युधिष्ठिर जी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा – हे पुरुषोत्तम! आप यह किसका ध्यान कर रहे हैं? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। इस त्रिलोकी का कुशल तो है न? आपके शरीर में रहने वाली प्राणवायु रुक गई है। आपके रोंगटे खड़े हो गये हैं। जरा भी हिलते नहीं हैं। माधव! आप लकड़ी, दीवार और पत्थर की तरह निष्चेष्ट हो गये हैं। भगवन्! वायुशून्य स्थान में रखे हुए दीपक की लौ की तरह आप भी स्थिर हैं मानो पाषाण की मूर्ति हों।। देव! मेरे इस संशय का निवारण कीजिये, इसके लिये मैं आपकी शरण में आकर बार बार याचना करता हूँ।
युधिष्ठिर जी की प्रार्थना सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए इस प्रकार बोले।
श्री कृष्ण ने कहा – “राजन्! बाण-शय्या पर पड़े हुए पुरुषसिंह भीष्म पितामह, जो इस समय बुझती हुई आग के समान हो रहे हैं, मेरा ध्यान कर रहे हैं; इयलिये मेरा मन उन्हीं में लगा हुआ है।
बिजली की गड़गड़ाहट के समान जिनके धनुष की टंकार को देवराज इन्द्र भी नहीं सह सके थे, उन्हीं भीष्म के चिन्तन मेें मेरा मन लगा हुआ है।
जिन्होंने काशीपुरी में समसत राजाओं के समुदाय को वेगपूर्वक परास्त करके काशिराज की तीनों कन्याओं का अपहरण किया था, उन्हीं भीष्म के पास मेरा मन चला गया है।
जो लगातार तेईस दिनों तक भृगुनन्दन परशुरामजी के साथ युद्ध करते रहे, तो भी परशुरामजी जिन्हें परास्त न कर सके, उन्हीं भीष्म के पास मैं मन के द्वारा पहुँच गया था।
वे भीष्मजी अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों की वृत्तियों को एकाग्रकर बुद्धि के द्वारा मन का संयम करके मेरी शरण में आ गये थे; इसीलिये मेरा मन भी उन्हीं में जा लगा था।
तात्! भूपाल! जिन्हें गंगादेवी ने विधिपूर्वक अपने गर्भ में धारण किया था और जिन्हें महर्षि वसिष्ठ के द्वारा वेदों की शिक्षा प्राप्त हुई थे, उन्हीं भीष्म जी के पास मैं मन-ही-मन पहुँच गया था।
जो महा तेजस्वी बुद्धिमान् भीष्म दिव्यास्त्रों तथा अंगों सहित चारों वेदों को धारण करते हैं, उन्हीं के चिन्तन में मेरा मन लगा हुआ था।
पाण्डुकुमार! जो जमदग्निनन्दन परशुरामजी के प्रिय शिष्य तथा सम्पूर्ण विद्याओं के आधार हैं, उन्हीं भीष्मजी का मैं मन-ही-मन चिन्तन करता था।
भरतश्रेष्ठ! वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की बातें जानते हैं। धर्मज्ञों में श्रेष्ठ उन्हीं भीष्म का मैं मन-ही-मन चिन्तन करने लगा था।
पार्थ! जब पुरुषसिंह भीष्म पितामह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्गलोक में चले जायँगे, उस समय यह पृथ्वी अमावस्या की रात्रि के समान श्रीहीन हो जायगी।
अतः महाराज युधिष्ठिर! आप भयानक पराक्रमी गंगानन्दन भीष्म के पास चलकर उनके चरणों में प्रणाम कीजिये और आपके मन में जो संदेह हो उसे पूछिये।
पृथ्वीनाथ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों विद्याओं को, होता, उद्गाता, ब्रह्मा ओर अध्वर्यु से सम्बन्ध रखने वाले यज्ञादि कर्मों को, चारों आश्रमों के धर्मों को तथा सम्पूर्ण राजधर्मों को उनसे पूछिये।
कौरव वंश का भार संभालने वाले भीष्म रूपी सूर्य जब अस्त हो जायँगे, उस समय सब प्रकार के ज्ञानों का प्रकाश नष्ट हो जायगा; इसलिये मैं आपको वहाँ चलने के लिये कहता हूँ।”
यह सब उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर युधिष्ठिर जी आँसू बहाने लगे!
– महाभारत, शान्तिपर्व, राजधर्मानुशासनपर्व, अध्याय 46
◆ भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा सिद्ध करदी कि,
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (4.11)
“जो मुझे जिस प्रकार भजता है, उसे मैं उसी प्रकार भजता हूँ…”
◆ भगवान् श्रीकृष्ण हिन्दूओं को भीष्म पितामह जैसा सामर्थ्य दें, जिससे वे कह सकें,
भीष्म पितामह के पोते हैं
शरशय्या पर सोते हैं
ऐसे महाभागवत सर्वभरतवंश-पितामह भीष्म के श्रीचरणों में उनका हर पोता शीश नवाता है….❤️
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