हिन्दू धर्म में विदेश यात्रा : इतिहास और शास्त्र

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सनातन धर्म के सभी शास्त्रों में भारतभूमि को साक्षात देवभूमि माना गया है, जहाँ ईश्वर के अवतार हुए, असंख्य ऋषि मुनि, तपस्वी हुए। समस्त शास्त्र जहाँ प्रकट हुए। इस भारतभूमि पर जन्म अनेक पुण्यों के फलस्वरूप कहा गया है जहाँ देवता भी आने को लालायित रहते हैं। इसका कारण है कि भारत की पवित्र भूमि पर वैदिक कर्म सर्वाधिक सुलभ होता है, यहाँ वर्णाश्रम का पालन होता है, यहाँ यज्ञ होते हैं, यहाँ साधु संतों का सान्निध्य होता है, यहाँ उत्तम मूल्य, धर्म पुण्य होते हैं, यहाँ कण कण में देवताओं का वास, गौमाता की पूजा, गंगा की धारा, गायत्री जप, काशी मथुरा अयोध्या जैसे तीर्थ होते हैं। इसलिए यहाँ जन्म लेने वाला अपना सहज उद्धार करने में बहुत सक्षम होता है। जबकि भारतबाह्य विश्व की अथाह भूमि पर मलेच्छत्व होता है, धर्म नहीं होता इसलिए वहाँ जन्म लेने वाले में धर्म का स्फुरण अत्यंत कठिन होता है।

बौद्धों के उदय से पूर्व समस्त भूमण्डल पर किसी न किसी रूप में सनातन संस्कृति रही थी। बौद्धों के उदय के बाद एक ऐसी अपसंस्कृति का जन्म हुआ जिसने विश्वभर में वेदधर्म का अवमूल्यन शुरू किया। वैदिकता से, यज्ञों से, शाश्वत धर्म से, देवताओं से संस्कृतियों को विलग किया। बौद्धों ने तंत्र के साथ खिलवाड़ करके वज्रयान जैसे व्यभिचारी पंथ बनाए और समाज को आसुर मनोवृत्तियों की ओर मोड़ा। ऐसी स्थिति में भगवान् आद्य शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने बौद्धों को खदेड़कर भारत की मुख्यभूमि से अलग करके सुदूर अफगानिस्तान, तिब्बत, ताजीकिस्तान आदि में खदेड़ दिया। व बहुसंख्य बौद्ध बन चुके भारत में पुनः वेदधर्म की स्थापना की। इस समय कठिनता से स्थापित हुई वैदिक मर्यादा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कई नियम बनाए गए। उनमें से एक था “विदेश यात्रा गमन निषेध”। विदेशगमन निषेध का कारण यह था कि वैदिकधर्मी फिर से म्लेच्छों के संसर्ग में न आएं और उनका धर्म भ्रष्ट न हो। इस नियम में समुद्र पार करने को निषेध किया गया। क्योंकि उस समय म्लेच्छ देशों में समुद्रयात्रा करके ही जाया जा सकता था, उस समय वायुयान भी नहीं थे।विदेश यात्रा हिन्दू धर्म समुद्र यात्रा

विदेश यात्रा निषेध मुख्यतया द्विजों पर लगाया गया क्योंकि विदेश जाने से द्विजत्व की हानि की संभावना होती है। विदेश में पूजापाठ, यज्ञ हेतु उचित द्रव्य मिलना उस समय सुलभ नहीं था। आज भी विदेश जाने पर खासकर शाकाहारियों को खानपान में समस्या होती है। म्लेच्छों से संसर्ग के कारण उनमें अनेक दोष आने की संभावना होती है। इस कारण विदेश यात्रा निषेध किया गया जो तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए एक आवश्यक निर्णय था। जो स्वयं पर आवश्यक अंकुश रखने में अक्षम हैं, राज्य व धर्म को उनपर नियम का अंकुश लगाना पड़ता है।

पर विदेश यात्रा गमन कभी भी धर्मप्रचार, व्यापार या युद्ध हेतु भारत में प्रतिबंधित नहीं था। इतिहास उठाकर देखें तो लगभग ईसा के समकाल में भारत से ही कौण्डिन्य ब्राह्मण दक्षिणपूर्वी एशिया के कम्बोडिया वियतनाम आदि देशों में गए और वहाँ महान हिन्दू चम्पा साम्राज्य की स्थापना की। इसी कालखण्ड में आसुरी यहूदी मजहब में आमूलचूल सुधार करने वाले ईसा मसीह के जन्म की भविष्यवाणी करने सम्राट विक्रमादित्य के दरबार से 3 ज्योतिषी येरुशलम तक गए थे जिसका जिक्र बाइबिल में भी आया है। विश्वव्यापार में भारत के वैश्यों की धाक हमेशा से ही रही है और विश्वभर में जाकर वे व्यापार करते थे। ईसापूर्व 300-400 से पहले चन्द्रगुप्त के ऐतिहासिक काल से ही हिन्दूराष्ट्र की वाणिज्य नौका और रणनौका दूर दूर के विदेशों तक अव्यवहत रूप से जाया आया करती थी। हिन्दू राष्ट्र के लिये सागर तो एक सड़क बनी हुई थी। एक जगह सीमित होकर कभी भी व्यापार नहीं बढ़ सकता इसलिए मध्यकाल में तुर्की पर इस्लामी आधिपत्य के बाद यूरोप का भारत से व्यापार बन्द हो गया तो वे दूसरे रास्ते खोजने लगे। वास्को डी गामा को भारत का समुद्र मार्ग खोजते समय अफ्रीका में भारतीय व्यापारियों से सहायता लेनी पड़ी थी

चोल वंश के राजा राजेन्द्र प्रथम ने नौसेना के बल पर समुद्र मार्ग द्वारा ही मलाया, सुमात्रा, जावा, बाली आदि द्वीपों पर विजय प्राप्त की थी। इस पूर्व समुद्र में से मगध, आध्र, पाण्ड्य, चेर, चोल आदि हिन्दूराज्यों ने बड़े बड़े दिग्विजयी जहाज (बेड़े) भेजकर सयाम, जावा, बोर्नियो से फिलीपींस तक हिन्दू उपनिवेश, राज्य, धर्म और संस्कृति स्थापित की थी। इंडोचाइना और फिलीपींस में हिन्दूराज्य स्थापित थे। इसके अकाट्य ताम्रपट शिलालेख प्राप्त हैं। वैदिक क्षत्रियवंशीय हिन्दूओं के वहाँ स्थापे हुए उपनिवेशों को दिए हुए नाम, शिव, विष्णु आदि देवों के महान मन्दिर, संस्कृत ग्रन्थों के ग्रन्थालय, हिन्दू वाणिज्य, कला, संस्कृति आदि,– सयाम, जावा, म्यांमार, चाइना, बाली से फिलीपींस तक सदियों तक पूर्ण विकसित अवस्था में थे। यह निर्मल इतिहास है।

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हिन्दुओं के त्रिविक्रमशील चरण पूर्व पश्चिम दक्षिण समुद्रों और महासागरों को लांघकर, राजकीय, धार्मिक, सामाजिक, दिग्विजय करते हुए हिन्दुओं के महासाम्राज्य निनादित करते चला करते थे। हिन्दू रणतरियों के प्रचण्ड नौसाधन दिग्दिगन्त में अप्रतिहत रूप से संचार किया करते थे। इतिहास के सिंहावलोकन से स्पष्ट प्रमाणित होता है कि हिन्दू सदैव विदेश यात्रा किया करते थे और इसका निषेध केवल देश काल परिस्थिति सापेक्ष नियम था।

वेदों में भी समुद्र यात्रा के प्रमाण बहुतायत में उपलब्ध हैं —

◆ समुद्रमव्यथिर्जगन्वान् रथेन मनोजवसा ।
ऋग्वेद – १.११७.१५
वह मन के तुल्य वेद वाले रथ से, सरलता से, समुद्र के पार गया।

◆ समुद्रस्य चिद् धनयन्त पारे ।
ऋग्वेद १.१६७.२
हम समुद्र के पार से भी धन लावें ।

◆ समुद्रे न श्रवस्यवः ।
ऋग्वेद १.४८.३
धन के इच्छुक व्यक्ति समुद्र में नौकाएँ चलाते हैं ।

◆ रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तम् ।
ऋग्वेद १.४७.६
अश्विनी हमें समुद्र और द्युलोक से धन प्राप्त करावें ।

◆ अनारम्भणे … अनास्थाने अग्रभणे  समुद्रे ।
ऋग्वेद १.११६.५
अश्विनी ने अथाह समुद्र से  व्यापारी को पोत से बाहर निकाला ।

◆ समुद्रे न श्रवस्यवः ।
ऋग्वेद १.४८.३
धन के इच्छुक व्यक्ति समुद्र में नौकाएँ चलाते हैं ।

भगवान् श्रीराम ने भी समुद्र पार करके ही लंका के राजा रावण को हराया था, श्रीराम के साथ लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव समेत लाखों वानर सेना ने भी समुद्र पार किया था। विदेश यात्रा निषेध का कोई भी स्पष्ट श्रुति या स्मृति प्रमाण उपलब्ध नहीं है। कुछ आचार्यों ने तात्कालिक परिस्थितियों की आवश्यकता समझकर वैदिक धर्म की रक्षा हेतु इसे निषेध किया। यदि आज वे आचार्य होते तो समस्त विश्व में अप्रतिहत विचरण करके सनातन धर्म का डिंडिम घोष करके हिन्दू विश्व का निर्माण करते। वेद का स्पष्ट आदेश है “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” सारे विश्व को आर्य बनाओ। यह कौण्डिन्य ब्राह्मण जैसे विदेश में वैदिक धर्म प्रवर्तन करके ही हो सकता है।

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आज के समय में विदेश में व्यक्ति चाहे तो धर्म/द्विजत्व व मर्यादा की रक्षा के सम्पूर्ण साधन हैं। पहले जैसी कठिनाई नहीं है। और जिसे नहीं करनी हो वह तो भारत में भी म्लेच्छ जैसा आचरण करते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी, शंकराचार्य स्वामी श्रीभारतीकृष्णतीर्थ जी, परमहंस योगानन्द जी, स्वामी रामतीर्थ जी, महर्षि महेश योगी जी, स्वामी श्रील प्रभुपाद जी, स्वामी शिवानन्द जी, स्वामी चिन्मयानन्द जी आदि महात्माओं ने सम्पूर्ण विश्व में सनातन धर्म का डिंडिम घोष किया और आज लाखों नहीं करोड़ों विदेशी हिन्दू धर्म अपना चुके हैं।

ईसाई मुसलमान आदि अण्डमान के वीभत्स सेंटिनल द्वीप में प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने धर्म का प्रचार करना चाह रहे हैं और यहाँ कुछ लोग विदेशगमन निषेध की अप्रासंगिक बातों में उलझे हुए हैं। विश्वभर में धर्मप्रचार वेदादेश है। विद्वान, सन्त को चाहिए कि प्रजा को मार्गदर्शन कराए। विधर्म में कोई जा न पाए, न स्वधर्म में लौटने में कोई परेशानी आए। आपद्धर्म को जो नहीं समझता वह राष्ट्र और समाज का शत्रु है। आज विदेश में भी हिन्दू साधकों भक्तों के धर्मनिष्ठ संगठन विद्यमान हैं। आज भव्य हिन्दू मन्दिरों पर भगवा पताकाएं विश्वगगन में लहरा रही हैं। और धीरे धीरे यह विश्व पृथिव्यैसमुद्रपर्यन्ताया एकराट् हिन्दू राष्ट्र बनने की ओर बढ़ता जा रहा है जहाँ हर स्थान पर सनातन धर्म होगा और विदेश कहने लायक कोई भूमि नहीं बचेगी।

हिन्दूराष्ट्र का स्वर्णिम संकल्प

उपरोक्त लेख आदरणीय लेखक की निजी अभिव्यक्ति है एवं लेख में दिए गए विचारों, तथ्यों एवं उनके स्त्रोत की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु The Analyst उत्तरदायी नहीं है।

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