अगर आप भाग्य या दुर्भाग्य से कभी भारतीय न्याय-नक्कारखानों में जिन्हें हम भ्रमवश कई बार न्याय के मंदिर कह देते हैं, गये हों, तो वहाँ बहुधा आपको आंखों पर पट्टी बांधे न्याय की देवी के दर्शन हुए होंगे। भाग्य से तब जबकि आप एक स्थापित वकील या जज हों और दुर्भाग्य तब जबकि आप परेशान मुवक्किल या संघर्षरत युवा वकील हों ।
और हाँ, हमारा संविधान और भारतीय दंड संहिता जितने अभारतीय और आयातित हैं उतनी ही आयातित यह देवीजी भी हैं।
इनकी आंखों पर पट्टी बंधी रहती है और हाथों में तराजू और दूसरे हाथ में तलवार। कहीं कहीं तलवार नहीं भी दिखेगी जैसा कि हम सब जानते हैं भारतीय दंड संहिता दण्डात्मक नहीं मानवतापरक दृष्टिकोण रखती है। यह देवी विशुद्ध पश्चिमी हैं, राउल सिग्नोरा के शब्दों में एन.आर.आई.।
इस देवी का जन्म प्राचीन मिस्र में हुआ जहां इन्हें मात़ (Ma’at) कहते थे और तब इनके पास तराजू नहीं था लेकर सिर पर शुतुर्मुर्ग के पंख लगे होते थे जो सत्य और न्याय का प्रतीक था। ऐसा माना जाता है कि magistrate शब्द की इसी Ma’at से व्युत्पत्ति हुई है क्योंकि मात़ ने ओसाइरिस के न्याय वाले मुकद्दमे में मरे हुए व्यक्ति के हृदय की सत्यता तौल कर बता दी थी।
यही देवी जब ग्रीस पहुंची तो ‘थेमीस’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं और उनके आंखों की पट्टियां हट गईं। वहाँ इस देवी की प्रतिष्ठा एक ऐसे रूप में हुई जो भविष्य को स्पष्ट देख सकतीं थीं और सामाजिक तथा जातीय समरसता का निर्माण करती थीं।
अब देवी रोम पहुंचीं जहां इनका नाम हुआ जस्टिशिया और देवी के हाथ में तराजू और आंख पर पट्टी आ गए।
भारतीय संदर्भों में वैदिक काल से ही सूर्यपुत्र यमाग्रज शनि को प्राकृतिक न्यायाधीश मानते हैं।
तो क्यों नहीं हमने इस मात़ या थेमीस या जस्टिशिया की जगह न्यायालयों में शनि का विग्रह रखा/ या रखते हैं?
संभवतः इससे देश का सेक्युलर फैब्रिक खतरे में पड़ जाता जो पता नहीं कौन सा वस्त्र या अंतःवस्त्र बनाने में उपयोग होता है।
दरअसल, भारतीय विधि अभी उसी उपनिवेश काल की केंचुल में ही फंसा पड़ा है जो भुक्तभोगी से अधिक अपराधी के मानवाधिकार की चिन्ता में परेशान है।
समर्थ के लिए भारतीय विधि लिजलिजेपन के स्तर तक लिनिएंट हो जाता है जबकि जनसामान्य के लिए चिड़िया के गले में फंसा गरम पत्थर। बलात्कारियों का मानवाधिकार है, देशद्रोहियों का मानवाधिकार है भ्रष्टाचारियों को खुला संरक्षण है और इनका असली संरक्षक है सड़ा गला कानून, हां बलत्कृत का और देशभक्त का कोई मानवाधिकार नहीं है।
कानून के संरक्षण में ही सलमान खान, शाहरुख खान, संजय दत्त जैसे अपराधी हीरो बने घूमते हैं। और कानूनी विवशताओं के ही चलते और दया मृत्यु जैसे अधिकारों में स्पष्टता न होने से कोई अरूणा शानभाग इतना लम्बा समय कोमा झेलती है।
संसद और विधान सभाओं में अपराधी बैठे हुए हैं और न्यायवादी जनसामान्य उनकी जूठन की तरफ आशा भरी निगाहों से देखने को मजबूर।
अपवाद हैं लेकिन उनकी स्थिति किसी संयुक्ताक्षर के उपेक्षित हलन्त से कुछ कम ही की है। सिस्टम ईमानदार को हाशिये पर पहुंचा देता है। न्यायाधीश, बड़े वकील नेता और नौकरशाहों का अनैतिक नेक्सस एक प्राइवेट कंपनी की तरह काम कर रहा है जिसके व्यक्तिगत उद्देश्य बड़े घिनौने हैं।
प्राकृतिक न्याय पर आश्रित भारत महासंघ के ‘मैंगो पीपल’ इस ‘बनाना रिपब्लिक’ के कुचक्रों से मुक्ति के लिए शनिदेव की प्रार्थना करते हैं।
‘नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छाया मार्तण्ड संम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।
– डॉ. मधुसूदन उपाध्याय, लेखक भारतीय संस्कृति, इतिहास, कला, धर्म एवं आध्यात्म के गहन जानकार हैं।
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