा के विपरीत है। ये ऊल जलूल के कुतर्क शब्द भेदी जाल मात्र है13:27
सत्य और ब्रह्म से मीलों दूर।आपसे विनम्र निवेदन है मध्यकालीन मलों को एवं मन के मैलों को त्याग दें! मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि काट्याकाट्य तर्कों के द्वारा संसार की किसी भी वस्तु की तर्कसंगतता सिद्ध करते हुए समर्थन दिया जा सकता है। मैं स्वयं अपने लिखे हुए का बलात् खण्डन कर सकता हूं। हराना बहुत आसान है, जीतना कठिन है और इनके मध्य से कुछ सीखना दुर्गम है। गुरु गोरखनाथ का आदेश है “पंडित सो न करिबा वाद“; अत: शांति की कामना करते हुए मैं सारे विवाद का अंत कर देता हूँ।
नोट:- यह लेख दिनाङ्क 7.9.2021 को लिखा गया है। यदि उसके प्रत्युत्तर में कोई प्रमाणों से सुसज्जित लेख आता है जिसमें ठीक हमारी भांति एक एक पंक्ति का खंडन किया हो तो उसका उत्तर दिनांक 13/9/2021 के पश्चात दे दिया जाएगा। जिसको शास्त्रवाद, परंपरावाद से समस्या है,हम उन्हें लेखनी उठाने का प्रोत्साहन देते हैं और कहते हैं कि प्रमाणों के आधार पर कुछ खण्डन करें इससे शास्त्रवादियों का ही पक्ष दृढ़ होगा। इति
ये नोट आपके संशय विपर्यय से ग्रसित, और आपके कुतर्कों से भरे, और गालियों और आक्षेपों से सजे प्रति उत्तर के खोखले पन को ही प्रकट करती है। आपको अपने लिखे हुए पर ही विश्वास न था! अत: आप पुन: मेरे प्रत्युत्तर के खण्डन हेतु लालायित थे। मुझे न ही परंपरावाद, न ही शास्त्रवाद से समस्या है! हाँ ट्रैड वाद से जरूर है!
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